पिछले 48 घंटों में एक यंत्रणा को बार-बार भोग रहा हूं और हर रोज भोगनी पड़ेगी… और वो है कमरा नंबर 702 को देखते हर सुबह हुए सीढ़ी उतरना और शाम को लौटते वक्त उसी दरवाजे पर नजर फेरना… कि क्या पता शाह साहब कब बाहर आ जाएं। हादसे की खबर सब जगह देखने के बावजूद अनायास ही उनके फ्लैट पर नजर चली जाती है और रवींद्र शाह जी को तलाशती है। अभी-अभी सीढ़ी चढ़कर कमरे में दाखिल हुआ हूं और उनसे आखिरी मुलाकात और आखिरी कॉल याद आ रहा है।
पांच दिन पहले बाइक साफ कर रहा था कि अचानक कंधे पर गर्माहट भरी हथेली का स्पर्श महसूस हुआ…वो शाह साहब ही थे। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा- कैसे हो सचिन, बड़े दिन हो गए यार साथ बैठे हुए. एक दिन साथ बैठते हैं कुछ बनाएंगे और खाएंगे। यह सुनकर मैं प्रफुल्लित होकर कुछ अन्य साथियों के नाम पर सहमति लेता हूं और वो पीठ पर थपकी देकर अपने फ्लेट में दाखिल हो जाते हैं। …अहसास ही नहीं था कि अंदर जाते हुए तो देख रहा हूं लेकिन बाहर आते-जाते अब कभी न देख सकूंगा।
यादें बहुत जुड़ी हैं उनसे, और ऐसी कि अनमिट- उपमा, भुट्टे और लौकी की आइस्क्रीम ही नहीं, जाने कैसे-कैसे स्वादिष्ट व्यंजन अपने हाथ से बनाकर खिलाया करते थे। और एक महीने में तीन-चार बार अपने सुख-दुख बांटते हुए हाट बाजार से भाजी-तरकारी लाने का तो नियम सा बन गया था। बातें होती तो जो भी कहते खरा-खरा, सुनने में मीठा लगे या कड़वा लेकिन बात साफ सुथरी। यही सब आज भी याद आता रहा, हालांकि दफ्तर में किसी का जन्मदिन मनाया जा रहा था, लेकिन मीठा रास नहीं आया तो औपचारिकता निभाने के बाद उठकर रवाना हो गया। सुबह से ही अखबारों की सुर्खियों में उनके हादसे के जिक्र ने घाव पर दोहरा घाव कर दिया। क्या करूं रोज उनसे भले ही मुलाकात न होती हो लेकिन इतना यकीन तो था कि सर जी यहीं हैं। पर अब नहीं आएंगे, मुझे कभी हक से डांटेगे भी नहीं, मुझे समझाएंगे भी नहीं। यह तो मेरे साथ धोखा है, शाह साहब कभी अपनी बात से फिरे नहीं और मुझे तो कहकर गए थे कि एक दिन साथ बैठेंगे। ….दगा दे गए… सारे रिश्ते तोड़ गए… लेकिन कम्बखत कमरा नंबर 702 पर उन्हें देखने की हसरत भरी आदत को एक दिन में कैसे बदल दूं।
दरअसल रवींद्र शाह साहब से रिश्ता बहुत पुराना है। जब वे 1996 में दैनिक भास्कर राजस्थान में प्रिंटर डेस्क पर थे, तब हमें कलमकारी के हुनर सिखाया करते थे। संयोग और आगे बढ़ा और सहारा समय न्यूज चैनल में मध्य प्रदेश को संभालते वक्त राजस्थान चैनल की भी जिम्मेवारी उनकी ही थी। तब हम राजस्थान से उन्हें रिपोर्ट किया करते थे। उनकी हिदायतों और विजुअल्स मीडिया की मांग को समझते-समझते हमने छोटे-मोटे ही सही पहाड़ तोड़ डाले। ज्यादा कुछ नहीं किया लेकिन उन्हें संतोष रहा कि चलो हमारे बच्चे ठीक काम कर रहे हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि नियति मुझे शाह साहब के साए से तीसरी बार नवाजेगी। अपने जीवन में हादसों के बाद मीडिया छोड़ दिल्ली चला आया और जहां रहने लगा उसके ही ग्राउंड फ्लोर पर शाह साहब रह रहे थे। रवींद्र जी भी बहुत खुश हुए। हमेशा कहते थे – जब इच्छा हो आ जाया करो, बस एक फोन कर दिया करो। कैसे भी करके साथ बैठ जाएंगे। बाकी कोई दिक्कत हो तो बताओ… करेंगे कुछ जरूर करेंगे।
पराए शहर में ऐसे ही कुछ अपनों का सहारा होता है। चार दिन पहले ही उनके दरवाजे को देखकर सोच रहा था कि खटकाकर मिल लेता हूं। लेकिन दिल की बात नहीं मानी। क्योंकि मुझे भी कहां पता था कि हमारे रवींद्र जी, शाह साहब एक दिन कमरा नंबर 702 में न दाखिल होंगे और न ही बाहर निकलेंगे। लेकिन उन्हें तलाशने वाली इन निगाहों को अब कौन समझाए कि बार-बार टकटकी लगाने से अब शाह साहब नहीं आएंगे….कभी नहीं आएंगे।
लेखक डा. सचिन बत्रा पत्रकारिता एवं जनसंचार के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.