अपने पैतृक गांव डिहरा (औरंगाबाद, बिहार) से बाहर निकलने के बाद ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द से लगातार पाला पड़ता रहा। भाषणों से लेकर सामाजिक चर्चाओं में हावी रहा यह शब्द। एक बार मैंने एक गोष्ठी में कहा कि हम ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं। हम चाहते इतना हैं कि इस व्यवस्था में जो श्रेष्ठता ब्राह्मणों की है, वह यादवों को प्राप्त हो। इसके बाद हमारे दूसरे साथियों ने इसका विरोध भी किया। लेकिन आखिर ब्राह्मणवाद है क्या श्रेष्ठता के संघर्ष के अलावा।
पिछड़ों व दलितों के हित की लड़ाई लड़ने वाले लोग, संगठन और पार्टियां चाहे या अनचाहे ब्राह्मणवाद को सभी सामाजिक बुराइयों की जड़ मानते हैं। इसके लिए सैकड़ों कहानियां गढ़ी गयी हैं। लेकिन पूरे ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर क्या हुआ? पोथी फाड़ो, पोथी जलाओ, जनेऊ तोड़ो। यही न। इससे आगे बढ़ें तो ब्राह्मण पूजारी के साथ चमार, अहीर, कोइरी पूजारी मंदिरों में बैठा दिए गए। कुछ नये पुरोहित पैदा हो गए, जो वैदिक पद्धति के शादी-विवाह से लेकर श्राद्धकर्म तक कराने लगे। लेकिन समग्र रूप से यह सब उन्हीं कामों के विकल्प तलाशे गए, जो ब्राह्मण कर रहे थे। क्योंकि इन्हीं कर्मों व कार्यों के कारण ब्राह्मण श्रेष्ठ थे।
यानी हम वर्ण व्यवस्था में व्याप्त श्रेष्ठता का विरोध नहीं कर रहे थे। हम श्रेष्ठ बनने के प्रयास कर रहे थे। जिस श्रेष्ठता के हित में ब्राह्मणों के लिए ‘ब्राह्मणवाद’ ढाल बना रहा, उसी श्रेष्ठता के लिए हम बेचैन हैं। हम ‘नया ब्राह्मण’ बनाना चाहते हैं, जो पूजा कराए, शादी कराए, श्राद्ध कराए। लेकिन किसी ब्राह्मणवाद के विरोधी ने डोम के कामों को करने की पहल नहीं की, किसी ने चमार के कामों को करने की पहल नहीं की, किसी ने धोबी के कामों को करने की पहल नहीं की। आखिर यह कर्म व काम भी वर्ण व्यवस्था के हिस्से थे। लेकिन वर्ण व्यवस्था के विरोधियों ने कभी ब्राह्मणों के कार्यों को अपनाने के समान डोम, चमार या धोबी के कार्यों को नहीं अपनाया। इसके लिए कोई आंदोलन नहीं चलाया। क्योंकि ये काम श्रेष्ठता के पर्याय नहीं थे। यह काम समाज के निम्न कामों की नजर से देखा जाता है। इसलिए इसे कोई नहीं करना चाहता है। ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले डोमवाद, चमारवाद या धोबीवाद का विरोध क्यों नहीं करते हैं? क्योंकि वह समाज में श्रेष्ठ कहलाना चाहते हैं। इसलिए ब्राह्मणों के कार्यों के लिए आंदोलन करते हैं। लेकिन चमार, डोम या धोबी के कार्यों के लिए सोचते भी नहीं है।
दरअसल ब्राह्मणवाद का विरोध सबसे बड़ा आडंबर है। ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले लोग समाज में, व्यवस्था में श्रेष्ठता के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं। लेकिन वह इसे खुले शब्दों में स्वीकारने के बजाय ‘वाद’ की चासनी में लपेट पर लोगों के समक्ष रखते हैं। ताकि उनका झूठ छुपा रहे।
यदि हम यह कहते हैं कि हम ब्राह्मणवादी व्यवस्था के समर्थक हैं और उस व्यवस्था में यादवों की श्रेष्ठता चाहते हैं। तो इसकी अपनी चुनौतियां भी हैं और उन्हें स्वीकार करने के लिए हम तैयार भी हैं। यदि आप समाज में श्रेष्ठता चाहते हैं तो उसके लिए अपने आपको तैयार भी करना होगा। शिक्षा, समाज, संस्कृति, आर्थिक हर रूप से अपने को सक्षम बनाना होगा। सामाजिक आंदोलन का एक व्यापक असर दिखा था। त्रिवेणी संघ जैसे संगठनों ने सामाजिक सम्मान व सत्ता के संघर्ष को मुकाम दिया था। शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र के नए आयाम सामने आए थे। लेकिन हम ‘ब्राह्मणवाद’ के दायरे से बाहर नहीं निकल पाए या कहें कि ‘ब्राह्मण’ बनने की चुनौतियों से मुंह मोड़ लिया। परिणाम सामने है कि हम ‘दुर्गा’ की जगह ‘महिषासुर’ की पूजा का आडंबर कर रहे हैं। हम पूजा का विरोध नहीं कर रहे हैं। जब तक महिषासुर रहेगा, तब तक दुर्गा भी रहेगी। और दुर्गा रहेगी तो दुर्गा का आडंबर भी रहेगा। इसलिए जरूरी है कि ब्राह्मणवाद की ‘श्रेष्ठता के संघर्ष’ को हम स्वीकार करें और श्रेष्ठता की लड़ाई में अपने को श्रेष्ठ साबित करें। श्रेष्ठता विरोधी अभियान चलाने के बजाय श्रेष्ठ बनने का अभियान चलाएं।
लेखक बीरेंद्र कुमार यादव बिहार के पत्रकार हैं.