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नीतीश ने 2003 में सिद्धांतों से समझौता क्‍यों कर लिया था?

भारत की गठबन्धन-राजनीति के गलियारों मे अक्सर ‘गठबन्धन की मजबूरी’ का जुमला सुनने को मिल ही जाता है. इस जुमले का सहारा लेकर आये दिन राजनेता गंभीरतम बातों की भी हवा निकाल देते है. अब सवाल यह उठता है कि क्या गठबन्धन किसी सिद्धांत पर बनाये जाते हैं अथवा सत्ता का स्वाद चखने हेतु समझौते किये जाते हैं? हमे ध्यान रखना चाहिये कि सिद्धांत और समझौता दो अलग-अलग बाते हैं. राजनैतिक-समझौते को हम कर्नाटक की राजनीति से समझ सकते हैं.

भारत की गठबन्धन-राजनीति के गलियारों मे अक्सर ‘गठबन्धन की मजबूरी’ का जुमला सुनने को मिल ही जाता है. इस जुमले का सहारा लेकर आये दिन राजनेता गंभीरतम बातों की भी हवा निकाल देते है. अब सवाल यह उठता है कि क्या गठबन्धन किसी सिद्धांत पर बनाये जाते हैं अथवा सत्ता का स्वाद चखने हेतु समझौते किये जाते हैं? हमे ध्यान रखना चाहिये कि सिद्धांत और समझौता दो अलग-अलग बाते हैं. राजनैतिक-समझौते को हम कर्नाटक की राजनीति से समझ सकते हैं.

एक समय में कर्नाटक में भाजपा और जनता दल सेकुलर ने मिलकर चुनाव लड़ा और दोनों दलों के बीच यह समझौता हुआ कि दोनों दल बारी-बारी से सरकार चलायेंगे. समझौतानुसार एच.डी. देवगौडा के सुपुत्र एच.डी. कुमारस्वामी मुखयमंत्री बने, पर जब भाजपा के यद्दयुरप्पा की मुख्यमंत्री बनने की बारी आयी तो जनता दल सेकुलर ने समझौता तोड़कर भाजपा के साथ विश्वासघात करते हुए येद्दयुरप्पा को मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया. नीतीश  कुमार की सिद्धांत की नई व्याख्यानुसार सिद्धांत समझने के लिये हमे अभी हाल ही में राजग से जनता दल युनाईटेड के अलगाव को देखना चाहिये. नीतीश  कुमार द्वारा राजग से उनके अलगाव का प्रमुख कारण भाजपा का ‘सिद्धांत से भटकाव’ है और उनकी पार्टी सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकती.

ध्यान देने योग्य है कि 16 जून को जनता दल (यु) के अध्यक्ष ने सैद्धांतिक आधार पर राजग से अलग होने की घोषणा की थी. इसके चलते नीतीश कुमार की सरकार ने 19 जून को कांग्रेस, सीपीएम और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से बिहार विधानसभा में विश्वासमत हासिल कर लिया. नीतीश सरकार के पक्ष में 126 वोट और विपक्ष में 24 वोट पड़े जबकि भारतीय जनता पार्टी के 91 सदस्यों और लोक जनशक्ति के 1 विधायक ने सदन का वाकआउट किया. नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा में लगभग आधे घंटे का एक भाषण दिया. यह भाषण इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें नीतीश कुमार ने सिद्धांत और शिष्टाचार पर बहुत अधिक जोर दिया. राजग के साथ अपने 17 वर्षों के संबंध – विच्छेद पर वो सदन को बता रहे थे कि उन्होंने सैद्धांतिक आधार पर राजग से अलग होने का फैसला किया.

