उपचुनाव के लिए कुल तेरह उम्मीदवारों ने नामांकन का पर्चा दाखिल किया था। स्क्रूटनी में सभी पर्चों को सही पाया गया। नाम वापसी की तारीख दस दिसंबर, 12 थी। किसी भी उम्मीदवार ने नाम वापस नहीं लिया। यानी सभी तेरह के तेरह उम्मीदवार मैदान में थे। कोई किसी से कम नहीं था। सबके अपने-अपने चुनाव जीत लेने के दावे और समीकरण थे। सबको अपनी जातीय गोलबंदी का भरोसा था। हम भी उससे अलग नहीं थे।
अपने प्रतिद्वंद्विदयों के बीच मैं भी अपने समीकरणों के साथ जीत का दावा कर रहा था। चुनाव में तीन उम्मीदवार बाहरी थे। बाहरी का आशय है कि वे बभनडीहा पंचायत के निवासी नहीं थे और न वह उपचुनाव में वोटर थे। हालांकि सभी इसी प्रखंड के निवासी थे। यह विडंबना है कि इसमें कई उम्मीदवार ऐसे भी थे, जिनसे मैंने चुनाव लड़ने को लेकर चर्चा की थी और मदद की उम्मीद जतायी थी।
मैं स्वयं बाहरी उम्मीदवार था। हम डिहरा ग्राम पंचायत के निवासी हैं। दूसरे थे अनिल मालाकार। वह ओबरा पंचायत के निवासी थे और उनकी पत्नी पहले ओबरा की मुखिया रह चुकी थीं। इस बार वे खुद मुखिया बनने के लिए नदी पार कर गए थे। बभनडीहा व ओबरा पंचायत की सीमा रेखा पुनपुन नदी ही है। तीसरे बाहरी उम्मीदवार थे अजय नारायण। जाति के पासवान हैं। ऊब पंचायत के निवासी हैं। वह ऊब पंचायत के मुखिया के करीबी थे और उन्हीं के समर्थन से चुनाव लड़ रहे थे। ऊब के मुखिया भूमिहार जाति के हैं और भूमिहार व पासवान वोटरों के भरोसे अपना उम्मीदवार खड़ा किए थे।
कुराईपुर के चार उम्मीदवार मैदान में थे। इसमें रामलगन बिगहा के दुखन राम रविदास जाति के हैं। वे माले की रानजीति के सक्रिय रहे हैं और उन्हें कैडर के अलावे जातीय वोटों का भरोसा था। हालांकि कैडरों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं थी।
सुरेंद्र पासवान को अपनी जाति व रामलगन बिगहा के वोटों का भरोसा था। वह इसी बिगहा के निवासी थे। मनोज कुमार सिंह कुराईपुर के यादव हैं। उन्हें गांव के अलावा जातीय वोटों का भरोसा था। इसी गांव के सादिक खान भी मैदान में थे। उन्हीं के बड़े भाई पूर्व मुखिया आरिफ खान की हत्या के बाद उपचुनाव हो रहा था। उन्हें सहानुभूति वोटों का पूरा भरोसा था। फिर कुराईपुर में मुसलामनों की संख्या काफी थी। उन पर वह अपना स्वाभाविक हक मान रहे थे। गांव के लोगों से भी उम्मीद थी।
खरांटी के तीन उम्मीदवार मैदान में थे। अजय शर्मा जाति के बढ़ई हैं। अजय कुमार सिन्हा कायस्थ जाति के हैं। इनकी संख्या अपने गांव में नाममात्र की थी। कायस्थ जाति के दो दर्जन से ज्यादा वोटर गांव में नहीं होंगे। तीसरे उम्मीदवार थे रामलाल प्रजापति। इस गांव में प्रजापति यानी कुम्हार जाति के वोटरों की संख्या काफी है। रामलाल प्रजापति कम्युनिस्ट नेता रहे हैं और प्रखंड में लड़ाकू नेता माने जाते हैं। उन्हें अपनी जाति के वोटरों के साथ गांव के वोटों का भी भरोसा था।
बभनडीहा से दो उम्मीदवार मैदान में थे। जफर अंजूम पिछले चुनाव यानी 2011 में हुए मुखिया के चुनाव में तीसरे स्थान पर थे। इस बार वह फिर भाग्य आजमा रहे थे। वह पिछड़ा मुसलमान हैं। मुसलमान बहुल गांव में करीब साठ वोट हिंदुओं के होंगे। दूसरे उम्मीदवार थे इरशाद हुसैन। ये सवर्ण मुसलमान हैं। उनकी पत्नी दो बार बभनडीहा पंचायत की पंचायत समिति सदस्य रह चुकी थीं। इस बार वे खुद मुखिया बनने के लिए मैदान में आ डटे थे। बभनडीहा से लगा गांव है पूर्णाडीह। यहां से अनिल शर्मा मैदान में थे। जाति के बढ़ई हैं। उनकी पत्नी उपमुखिया हैं। मुखिया के प्रभार में उन्होंने सत्ता के गणित को समझा। इससे प्रेरित होकर अनिल शर्मा भी मुखिया पद के लिए उम्मीदवार बन गये।
मैदान में खड़े सभी उम्मीदवारों को अपनी जाति के अलावा गांव का भी भरोसा था। लेकिन बाहरी उम्मीदवारों का कोई गांव नहीं था। इस संबंध में एक महिला की टिप्पणी काफी रोचक थी- पंचायत में इनका अपना घर तो है नहीं। अपने घर के सामने नाली, सड़क या सोलर लाइट नहीं न लगवाएंगे। जो भी काम करेंगे, पंचायत के लिए ही करेंगे।
(जारी)
लेखक वीरेंद्र कुमार यादव बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं. प्रभात खबर समेत कई अखबारों को अपनी सेवा दे चुके हैं.
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