यशवन्तजी, पत्रकार और पत्रकारिता के नाम पर लूट की एक बहुत गम्भीर खबर देने के लिए धन्यवाद. मित्र, पर प्रदेश का ‘सांस्कृतिकधानी’ वाराणसी इस मामले में राजधानी लखनऊ से बहुत पीछे है. राजधानी में तो अमूमन सभी बड़े-छोटे पत्रकारों का यह बाकायदा पेशा हो गया है. उन्हीं की आड़ में उनके लगुये-भगुये भी यही कर रहे हैं. अलबत्ता इनमें से अनेक छोटे-बड़े पत्रकार लखनऊ में राज्य सम्पत्ति विभाग के सस्ते आवासों में अपने और परिजनों के नाम भवन आवण्टित करा कर रह रहे हैं. यह और बात है कि उनमें से बहुत से दो-ढाई दशक से लखनऊ से बाहर, यहाँ तक कि प्रदेश से भी बाहर नौकरी कर रहे हैं.
यहाँ शहर के अति पॉश इलाके- गोमती नगर में पत्रकारों के नाम पर विकसित ‘पत्रकारपुरम’ का तो अब सिर्फ़ नाम रह गया है. इनमें पहले बना–बनाया मकान पाने वाले अधिकतर पत्रकारों ने अपने घर बेच ही डाले, जिनके बचे थे वे अब बड़ी दुकानें और शो-रूम उगा रहे हैं. इसी इलाके के विराज खण्ड में पत्रकारों के नाम पर 1996 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की विशेष उदारता से जो भूखण्ड पत्रकारों के नाम पर दिये गये थे,
पहली बात तो यही कि उनमें ज़ियादातर पत्रकार (श्रमजीवी कानून के तहत) नहीं थे. वैसे पत्रकारों समेत करीब दो दर्ज़न पत्रकार 2003 में पञ्जीकरण करने के बाद अब तक अपने भूखण्ड बेच डाले हैं. इन भूखण्डों की खरीद पर सरकार ने 50,000 हजार रुपये का अनुदान भी दिया था. भवन-भूखण्ड का कारोबार करने वाले दलालों-अभिकर्ताओं (एजेण्टों) के मुताबिक विराज खण्ड में दर्ज़नों पत्रकारों को वर्तमान में ‘उचित ग्राहक’ की तलाश है, वे सही कीमत और वक़्त का इन्तिज़ार कर रहे हैं. विस्तृत ख़बर आप चाहेंगे तो उपलब्ध कराऊँगा.
'बनारस के पत्रकार सस्ते प्लाट को बेचकर लाखों रुपये बना रहे' शीर्षक से प्रकाशित खबर पर उपरोक्त टिप्पणी मत्स्येन्द्र प्रभाकर ने की है, जिसे अलग से यहां प्रकाशित किया जा रहा है.