जब वह लोगों की जान बचाने निकला, तो 151 लोगों को फांसी के फंदे से निकाल लाया। हुकूमत से जूझने निकला, तो सीधे वायसराय से भिड़ गया। जब राजनीति करने निकला तो अपने संगठन का तीन बार अध्यक्ष चुना गया। उसने कलकत्ता विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट की उपाधि यह कह कर ठुकरा दी कि वह पण्डित ही ठीक है, लेकिन जब समाज सुधार की ठानी तो सैकड़ों दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिला दिया।
जब वह भिखारी बन कर निकला, तो पूरे जमाने की दौलत मांग कर बटोर लाया और जब लोगों को पढ़ाने निकला तो एक विश्वविख्यात विशालकाय इमारत की तामीर करा दी जिसकी तारीफ में अकबर इलाहाबादी ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खां की महानता पर पानी फेर दिया। शायर अकबर ने तो यहां तक कह डाला कि केवल सफेद दाढ़ी से ही कोई महान नहीं हो जाता। महान तो हैं महामना पंडित मदनमोहन मालवीय।
शैख ने गो लाख दाढ़ी बढ़ाई सन की सी
मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी
भारत में बहुत से महापुरूषों ने अपना दम-खम दिखाया, मगर महामना यानी विशाल हृदय रखने का दम केवल पण्डित मदनमोहन मालवीय में ही सिमट पाया। बात तब की है जब अंग्रेजी हुकूमत के शुरूआती दौर में सामाजिक-आर्थिक कारणों के चलते इंदौर के मालवा क्षेत्र से ब्राह्मणों का पलायन इलाहाबाद क्षेत्र में भी हुआ और मालवा के नाम पर ही मालवीय हो गये। उन्हीं में थे पण्डित ब्रजनाथ जो अपनी पत्नी भूनादेवी के साथ प्रयाग में रहने लगे। जीविकोपार्जन के लिए वे कथावाचन करते थे। लेकिन गरीबी के चलते दो जून की रोटी तक दूभर थी। इसी परिवार में 25 दिसम्बर 1861 को मदनमोहन ने जन्म लिया। मेधावी मदनमोहन की शिक्षा में गरीबी आड़े कभी नहीं आयी। हां, फीस वगैरह की अदायगी में अक्सर अपमानित होते थे। शायद यही वह वजह थी कि जब बीएचयू में छात्रों में कोई अर्थ दण्ड उनके शिक्षक लगाते थे तो मालवीय जी उसे माफ कर देते थे।
वैसे तो महज 24 साल की उम्र से ही वे कांग्रेस से जुड़ गये, लेकिन दो साल बाद ही उनकी प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना गया कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में जहां उनके धाराप्रवाह भाषण से लोग दंग रह गये। वहां राजा रामपाल के अखबार के संपादन का उन्हें न्योता मिला। अब राजनीति के साथ पत्रकारिता भी जुड़ गयी। इसके 13 साल बाद ही वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। इस पद पर वे तीन बार चुने गये। सन1912 में वे इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने जिसे 1919 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली का नया नाम मिला। और सन 1926 तक वे इसमें सदस्य रहे।
मालवीय जी ने सन् 1893 में कानून की परीक्षा पास की। इलाहाबाद हाईकोर्ट में तब तीन ही बड़े वकील मालवीय, मोतीलाल नेहरू और सर सुंदरलाल हुआ करते थे। लेकिन उन्हें विश्वस्तर पर ख्याति तब मिली जब 4 फरवरी 1922 को चौरीचौरा कांड हो गया जिसमें पूरी कोतवाली ही फूंक दी गयी थी। अदालत ने इस मामले में आरोपित 170 लोगों को फाँसी की सजा सुनाई। मालवीय जी ने हस्तक्षेप किया और दिनरात एक कर वह बहस कर डाली कि आखिरकार इनमें से 151 लोगों को फाँसी से बचा लिया। कहने की जरूरत नहीं कि इस केस ने उनका नाम जनजन तक पहुंचा दिया।
