देहरादून। प्रदेश में विधानसभा की चुनावी जंग धीरे-धीरे अपने शबाब पर पहुंच रही है। उत्तराखंड गठन के बाद राज्य में यह तीसरा विधानसभा चुनाव हो रहा है। इसके पहले सन 2002 और 2007 में विधानसभा के चुनाव हो चुके हैं। 2002 में जहां कांग्रेस ने सत्ता हासिल करने में बाजी मारी थी वहीं 2007 में भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली थी। कांग्रेस ने सत्ता की कुर्सी पर वरिष्ठ राजनेता रहे एनडी तिवारी को बैठाया और वे पांच साल तक शासन करते रहे तो वहीं भाजपा ने 2007 में सत्ता प्राप्त करने के बाद मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी को सत्ता की कमान सौंपी।
हालांकि बाद में 2009 में लोकसभा चुनाव में राज्य की पांचों लोकसभा सीटों पर हार का मुंह देखने के बाद बीजेपी ने इस हार का ठीकरा बीसी खंडूड़ी के सिर फोड़ा और उन्हें हटाकर उन्हीं के मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री का कार्यभार देख रहे डा. रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन डा. निशंक भी अपनी कार्यशैली के चलते ढाई साल के अल्पकाल में ही विवादित हो गए और अन्ततोगत्वा उन्हें भी हटाकर पार्टी ने एक बार फिर से खंडूड़ी पर ही दांव खेला और उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाया। खंडूड़ी ने भी पार्टी आलाकमान के दिशानिर्देशों के साथ प्रदेश की सत्ता में पार्टी को दोबारा वापस लाने की रणनीति पर काम करते हुए दो तीन माह के अल्प कार्यकाल में ही लोकपाल बिल सिटीजन चार्टर जैसे जनकल्याणकारी कार्यों को अंजाम देकर पार्टी के फैसले को सही साबित करने की पूरी कोशिश की है।
हालांकि उनकी ये कोशिश कितनी सफल हुई है ये तो आने वाला 6 मार्च 2012 ही बताएगा जब प्रदेश की जनता सत्ता का जनादेश देगी। बहरहाल पांच साल से सत्ता से बाहर रही कांग्रेस जहां इस बार सत्ता पाने के लिए पूरी ताकत लगा रही है वहीं सत्तारूढ़ भाजपा भी अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए पूरा जोर लगाए हुए है। प्रदेश की कुल 70 विधानसभा सीटों के लिए अभी 12 जनवरी 2012 तक नामांकन के अंतिम दिन तक 909 लोगों ने अपना पर्चा दाखिल किया था, परन्तु नामांकन वापसी वाले दिन 80 लोग पीछे हट गए। अब मैदान में 829 लोग एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकने में जुटे हुए हैं।
राज्य की मुख्य पार्टियां भाजपा और कांग्रेस जहां सत्ता में आने की हर कोशिश कर रही है वहीं इनका गणित बिगाड़ने के लिए क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल, रक्षा मोर्चा, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी आदि ने भी कमर कस ली है। इसके साथ ही दोनों दलों के टिकट न पाने से बगावत पर उतरे नेता भी दोनों दलों के लिए खासी परेशानी का सबब बने हुए हैं। कांग्रेस में जहां गंगोत्री से सुरेश चौहान, थराली सीट से महेश त्रिकोटी, बद्रीनाथ से नंदन सिंह बिष्ट, रूद्रप्रयाग से भारत सिंह चौधरी, वीरेन्द्र बिष्ट, देवप्रयाग से पूर्व मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी, सहसपुर से पूर्व विधायक साधूराम, डोईवाला से एसपी सिंह, रानीपुर बीएचईएल से पूर्व विधायक अंबरीश कुमार और लालकुंआ से पूर्व विधायक हरीश दुर्गापाल आदि ने बगावत कर पार्टी की परेशानियां बढ़ा दी है।
वहीं भाजपा में बदरीनाथ से विधायक केदारसिंह फोनिया, थराली से विधायक जीएल शाह, कर्णप्रयाग से अनिल नौटियाल, पुरोला से विधायक राजकुमार, अल्ल्मोड़ा से पूर्व विधायक, कैलाश शर्मा, काशीपुर से पूर्व विधायक राजीव अग्रवाल, नरेन्द्र नगर से पूर्व दायित्वधारी आदित्य कोठारी और देहरादून कैंट से आरएसएस के महानगर कार्यवाह और विधानसभा अध्यक्ष हरबंश कपूर के सूचनाधिकारी रहे राजेन्द्र पंत ने भी पार्टी के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाते हुए मैदान में कूद पड़े हैं। हालांकि पार्टी ने निवर्तमान कैबिनेट मंत्री खजानदास और गोविन्द सिंह बिष्ठ को मनाने में सफलता पा ली है। बताते चले भाजपा ने इस बार यहां बिहार फार्मूले के आधार पर दो कैबिनेट मंत्रियों समेत 10 वर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए हैं, जिसके चलते पार्टी में बगावत की लहर देखी जा रही है। लेकिन पार्टी के चुनाव प्रबंधकों का दावा है कि सभी रूठों को नामांकन वापस लेने के लिए मना लिया जाएगा। इसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिल रही है।
बहरहाल में प्रदेश धीरे धीरे चुनावी फीवर का लेबल बढ़ता जा रहा है। 70 सीटों के इस महासंग्राम में सत्ता की चाभी किसके हाथ में आएगी ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। लेकिन प्रदेश का प्रबुद्ध मतदाता बड़ी ही खामोशी से इस चुनावी संग्राम की तिकड़मों को देख रहा है। शायद आने वाले चुनाव में प्रदेश में कोई अनअपेक्षित और चौंकाने वाला परिणाम आ सकता है। बहरहाल अभी तो मतदाताओं के लिए भी चुनावी महोत्सव और लोकतंत्र के इस उत्सव को लेकर आनन्द उठाने का अवसर प्रदान किया है। इस उत्सव में आम मतदाता माननीय नेताजी से सवाल जवाब करने की पूरी तैयारी किए बैठा है।
देहरादून से धीरेन्द्र प्रताप सिंह की रिपोर्ट.