सांप्रदायिकता एक मानसिकता है जिसमें रहने वाले लोग दूसरी तरफ़ की कमियों को नाजायज़ मानते हैं और अपनी तरफ़ की कमियों को जायज़ । सांप्रदायिकता हमेशा समूह में होने का अहसास कराती है । सत्ताखोर और रक्तपिपासु लोग राष्ट्रवाद की आड़ में मज़हबी राजनीति करते हैं और दूसरे तरफ़ को तुष्टीकरण कहते हैं । सांप्रदायिकता का घर एक होता है मगर उसके आँगन दो होते हैं । गोतिया युद्ध की तरह एक दूसरे का ख़ून पीते हैं और गिरती बूँदों को गिनते हैं । आपकी मानसिकता साम्प्रदायिक है तो आप उसका बचाव अंत अंत तक करते हैं । इस बचाव का सबसे सशक्त ढाल है दूसरी तरफ़ की ग़लतियाँ, कमियाँ और नाकामियां ।
सांप्रदायिकता एक सवर्ण मानसिकता भी है । सवर्ण समाज और सवर्ण मानसिकता इसकी वाहक होती है । क्योंकि उसका अस्तित्व धर्म से जुड़ा होता है । इसके शिकार होने वाले ज़्यादातर गैर सवर्ण रहे हैं । इसलिए गैर सवर्णों पर ख़ासकर दलितों या पिछड़ों पर वर्चस्व क़ायम करने की यह अचूक रणनीति है । यह धर्म को एक करने की ताक़त के विचार का प्रदर्शन करती है । इसकी बुनियाद सामने वाले के धर्म के नाम पर नहीं बल्कि अपने धर्म के भीतर भी समुदायों को बाँटकर बनाई हुई गोलबंदी पर टिकीहोती है । आप सांप्रदायिक है इसका प्रमाण समाजवादी या कांग्रेस में नहीं है बल्कि यह है कि आपको हिंसा की इन बातें पर कोई अफ़सोस नहीं होता । आप इन कारणों का इस्तमाल कर सांप्रदायिकता का बचाव कर रहे होते हैं । उसने ऐसा किया, उनके लोगों ने किया टाइप ।
जिस राष्ट्रवाद की समझ किसी धर्म पर आधारित हो उसका बेड़ाग़र्क होना तय है । हमने इसका एक प्रमाण देख लिया है इसके बावजूद कुछ लोग राष्ट्रवाद को धर्म से परिभाषित करते हैं । उसमें यानी जो जो हो चुका है और इसमें जो होना चाहता है कोई फ़र्क नहीं है । धर्म के आधार पर राष्ट्रवाद विभाजन की उस प्रक्रिया को अपनी सीमा में जारी रखता है जो १९४७ से शुरू हुआ था । राष्ट्रवाद एक समस्याग्रस्त और कृत्रिम अवधारणा है । इसे दुनिया भर के साहसिक सैनिकों के बलिदान की गाथाओं की चासनी में गढ़ा जाता रहा है । राज्य विस्तार की क्रूर आकांक्षाओं ने इसे रचा और बाद में आर्थिक संसाधनों के लिए होड़ करता हुआ ठोस रूप पाया । अब यही राष्ट्रवाद धंधे के लिए सीमाओं को ख़ारिज कर ग्लोब को गाँव कहता है । हम खुद को ग्लोबल नागरिक !