जनता दल (यु) के नेताओं के अनुसार उनके राजग में शामिल होने का “सिद्धांत” यही था कि भाजपा पहले अपने एजेंडे में तीन विवादित बातों – राममन्दिर, धारा 370 और एक समान नागरिक संहिता को अलग करे तो वे उसके साथ सरकार बनाने में सहयोग करेंगे. ऐसा ही हुआ और केन्द्र में राजग की सरकार बनी. परंतु जनता दल (यु) के राजग से अलग होने पर अब देश भ्रमित हो गया है साथ ही जनता दल (यु) के द्वारा की जा रही ‘सिद्धांत की बातें’ किसी के गले से नहीं उतर रही. कारण बहुत साफ है कि आज जिन सिद्धांतों की दुहाई जनता दल (यु) दे रहा है, उनमें से कौन सा ऐसा सिद्धांत है जिसे भाजपा ने तोड़ा हो? भाजपा ने अबतक राजग के एजेंडे से कोई छेड़छाड़ नहीं की और न ही उसने 2014 के लोकसभा-चुनाव का अपना कोई प्रधानमंत्री-पद का उम्मीदवार घोषित किया. हाँ, इतना जरूर है कि पिछले दिनों भाजपा ने गोवा में चल रही अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसम्मति से नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष बना दिया था. पर चुनाव समिति का अध्यक्ष तय करना तो हर राजनीति-पार्टी का अधिकार है. इसपर किसी दूसरे दल को आपत्ति क्यों हो यह बात समझ से परे है. नीतीश कुमार द्वारा रचित सिद्धांत की परिभाषा वास्तव में सिद्धांत न होकर सिद्धांत की आड़ में एक समझौता मात्र है और अब उन्होंने भी जनता दल सेकुलर की तरह समझौता तोड़कर बिहार की जनता के उस विश्वास को तोड़ दिया जिसके लिये बिहार की जनता ने राजग को अपना विश्वास दिया था.    

शिष्टाचार

अब यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि जनता दल (यु) राजग से किसी सिद्धांत के आधार पर अलग नहीं हुई अपितु अलगाव के पीछे भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाना नीतीश कुमार को नगवार गुजरना ही प्रमुख कारण है. जनता दल (यु) का राजग से अलग होते ही भाजपा ने भी नीतीश कुमार द्वारा वर्ष 2003 में भुज की एक सभा में दिये गये भाषण का एक वीडियो जारी कर दिया. उस वीडियो में नीतीश कुमार खुद तत्कालीन वहाँ के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की जमकर तरीफ करते हुए उन्हें केन्द्र की राजनीति में आने की वकालत कर रहे हैं. यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वर्ष 2002 मे साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में कारसेवकों को जलाने से गोधरा मे साम्प्रदायिक दंगे भड़के थे. जब वह वीडियो सार्वजनिक हुआ तो नीतीश कुमार ने सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने उस समय ऐसा “शिष्टाचार” के नाते कहा था. पर यह नहीं बताया कि उस “शिष्टाचार” के चलते उन्होंने अपने “सिद्धांतों” से समझौता क्यों किया, साथ ही रामविलास पासवान की तरह वे उस समय राजग से अलग क्यों नहीं हुए? साथ ही उनकी नजर में यदि अयोध्या के विवादित ढाँचे को ध्वस्त करने के आरोपी लालकृष्ण आडवाणी पंथनिरपेक्ष हैं तो 2002 के गुजरात दंगों के चलते नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिक कैसे हैं? जाहिर सी बात है कि नीतीश कुमार के सामने ऐसे कई सवाल हैं जो उनका पीछा हमेशा करते रहेंगे.        .   

अवसरवादी राजनीति

हमे यह कहने मे कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि आज के राजनेता पंथनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की आड़ में अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकते हैं. दरअसल गठबन्धन के इस दौर में अवसरवादिता की राजनीति करना आज के राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गई है. वर्तमान परिदृश्य में नीतीश कुमार भी इसका अपवाद नहीं हैं. यह उन्होंने राजग से अलग होकर सिद्ध कर दिया. समता पार्टी से जनता दल (यु) तक के सफर में नीतीश कुमार ने जार्ज़ फर्नांडीस सहित उन्हें ही सबसे पहले छोड़ा जिन्होंने उनपर विश्वास कर उन्हें चोटी तक पहुँचाया. बिहार मे न्यूनतम मजदूरी के आंकडे देकर नीतीश कुमार बिहार-विकास की बात चाहे जितनी कर लें पर उनकी मंशा अब किसी से छुपी हुई नही है. वास्तविकता यह है कि समावेशी विकास के नाम पर नीतीश कुमार अति पिछड़ा व महादलित के जातीय समीकरण के चलते राजनीति की बिसात पर अपनी राजनैतिक चाल चलते हुए मुस्लिम वोट को अपनी तरफ खींचना चाहते हैं और अब उनका ध्यान 2014 के लोकसभा चुनाव से अधिक 2015 के बिहार विधान सभा के चुनाव पर अधिक है.

लेखक राजीव गुप्‍ता स्‍वतंत्र पत्रकार हैं.

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