दरअसल, आजादी के दीवानों को बचाने के पीछे मालवीय जी का मकसद युवाओं में जोश भरना ही था। उनका जोर शिक्षित युवा जोश को आजादी के आंदोलन से जोड़ना था, इसी मकसद से उन्होंने नील आंदोलन में शामिल होने के बजाय बीएचयू की स्थापना पर जोर दिया। इसका परिणाम भी सकारात्मक ही निकला। सन 42 के आंदोलन को इलाहाबाद से पूरे दक्षिण, पूरब और मध्य भारत तक पहुंचाने के लिए बीएचयू के छात्रों का शिक्षित महासमुद्र निकल पड़ा था।
सन 32 में सेंट्रल असेम्बली में प्रतिनिधित्व के लिए अंग्रेज हुकूमत ने कम्युनल एवार्ड घोषित किया था जिसमें धर्म के आधार पर व्यवस्थाएं की गयी थीं। उदार राष्ट्रवादी की छवि बना चुके मालवीय जी चाहते थे कांग्रेस इस एवार्ड का विरोध करे। लेकिन गांधी-नेहरू गुट के आधिपत्य वाली कांग्रेस ने इस पर चुप्पी साधे रखी। क्षुब्ध होकर मालवीय जी ने कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी का गठन कर कांग्रेस के समानान्तर चुनाव लड़ा। अब तक मालवीय जी वृद्ध होने लगे थे, बीमार भी थे। लेकिन इस हालत में भी उन्होंने देश भर का दौरा किया और 12 सीटों जीतीं, जबकि कांग्रेस को 45 सीटें मिलीं। यह उनकी व्यक्तिगत और वैचारिक जीत थी जिसकी परिणति इस चुनाव के ठीक बाद तब हुई जब कांग्रेस ने कम्युनल एवार्ड का विरोध कर दिया।
हालांकि सामान्य धारणा है कि मालवीय जी गांधी जी के विरोधी थे। लेकिन वास्तविकता में ऐसा था नहीं। एक नजीर देखिये। सन 1916 को मालवीय जी के विश्वविद्यालय का शिलान्यास था। बनारस में देश भर से राजेमहाराजे वहां मौजूद थे। एनी बीसेंट समेत विख्यात लोगों के साथ लाखों लोगों की भीड़ थी। लार्ड हार्डिंग्ज भी थे। चूंकि सन 14 में वायसराय पर हमला हो चुका था, इसलिए चप्पे-चप्पे पर पुलिसवाले तैनात थे। गांधी जी को कोई पहचानता ही नहीं था, लेकिन वे भी चूंकि आमंत्रित थे, इसलिए स्टेशन से रिक्शा कर वे सीधे कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गये। मालवीय जी को खबर लगी तो उन्हें हाथोंहाथ लिया और मंच पर ले आये। गांधी जी ने सुरक्षा व्यवस्था पर कड़ी टिप्पणी कर दी तो एनी बीसेंट ने चिल्लाकर उन्हें चुप होने को कहा। गांधी जी नहीं माने, अपनी बात बढ़ाते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया कि वहां मौजूद राजेमहाराजों के शरीर पर कीमती वस्त्राभूषणों में उन्हें देश की गरीब जनता का खून दिख रहा है। पानी सिर से निकल गया और हार्डिंग्ज, एनी बीसेंट समेत वहां मौजूद ज्यादातर राजे-महाराजे सभा छोड़ कर चले गये। लेकिन न मालवीय जी ने उन्हें टोका और न ही सभाध्यक्ष बने राजा दरभंगा ने। जनता तो बेहिसाब तालियां पीट रही ही थी। काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर सतीश राय के शब्दों में यह हालत मालवीय-गांधी सम्बन्धों में बेहतर तालमेल और सामंजस्य का प्रमाण है।
