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2012 में ही फिर से होंगे यूपी में विस चुनाव!

पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में सर्वाधिक चर्चा यूपी अर्थात उस उत्तर प्रदेश की ही हो रही है, जिसको चार भागों में बॉंटने के बाद मायावती इसका नाम ही समाप्त कर देना चाहती हैं। जिन प्रस्तावित चार प्रान्तों में यूपी को विभाजित करने की मायावती की योजना है, उनमें यूपी का कहीं नाम ही नहीं है। यह तो एक अलग विषय है, लेकिन यूपी के चार में से कम से कम दो राज्यों पर अनन्त काल तक शासन करते रहने की तमन्ना पूरी करने की खातिर यूपी के चार टुकड़े करने की इच्छुक बसपा सुप्रीमो की बसपा के यूपी सहित हर राज्य में बार-बार टुकड़े होते रहे हैं। इसके उपरान्त भी बसपा का अस्तित्व आज भी कायम है।

पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में सर्वाधिक चर्चा यूपी अर्थात उस उत्तर प्रदेश की ही हो रही है, जिसको चार भागों में बॉंटने के बाद मायावती इसका नाम ही समाप्त कर देना चाहती हैं। जिन प्रस्तावित चार प्रान्तों में यूपी को विभाजित करने की मायावती की योजना है, उनमें यूपी का कहीं नाम ही नहीं है। यह तो एक अलग विषय है, लेकिन यूपी के चार में से कम से कम दो राज्यों पर अनन्त काल तक शासन करते रहने की तमन्ना पूरी करने की खातिर यूपी के चार टुकड़े करने की इच्छुक बसपा सुप्रीमो की बसपा के यूपी सहित हर राज्य में बार-बार टुकड़े होते रहे हैं। इसके उपरान्त भी बसपा का अस्तित्व आज भी कायम है।

शायद इसलिये भी यूपी के टुकड़े करने की प्रस्तावित योजना में मायावती को खतरा कम और लाभ अधिक दिख रहा है। ये अलग बात है कि मायावती ने यूपी को विभाजित करने का दांव केवल राजनैतिक चातुर्य दिखानेभर को चला है, जो उनकी ओर से यूपीए की कांग्रेस नीत केन्द्र सरकार को और लोकसभा में प्रतिपक्ष भारतीय जनता पार्टी को मतदाता के समक्ष कटघरे में खड़ा करने के लिये फेंका गया था, लेकिन विधानसभा चुनावों में खुद मायावती ही इस मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनाने में पूरी तरह से असफल रही हैं। या उनको अपनी गलती का अहसास हो गया लगता है!

इसी बीच चुनाव आयोग के एक निर्णय ने बसपा के हाथी को बैठे बिठाये चुनावी मुद्दा बना दिया, जिसके चलते मायावती के धुर कट्टर वोटर माने जाने वाले जाटवों के बिखराव को रोककर फिर से एकजुट होने का अवसर मिला है। जिसका बसपा को लाभ होना तय है, लेकिन इस सबके बावजूद भी उत्तर प्रदेश की राजनीति की गहरी समझ रखने वालों के जमीनी कयासों तथा भाजपा एवं कांग्रेस के राजनेताओं की बातों पर विश्‍वास किया जाये तो उत्तर प्रदेश का राजनैतिक भविष्य कम से कम इन विधानसभा चुनावों के बाद अस्थिर ही नजर आ रहा है। जिसके पुख्ता और प्रबल कारण भी हैं। हम सभी जानते हैं कि राजनेताओं को अपने बयान और सिद्धान्त बदलने में एक क्षण का भी समय नहीं लगता है। इस सम्बन्ध में कोई भी दल किसी से पीछे नहीं है। स्वयं मायावती जो ‘‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’’ का नारा देते देते-‘‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश है’’-का नारा देकर यूपी में पांच वर्ष तक सत्ताशीन रह चुकी हैं| भाजपा और कांग्रेस भी अनेक बार सिद्धान्तों को बलि देकर राजनैतिक समझौते करने का इतिहास बना चुकी हैं।

