राजस्थान राज्य की 12 प्रतिशत जनसंख्या 6 साल से कम तथा 36 प्रतिशत जनसंख्या 7 से 18 साल तक के बच्चों की हैं। सरकार योजनाएं एवं नीतियां राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर तैयार करती है। बच्चे क्योंकि राजनीतिक हितों की पूर्ति में कहीं पर भी सहायक नहीं हैं अतः वे सरकार की प्राथमिकताओं में भी नहीं हैं। यदि वर्ष 2008-09 के राज्य बजट को देखें तो बच्चों की सुरक्षा पर मात्र 0.02 प्रतिशत ही व्यय किया गया है। यानी बाल सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता में बहुत नीचे है। 2005-06 से 2010-11 तक वार्षिक बजट व्यय का विश्लेषण देखें तो राजस्थान सरकार ने बच्चों के पोषण, विकास, स्वास्थ्य व सुरक्षा जैसे अति महत्वपूर्ण मदों पर अत्यंत सीमित राशि ही व्यय की है। अत्यंत सीमित बजट प्रावधानों का ही परिणाम है कि राज्य में हर दूसरा बच्चा कुपोषित, हर पांचवां बच्चा शिक्षा से वंचित, हर चौथा बच्चा बाल श्रमिक है।
चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के संदर्भ में स्थिति का आकलन करे तो केंद्र की नई स्वास्थ्य नीति (2002) के अनुसार केंद्र सरकार ने चिकित्सा सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत व्यय करने का प्रावधान किया है, जिसे राजस्थान सरकार ने भी स्वीकार किया था परंतु पिछले दो वर्षों से राज्य सरकार चिकित्सा सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। 2003 में नई स्वास्थ्य नीति (2002) के अनुरूप प्रावधान नहीं किया गया है। इस नीति के अनुसार राज्य को 2004-05 से राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत या राज्य के बजट का सात प्रतिशत चिकित्सा एवं लोक स्वास्थ्य पर खर्च करना था। इसी तरह शिक्षा के संदर्भ में भी राज्य में कोई सुधार नहीं हुआ है। 1990 में ही शिक्षा के मुद्दे पर जोमतीयेन (थाईलैंड) में हुए विश्व सम्मेलन ‘‘सबके लिए शिक्षा’’ के लिए व्यापक निर्णय लिए गए जिसमें वर्ष 2000 तक सब को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना महत्वपूर्ण था। 1986 की शिक्षा नीति में 1992 में कुछ नए संशोधन के उपरांत कक्षा 1-5 तक में ड्राप आउट दर को 45 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत पर लाना तथा कक्षा 1-8 तक में ड्राप आउट दर को 60 प्रतिशत से घटाकर 40 प्रतिशत पर लाना व अनुसूचित जाति व जनजाति की बालिकाओं में ‘‘बालिका शिक्षा’’ के स्तर में गुणात्मक सुधार लाना सुनिश्चित किया गया था। वर्ष 2010 में इस स्थिति में कोई आशानुरूप सुधार नहीं हुआ है।
राजस्थान में उच्च जन्म दर (28.4 प्रतिशत), बच्चों में कुपोषण (44 प्रतिशत 0-3 वर्ष), बालिका भ्रूण हत्या, बाल विवाह, बालश्रम (22.8 प्रतिशत) राजस्थान में बच्चों की स्थिति को दर्शाते हैं। राजस्थान सरकार की बाल नीति (2008) में ‘‘प्रत्येक बालक को पैदा होने, जीने, बढ़ने और बिना किसी भेदभाव के अथवा अंतर के विकास करने एवं सम्मानपूर्ण तरीके से जीवन जीने का अधिकार है।’’ बाल सुरक्षा का उद्देश्य बच्चों के साथ होने वाले भेदभाव, उपेक्षा, शोषण, अमानवीयता तथा हिंसात्मक व्यवहार से सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करना है। इसका उद्देश्य बच्चों के साथ विद्यालयों में मारपीट, यौन शोषण, खरीद फरोख्त व अपहरण, मादक पदार्थों के सेवन से बचाव करना है। अनुमानतः 12 लाख 60 हजार बालश्रमिकों के साथ राजस्थान देश में तीसरे स्थान पर है। जयपुर में लगभग 2 लाख जैम वर्कस में से 70 हजार बच्चे काम करते हैं।
दरअसल, किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2007 को समझना व उसे सही अर्थों में क्रियांवित करना राजस्थान सरकार के लिए अभी बाकी है। किशोर न्याय अधिनियम बच्चे को एक विस्तृत क्षेत्र में विभिन्न श्रेणियों जो कि बच्चों की सुरक्षा एवं देखभाल की श्रेणी में आती है, परिभाषित करता है। दूसरी तरफ बाल कल्याण समिति व किशोर न्याय बोर्ड सभी जिलों में संचालित हो रहे हैं परंतु उचित प्रशिक्षण व मार्गदर्शन के अभाव में बच्चों के साथ संवेदनशील नहीं हो पाते हैं। बाल गृह, संप्रेषण ग्रह, बालिका गृह में काफी सेवाओं व सुविधाओं की आवश्यकता है।
बहरहाल, राज्य की कुल जनसंख्या में हर दो व्यक्ति में से एक व्यक्ति 18 साल से कम उम्र का बच्चा तथा हर 10 व्यक्ति में एक 6 साल से कम उम्र का बच्चा है। अतः देश के भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए आवश्यक है कि उसकी चिकित्सा, पोषण, विकास, शिक्षा व सुरक्षा पर बजट में उनकी जनसंख्या के अनुरूप अतिरिक्त प्रावधान किए जाएं। इसके लिए जरूरी है कि बच्चों के लिए अलग से बाल निदेशालय का गठन किया जाए जिसमें बच्चों से संबंधित सभी कार्यक्रमों, योजनाओं, कानूनों की क्रियांविति व निगरानी सुनिश्चित हो। विद्यालयों, संस्थाओं व घरों में बच्चों के साथ होने वाली शारीरिक व मानसिक हिंसा को रोकने के लिए भी अलग कानून बनाए जाने की जरूरत है। राजस्थान की 48 प्रतिशत जनसंख्या 18 वर्ष से कम आयु वर्ग की है। अतः इसी अनुपात में बच्चों की शिक्षा, विकास व सुरक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का बजट आवंटित किया जाए। साथ ही राज्य बाल नीति 2008 की पुनः समीक्षा करके संशोधित राज्य बाल नीति बनाए जाने व उसकी सख्ती से क्रियावंयन, मूल्यांकन/निगरानी की जरूरत है। केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा तैयार की गई बच्चों की कार्य योजना 2005 की तर्ज पर राज्य की भी कार्य योजना बनाने की खासी जरूरत है। राज्य सरकार को बच्चों से संबंधित मामलों में तुरंत निपटाने के लिए जिलास्तर पर बाल अदालतों का गठन करना चाहिए। केंद्र सरकार की तर्ज पर राज्य में भी चाइल्ड बजटिंग प्रणाली लागू करने की आवश्यकता है।
लेखक बाबूलाल नागा विविधा फीचर्स के संपादक हैं.