रुटीन है कि 31 दिसंबर को कोई शपथ ली जाए, प्रतिज्ञा किया जाए, नया इरादा बनाया व बताया जाए .. और ये रुटीन अच्छा है क्योंकि यह रुटीन साल भर में एक बार आता है… अपन कोई संविधान या कानून की किताब या कोर्ट या पुलिस या सरकारी सिस्टम तो हैं नहीं कि पलट कर देखने की मजबूरी पालें कि पिछले पिछले 31 दिसंबरों में क्या क्या कसमें खाई था और उसमें कितनों पर कब तक अमल करता रहा, नहीं करता रहा, अडिग रहा, विफल रहा… सो, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेहु..
अब तक की सारी गंदी बातों, अच्छी बातों, बड़ी बातों, छोटी बातों और इन गंदी अच्छी बड़ी छोटी के मध्य की बातों को विदा, अलविदा… उस पर सोचने, बताने, जानने के लिए वक्त लगाकर वक्त नहीं जाया करना…
छोड़ने-पकड़ने (दारू, नानवेज, गाली, हिंसा, सेवा, झूठ, मदद, तरक्की, नौकरी, शहर, साथी, प्रेम, प्रेमिका….) वाली कसमें खाने की उम्र नहीं रही.. लगने लगा है कि ये सब दुनियादार किस्म के बच्चों, किशोरों, युवाओं का काम है… अपन तो असामाजिक, अव्यवस्थित, अशिष्ट किस्म के मानवेतर जीव हैं जो मनुष्यों की भीड़ में असहज महसूस करता है और अन्य प्राणियों वनस्पतियों चीजों जगहों स्थितियों में बेहद खिलंदड़, सहज और फ्रेंडली… तो फिर अब क्या किया जाए इस इकतीस दिसंबर को… कैसी कसम खाई जाए आज के दिन… ???
चलिए, वह कहता हूं जो दिल दिमाग में चल रहा है काफी दिनों से… मैं भाग जाना चाहता हूं.. कहां, कब, किसलिए, क्यों, कैसे… ये सब कुछ नहीं पता… बस, चुपचाप चला जाना चाहता हूं उन सबसे दूर जिनसे बहुत गहरा परिचय है.. वो चाहे कोई ब्रांड हो या कोई रिश्ता हो या कोई चीज हो… मैं तोड़ देना चाहता हूं संबंधों का वह पुल जिस पर चलकर जबरन हम बेहद करीब, बेहद अपना, बेहद निजी टाइप चीजें बना बता घोषित कर देते हैं… मैं अक्सर सपने में या अधखुली नींद में पंछी, पेड़, पहाड़, पानी में तब्दील हो जाता हूं और खुश रहता हूं… मैं देखता रहता हूं कि पहाड़ को पंछी की, पेड़ को पहाड़ की गतिविधि खूब पता है, खब अपनापा है इनमें पर उनकी भाषा, चितवन, चाल, चंचलता हमें नहीं समझ में आती, हम मनुष्यों को नहीं पता चल पाता… मैं उस घाटी में जाना चाहता हूं जहां अब तक कोई आदमी न पहुंचा हो… उस पवित्र और पूर्ण जगह की तलाश करना चाहता हूं.. उस शख्स को खोजना चाहता हूं जिसका मैं क्लोन हूं, जो मेरे से उम्र में पांच दस से लेकर बीस-तीस साल तक बड़ा है और मुझे तलाश रहा है… जो मिलने पर मुझसे बात नहीं करेगा और न उससे मैं कुछ पूछूंगा… बस, वो मेरे में प्रविष्ट हो जाएगा और मैं अपने जूनियर क्लोन के इंतजार में फूलों, पत्तियों, पहाड़, पंछी, पशु की माफिक देह तन धरे डोलडाल करता रहूंगा..