जलियावालां काण्ड से जैसे पूरा विश्व हिल गया। गोरी हुकूमत ने दमन के लिए लोगों के आनेजाने पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार ने तीन जजों की एक कमेटी बनाकर मामले की लीपापोती कर दी, तो इलाहाबाद में 8 जून की बैठक में कांग्रेस महासमिति ने जांच के लिये अपनी ओर से कमेटी नियुक्त करके उसे इंग्लैण्ड और भारत में कानूनी कार्यवाही करने का अधिकार भी दिया गया। महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, सीएफ एन्ड्रूज, स्वामी श्रद्धानन्द, विठ्ठल भाई पटेल, मदनमोहन मालवीय और के. संथानम सचिव इसके सदस्य थे। समिति ने अत्याचारों की साक्षियों के साथ कुछ फोटो भी जमा किये। लेकिन सरकार पूरी रिपोर्ट ही जब्त कर ली। यह मालवीय जी की वैचारिक दृढता का ही प्रमाण है कि एक ओर जहां साथियों समेत भगत सिंह को फांसी दिये जाने के प्रकरण पर गांधी जी का जबर्दस्त विरोध हो रहा था, मालवीय जी वायसराय से भिड़ रहे थे।
गौ, गंगा व गायत्री मालवीय जी के दिल में बसे थे। 1913 में हरिद्वार में गंगा पर बांध बनाने की अंग्रेजों की योजना का विरोध उन्होंने किया तो तब की हुकूमत ने मालवीय जी के साथ समझौता किया गंगा को हिन्दुओं की अनुमति के बिना बांधा नहीं जाएगा और हर हाल में 40 प्रतिशत गंगाजल प्रयाग तक पहुंचाने की शर्त शामिल थी। मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बाकायदा एक बड़ी गौशाला बनवायी थी। इस गौशाला को देखरेख के लिए विश्वविद्यालय के कृषि कालेज को सौंपा गया था।
हकीकत तो यह है कि मालवीय एक जिद्दी भिखारी ही थे। बीएचयू की स्थापना के लिए भूमि की जरूरत थी, सो काशीनरेश के गंगा स्नान के समय वे रामनगर पहुंचे। काशीनरेश ने डुबकी लगाकर लौटे तो सामने मालवीय जी थे। बीएचयू बनाने की बात कही और दान में जमीन मांग ली। स्वीकृति मिलते ही जितनी लूट पाये, जमीन नाप ली। फिर इमारत के लिए पैसा जुटाने निकले। काम तेजी पर आया तो नाम की गूंज हो गयी। राजेमहाराजे खुले दिल ने दान देने लगे। कलकत्ता में तो भामाशाहों ने उन्हें रथ पर बिठाया और घोड़ों की तरह खुद जुतते हुए यात्रा निकाली। निर्माण और उसके लिए भीख मांगने का काम जोरों पर था। बताते हैं कि रामपुर नवाब ने उन्हें तिरस्कृत करते हुए अपनी जूती दान कर दी। मालवीय भी कम नहीं थे। बीच बाजार में जूतियों को रामपुर नवाब की इज्जत बताकर उसकी नीलामी कराने बैठ गये। नवाब ने सुना तो होश फाख्ता हो गये। दौड़कर आया और मुंहमांगी बोली लगाकर अपनी जूतियां खुद ही खरीद लीं। इस परिश्रम का ही नतीजा रहा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय समस्त पाश्चात्य, प्राचीन एवं आधुनिक विद्याओं का केंद्र ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण की भी राजधानी बन गया।
मालवीय जी का मानना था कि मनुष्य के पशुत्व को ईश्वरत्व में परिणत करना ही धर्म है और इसका मार्ग निष्काम भाव से प्राणी मात्र की सेवा है। यही कारण था कि मालवीय जी ने समाज में एकरसता लाने के लिए और दलितों के उत्थान के लिए दलित नेता पीएन राजभोज के साथ 200 दलितों का मंदिरों और रथयात्रा में प्रवेश कराया। बीएचयू की स्थापना 1919 से लेकर 1939 तक वे इसके कुलपति बने रहे। शरीर कमजोर पड़ा तो डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् को कुलपति निर्वाचित करा दिया और खुद अंतिम समय तक रेक्टर बने रहे। हालांकि सन 12 नवम्बर 46 में उन्होंने अपनी देह त्याग दी, लेकिन बीएचयू की प्राणवायु में वे अभी भी मौजूद हैं।
लेखक कुमार सौवीर लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.