संवेदनाओं से रीत रहे इस समाज में अभी भी अखबारों और पूरे मीडिया जगत से समाज की यह अपेक्षा बची है कि वह कम से कम उनके दुख, तकलीफों, शोषण और अन्याय-अत्याचार को आवाज दे सकता है. कुछ हद तक यह काम हो भी रहा है, मगर समाज की आवाज बनने का दंभ भरने वाले पत्रकार और संवाद-जगत के मसीहा बने फिरते लोग ही सर्वाधिक अन्याय-अत्याचार और शोषण का शिकार बने हुए हैं.
समाज की आवाज बने इस वर्ग की अपनी आवाज ही कहीं खो गई है. यही कारण है कि पत्रकारों और गैरपत्रकारों की मेहनत पर बरस रहे धन पर बड़े पत्र-समूह इतरा रहे हैं और उसके लिए वे पत्रकारों और गैरपत्रकारों को न सिर्फ बुरी तरह निचोड़ रहे हैं, बल्कि उनके हितों में आड़े आने वाले अथवा अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले पत्रकारों-गैरपत्रकारों की आवाज कुचलने से भी बाज नहीं आ रहे. फिर चाहे मामला नेटवर्क 18 जैसे समूह का हो या फिर नागपुर-महाराष्ट्र के सबसे बड़े अखबार समूह लोकमत का हो.
लोकमत ने पिछले महीने 10 पत्रकार सहित अपने 61 कर्मचारियों को झूठे, फर्जी और आधारहीन आरोप लगाकर नौकरी से हटा दिया. इसके लिए कानून की धज्जियां उड़ाने से भी परहेज नहीं किया गया. मजे की बात यह कि अखबार समूह में हिंदी, मराठी और अंग्रेजी के तमाम पत्रकार, जो स्वयं को क्रांतिकारी विचारधारा का पोषक कहते नहीं थकते, भी निकाले गए कर्मचारियों के प्रति सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं व्यक्त कर सके. नेटवर्क 18 से सवा तीन सौ कर्मचारियों के हटाए जाने के बाद कम से कम पूरे देश में विरोध की एक लहर चल पड़ी थी. समाचार पूरे देश में फैल गया था. समूह के मालिक मुकेश अंबानी की लानत-मलानत भी की गई थी, मगर लोकमत पत्र-समूह के हटाए गए पत्रकारों-गैरपत्रकारों के संबंध में गिनी-चुनी साइटों के अलावा किसी ने खबर देना भी मुनासिब नहीं समझा, जबकि इस अखबार समूह के मालिक भी कांग्रेस के प्रभावी सांसद हैं. भड़ास फॉर मीडिया जैसी कुछेक साइट पर खबर आई, मगर उस पर कोई टिप्पणी देखने को नहीं मिली. यानी अखबार समूह के पत्रकार सहित 61 कर्मचारियों को सड़क पर लाने की अवैध कार्रवाई भी हमारी बिरादरी को विद्वेलित नहीं कर पाई. ऐसे में हम समाज को शोषण से मुक्त कराने और अन्याय-अत्याचार के खिलाफ लड़ने की बात कैसे कर सकते हैं. कैसे समाज को यह भरोसा दिला सकते हैं कि वह उसकी आवाज बनेगा या वह समाज के पीड़ित वर्ग की आवाज है.
वैसे भी आज पत्रकार केवल नौकरी करने में लगे हैं. समय खराब है और इसका आभास सड़क पर आने के बाद ही बहुत अच्छी तरह से होता है. देश भर में पत्रकार सबसे खराब हालत में हैं और इस साइट पर हम कई बार ऐसी खबरें देखते भी हैं, मगर हमारे बीच एकजुटता का अभाव, नौकरी जाने का भय हमें शोषण, अन्याय-अत्याचार के खिलाफ खड़े होने और उसका विरोध करने से रोकता है. लेकिन यह तो समस्या का हल नहीं है. कहीं न कहीं तो हमें शोषण, अन्याय-अत्याचार के खिलाफ खड़े होना होगा. केवल स्यापा करने से कुछ नहीं होगा. अखबारों में भले ही हमारे खिलाफ होने वाले शोषण, अन्याय-अत्याचार की खबरें न छपें. सोशल मीडिया में इससे कोई परहेज नहीं है और हमें इसे ही हथियार बनाना होगा.
लेखक मनोहर गौर वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा नागपुर में रहते हैं. इनसे सम्पर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.