मैं अक्सर लोट जाता हूं उन जगहों पर जहां खासकर मनुष्य का सोना लोटना असभ्यता माना जाता है… मैं अक्सर ऐसी हरकतें कर जाता हूं जिसके मायने निकालते हुए मान लिया जाता है कि ये ठीक आदमी नहीं…
मैं बने बनाए रुटीन, सिस्टम, जीवन, ढांचों, बातों, सिद्धांत, दर्शनों, आग्रहों, रिश्तों में रत्ती भर भी रुचि नहीं रखता.. इन्हें झेल ढो रहा हूं और इनको त्यागना चाहता हूं… इनके बगैर जो जीवन शुरू होता है वो जीना चाहता हूं…
मुझे अब कोई चमत्कार, कोई बदलाव, कोई घटनाक्रम, कोई नारा, कोई नारी, कोई पहनावा, कोई खाना, कोई पीना, कोई पढ़ना, कोई लिखना उतना प्रभावित नहीं करता कि मैं घंटों दिनों महीनों के लिए चार्ज्ड हो जाउं, उत्तेजित रहूं, आहें भरूं, वाह वाह करूं, सोचता रहूं…. मैं सब कुछ करते पढ़ते जीते खाते देखते उतना ही शांत और स्थिर रहने लगा हूं जितना सोते हुए अवस्था में…
मैं इस आंतरिक शांति और स्थिरता को बाहरी आवरण, बाहरी खोल, बाहरी वस्त्र देना चाहता हूं… ताकि अंदर बाहर एक सा हो सकें… मैं सभ्यता की सारी निशानियां और असभ्यता के सारे अध्यायों को पढ़ जाने के बाद इनसे पार चले जाना चाहता हूं… इनके आसपास से भाग जाना चाहता हूं…. मैं इस असीम ब्रह्मांड की उस अदभुत प्रकृति में ओरीजनल प्रतिकृति बनकर रहना रोना खोना खाना पाना पीना हंसना जीना मरना चाहता हूं जिसका नैसर्गिक मूल, मूड, मिजाज, रूप मुझमें है और मैं उसमें… बस बीच में ये जो दीवार है, दुनिया है, संसार है, मनुष्य है, मनुष्य निर्मित संजाल हैं वो अवरोध बने हुए हैं, वो रोके पड़े हैं… इसलिए… मैं भाग जाना चाहता हूं…
मैं अब तक अर्जित समस्त बल, बुद्धि, विद्या को छोड़ जाना चाहता हूं… इनसे दूर भाग जाना चाहता हूं… मैं बुद्धिहीन, बलहीन, विद्याहीन होना चाहता हूं… मैं जड़ होना चाहता हूं, मैं पत्थर बन जाना चाहता हूं, मैं भावहीन होना चाहता हूं… और इस सबके लिए इस बेहद चंचल गतिमान सक्रिय रिएक्टिव आसपास परिवार समाज संसार से दूर जाना चाहता हूं, भाग जाना चाहता हूं… मैं जीवन और मृत्यु के दो छोरों के बीच के व्याख्यायित मोनोलिथिक राह के परे बहुआयामी (मल्टी डायमेंसनल) और क्वालिटेटिव लेकिन अबूझ अव्याख्यायित विस्तार को स्पर्श करना चाहता हूं… मैं नींद और जगी हुई अवस्थाओं से परे की कुछ अवस्थाओं को महसूस करना चाहता हूं, जीना चाहता हूं इसलिए नींद और जगी हुई अवस्थाओं को अंतिम सच मानने वाले लोगों और दुनिया को प्रणाम करना चाहता हूं… मैं उस बाजार और समाज और देश के दर्शन, शोर, दायरे से भागना चाहता हूं जहां जो व्याख्यायित है, वह दुर्लभ है, जो छिपा है, जो अव्यक्त है, वह व्यावहारिक है… मैं उस आर्थिक राजनीति और सामाजिक व्यवस्था से भागना चाहता हूं जो हर कुछ और हर किसी को उसके आखिरी सांस सोच समझ तक फिक्स तय बाध्य मजबूर कर देना चाहता हो और हम सब कोल्हू के बैल की तरह वही बाध्यताएं, मजबूरियां, फिक्सिंग जीते ढोते रहते हैं… इसलिए मैं छोड़ जाना चाहता हूं वो केंचुल जो इसी दुनिया के चलते पहना और जिस पर इस इस दुनिया, व्यवस्था, बाजार, समझ का मुहर स्टैंप लगा हुआ है… मैं ओरीजनल मौलिक होना चाहता हूं इसलिए बासी पुराने रास्तों को छोड़ जाना चाहता हूं…
… और यह सब के लिए बहुत जरूरी है भागना सो मैं भाग जाना चाहता हूं…
सच में.
सो, हे 2014, मेरे में भागने का साहस भर देना…..
लेखक यशवंत भड़ास4मीडिया के एडिटर हैं. उनका यह लिखा हुआ उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है. यशवंत से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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