इसके उपरान्त भी चुनावी राजनीति के जानकारों का मानना है कि इस बार यूपी में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने वाला नहीं है और इस बार यूपी में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अपने अस्तित्व की लड़ाई पूरी ताकत झोंककर लड़ रही हैं। इसलिये इस बार, इस बात की नगण्य या बहुत कम सम्भावना है कि चुनावों में स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने पर ये दोनों पार्टी बसपा या समाजवादी पार्टी में से किसी को भी समर्थन दे सकें या किसी से समर्थन ले सकें। हालांकि जानकारों का यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश में असली मुकाबला मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बसपा के बीच ही होना है। कांग्रेस और भाजपा तो तीसरे नम्बर की ताकत के रूप में उभरने के लिये चुनाव लड़ रही हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बिना किसी के समर्थन के यूपी में अपनी-अपनी सरकार बनाने तथा किसी कारण से स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने पर विपक्ष में बैठने की बातें सीना तानकर कह रही हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं, ऐसे हालात में जबकि भाजपा पहले ही बसपा और सपा से चोट खा चुकी है और कॉंग्रेस तथा भाजपा दो विपरीत धुव हैं। ऐसे में भाजपा फिर से किसी के साथ समझौता करके कोई रिस्क लेना नहीं चाहेगी। इस माने में भाजपा द्वारा किसी को समर्थन देने या किसी अन्य पार्टी से भी समर्थन लेने के समीकरण बनने की सम्भावना कम ही आंकी जा रही है।

हां, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच केन्द्र में परोक्ष सहमति के कारण पहली नजर में यूपी में समझौता हो जाने की सम्भावना बनती अवश्य दिखती है, लेकिन यदि राहुल गॉंधी के बयानों पर गौर किया जाये और उनके बयानों को सच्चे तथा ईमानदार कथन माने जायें तो किसी से भी समझौते की कोई सम्भावना नजर नहीं आ रही है। हालांकि यह बात फिर से दोहराना जरूरी है कि राजनेताओं के चुनावी बयानों पर भरोसा करना आज के इस माहौल में असम्भव सा लगता है। फिर भी राहुल गॉंधी के तेवरों को देखकर एक प्रबल सम्भावना यह भी प्रतीत होती है कि इस बार पूर्ण या स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने पर कॉंग्रेस किसी भी पार्टी से भी समझौता नहीं करने वाली है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में अस्थिर राजनीति का नजारा दिखाई देता है और कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने आपको किसी से भी कम नहीं आंक रही है। इन हालातों में यूपी में यदि कोई बड़ा चमत्कार नहीं होता है तो और साथ ही यूपी के बयान बहादुर अपने बयानों से नहीं पलटते हैं तो एक प्रबल सम्भावना चुनावों के बाद कुछ समय के लिये यूपी में राष्ट्रपति शासन और राष्ट्रपति शासन के दौरान ही फिर से 2012 में ही पुन: विधानसभा चुनावों के आसार भी बनते दिख रहे हैं।

जो हालात बिहार में बने थे, वही हालात यूपी में दोहराये जा सकते हैं। जहां पर लालू और पासवान दोनों को जनता ने धराशाही कर दिया था। यदि यूपी में ऐसा होता है तो माया की बसपा और मुलायम की सपा को नुकसान होना तय है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस को यूपी में अपने आप को खड़ा करने का एक बड़ा अवसर मिल सकता है, जिसे ये पार्टियॉं अपनी जीत में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली हैं। इस दूरन्देशी राजनैतिक सम्भावना को फिलहाल तो खयाली पुलाव ही समझा जायेगा, क्योंकि अभी तो चुनावों के कई चरण पूरे होने हैं। देखना होगा कि चुनाव का अन्तिम चरण पूर्ण होने तक राजनेता और जनता क्या-क्या नजारे पेश करते हैं?

लेखक डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' होम्योपैथ चिकित्सक तथा मानव व्यवहारशास्त्री, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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