भारत जैसे धर्म बहुल एक देश में राष्ट्रवाद को सिर्फ एक धर्म से चिन्हित करना सवर्णों के वर्चस्व प्राप्ति की लालसा से ज़्यादा कुछ नहीं । यह धार्मिक प्रतिस्पर्धा का चयन करता है और उसके भय के नाम पर बाक़ी धर्मों को अपनी पहचान में शामिल करने के लिए प्रचार तंत्रों का सहारा लेता है । जिन सैनिकों ने बलिदान दिया उन्होंने किसी धार्मिक राष्ट्रवाद के लिए नहीं दिया । उस भारत के लिए दिया जो भारत है न कि जिसका राष्ट्रवाद धार्मिक है । एक चतुर रणनीति के तहत सांप्रदायिक मानसिकता धार्मिक राष्ट्रवाद का सहारा लेती है । यह बहस की हर संभावना को समाप्त कर हिंसक तरीके से अपनी सोच थोपेगी । आप सांप्रदायिक हैं तो आपको ये बातें अच्छी लगेंगी । कोई सांप्रदायिक और धार्मिक राष्ट्रवादी जुनून की बात करे तो उसकी जात पर ध्यान दीजियेगा । ज़्यादातर सवर्ण मिलेंगे । वे सवर्ण जो धार्मिक बहुलता को समाप्त कर अपना खोया हुआ ऐतिहासिक वर्चस्व पाना चाहते हैं जो आज की राजनीति उन्हें नहीं दे पाती है । इस सोच के दायरे में बाक़ी जातियाँ भी मिलेंगी लेकिन नेतृत्व सवर्ण का होगा । ये बाकी जातियाँ सांप्रदायिकता से पैदा किये जाने वाले राजनीतिक अवसरों में छोटी हिस्सेदारी की ताक में होती हैं । यही प्रवृत्ति आप प्रतिस्पर्धी धार्मिक सांप्रदायिकता में भी देखेंगे । वहाँ भी मरने वाले निचले तबके के लोग होते हैं । ऊपरी तबक़ा उनका रक्षक बनकर नेतृत्व हासिल करने का प्रयास करता है । सेकुलर सत्ता से लाभ प्राप्त करता है और व्यापक समाज को पिछड़ने के लिए छोड़ देता है ।
फिर कहता हूं सांप्रदायिकता एक मानसिकता होती है । उसके पास दूसरे पक्ष की ग़लतियों की जानकारी का अंबार होता है । अपनी कमी नहीं बतायेगा मगर दूसरे की कमी गिनेगा । राजनीति इस मानसिकता का लाभ उठाने के लिए इन ग़लतियों की पृष्ठभूमि तैयार करती है क्योंकि उसे लाभ मिलता है । कई राजनीतिक दलों ने इसका खूब फ़ायदा उठाया । सरकार को ऐसे भेदभाव करने की छूट दी जिससे सांप्रदायिक विमर्श की खुराक कम न हो । विरोधी पक्ष ने भी यही किया । जब तक सरकार और राजनीति धर्म निरपेक्ष नहीं होंगे सांप्रदायिकता ज़िंदा रहेगी । राजनीति चाहती है कि ज़िंदा रहे ताकि इन अंतरों को उभार कर वोट ले सके ।
यह सब हम जानते हैं । मूल बात है कि सांप्रदायिक लोग सामने वाले की मज़हब को बर्दाश्त नहीं करते । ख़ून के प्यासे होते हैं । अपनी कृत्रिम कुंठा को वीरगाथा के रूप में प्रदर्शित करने के लिए एक अभाववादी और पीड़ित मानसिकता का सहारा लेते हैं जिसकी बुनियाद झूठ पर टिकी होती है । कुछ बातें सही भी होती हैं । सवर्ण मानसिकता दूसरे के नागरिक अधिकारों को हमेशा तुष्टीकरण के रूप में देखती है । अपने धर्म के भीतर और दूसरे धर्म के भीतर भी । आप सांप्रदायिक हैं इसीलिए आपको ये बातें जँचती हैं न कि कोई छद्म सेकुलर है इससे । अपने भीतर की सांप्रदायिकता से लड़िये । पहले इस बीमारी को दूर कीजिए फिर सेकुलर नाम की राजनीति के बंदरबाँट के घावों को दूर कर लिया जाएगा । बल्कि ये सेकुलर घाव अपने आप सूख जायेंगे । हर धर्म में सांप्रदायिक तत्व होते हैं । हर धर्म में लोग इनसे लड़ते हैं । जैसे कभी दलितों और पिछड़ों ने मिलकर सांप्रदायिकता या धर्म आधारित राजनीतिक अवसरों को कुंद कर दिया था । अब धार्मिक राष्ट्रवाद की सांप्रदायिक सोच दलित पिछड़ों में से किसी को आगे कर अपनी व्यापकता प्राप्त करने का प्रयास कर रही है । पिछड़ी जाति के नेता इसके ध्वजवाहक हैं और नेतृत्व अभी भी सवर्णों के पास है ।
राष्ट्रवाद किसी धर्म की चादर में लिपट कर महान होता है या उसका अवसान । अगर राष्ट्रवाद अपने दम पर टिकने लायक नहीं है तो धर्म की आड़ में जल्दी ही निर्मल बाबा की दुकान बनने वाला है । बन चुका है । सोचियेगा । आसपास देखते रहियेगा । कौन दबा रहा है राजनीतिक असहमतियों को । सेकुलर होने में सौ समस्याएँ हैं क्योंकि यह एक तकलीफ़ देह और जटिल प्रक्रिया है । क्योंकि आप सेकुलर दलो को देखकर होना चाहते हैं , खुद को देखकर नहीं । सेकुलर दलों की सांप्रदायिकता भी कम खतरनाक नहीं है । तब भी क्या आप यह कहेंगे कि सांप्रदायिक होना गर्व की बात है क्योंकि सेकुलरों ने छला है । तभी कह रहा हूँ ऐसा आप इसलिए नहीं कहते कि सेकुलरों ने ठगा है बल्कि आप सांप्रदायिक हैं । अगर हैं तो !
रवीश कुमार के ब्लाग 'कस्बा' से साभार.