चंदा के सहारे घरों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहा था। इस काम में रिश्तेदारी भी एक बड़ा फैक्टर साबित हो रही थी। हमारे गांव की एक लड़की की शादी कुराईपुर में हुई है। उसका बड़ा परिवार है। उस परिवार का ओबरा में परिचय था शेरवाला घर। ओबरा की मुख्य सड़क पर एक पुराना मकान है। इसके दरवाजे की दीवार पर एक शेर की आकृति बनी हुई है। यह घर उन्हीं लोगों का है। यह परिवार भी धनी माना जाता है। सुरेंद्र जी से मेरा परिचय पहले भी हो चुका था। चंदा मांगने के क्रम में उनके घर भी पहुंच गया। वह घर पर ही थे। छत पर धूप का आनंद ले रहे थे।
मैं भी छत पर पहुंच गया। उनसे चुनाव को लेकर चर्चा हुई। उनसे कहा कि हम एक गिलास अनाज के लिए आए हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आर्थिक मदद ले लीजिए। मैंने कहा कि आर्थिक मदद हम बाद में ले लेंगे, लेकिन एक गिलास अनाज हमें आज ही चाहिए। उन्होंने अपने घर से एक गिलास अनाज दिलवाया। उनके घर से निकलकर उनके छोटे भाई के घर पहुंचा। उनकी ससुराल हमारे गांव में है। मैं अपने गांव की लड़की का नाम नहीं जानता था, पर चेहरे से पहचानता था। दरवाजा खटखटाया। हमारे साथ आयी एक महिला ने उससे मेरा परिचय कराया कि यह तुम्हारे गांव के ही हैं। वह मुझे पहचान नहीं रही थी। फिर मैंने पहचान के लिए अपनी बहन के नाम का सहारा लिया। उसे बताया कि हम तेतरी के भाई हैं। मेरी बहन का नाम तेतरी है। तब वह पहचानी और अपने आंगन में ले गयी। वहां एक कुर्सी पर बैठा। उसके पति खेत पर गए हुए थे। उसने खाना खिलाया। गांव-घर का हालचाल लिया। परिवार के बारे में जानकारी प्राप्त की। उससे वोट देने का आग्रह करते हुए दूसरी गली में प्रवेश किया। वह मुसलमानों का मुहल्ला था। वहां एक डाक्टर अपनी क्लिनिक में बैठे थे। उनसे बात की और चुनाव के संबंध में चर्चा की।
वहां से निकलकर गौरीशंकर सिंह के घर पहुंचा। वहां पर उनके लड़के से मुलाकात हुई। उससे बातचीत कर दूसरे घर के लिए निकला। इस तरह एक-एक घर, एक-एक गली में छाक छान रहा था। हर घर में चंदा मांगने का हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, लेकिन वोट मांगने में भी संकोच नहीं करता था। इस बीच दोपहर हो गया था। कुराईपुर से ओबरा चला गया और कुछ लोगों से मुलाकात की। वहां से मैं पंचायत के दूसरे छोर पूर्णाडीह चला गया। पूर्णाडीह में एक मकान है शिवनारायण सिंह का। कुशवाहा जाति के हैं। इस गांव में कुशवाहों की संख्या काफी है। वहां के लोग मूलत: कृषि आधारित हैं। कुछ लोग पशुपालन भी करते हैं और दूध का कारोबार भी करते हैं।
कुशवाहा गांवों की विशेषता है कि उस गांव में सब्जी की खेती भी खूब होती है। उस समय धान की फसल पक रही थी और कटनी भी लगी हुई थी। साथ में आलू व अन्य सब्जी के पैदावार भी दिख रहे थे। शिवनारायण सिंह के मकान के पास ही बैठा। उनका एक लड़का अजीत पटना में रहकर पढ़ाई करता है। वह घर आया हुआ था। उससे मैंने बताया कि मुझे चंदा से चुनाव लड़ना है। उसने अनाज के बदले 10 रुपये दिए। जहां बैठा था, उस मकान के सामने एक कुआं भी था। कुआं का इस्तेमाल कम होता था। अब हर घर में चापाकल लग जाने के कारण लोग कुआं पर पानी भरने कम ही आते हैं। फिर भी सामुदायिकता का बोध कराने के लिए कुआं आज भी गवाह का काम कर रहा है।
इस गांव में झोला लेकर घूमते और जनसंपर्क करते हुए शाम हो गयी थी। वहां से कारामोड़ आया। मन में विचार आया कि चावल बेच दें। लेकिन साहस नहीं हुआ। वजह यह थी कि इन गलियों का काफी खाक छाना था और लोग भी पहचानने लगे थे कि यह मुखिया का उम्मीदवार है। वहां से बस पकड़ कर जिनोरिया आया। तब तक ढेर शाम हो गयी थी। अंधेरिया रात थी। पैदल ही मायापुर की ओर चल दिया। रास्ते में चुनाव, जनभावना और अपनी मेहनत को लेकर विभिन्न तरह की सोच दिमाग में चलती रही। सोच-विचार करते हुए घर मायापुर पहुंच गया। हाथ में चावल का झोला भी था। मायापुर मेरी ससुराल है। एक छोटा साला है अविनाश। उसे कहा कि जाओ यह चावल बेचकर आओ। वह दुकान पर गया और चावल बेचकर लौटा। उसने बताया कि चावल 20 रुपये का हुआ। दस रुपया चंदा में मिला था। दिन भर में जनसहयोग के नाम पर मिले कुल 30 रुपये। इसी समय मन में यह विचार आया कि चंदा मांगने में काफी समय निकल जाता है और लोगों से जनसंपर्क में भी बाधा आ रही है। इस कारण मैंने तय कि अब लोगों से चंदा नहीं लेना है।
(जारी)
लेखक वीरेंद्र कुमार यादव बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं. हिंदुस्तान और प्रभात खबर समेत कई अखबारों को अपनी सेवा दे चुके हैं. फ़िलहाल बिहार में समाजवादी आन्दोलन पर अध्ययन एवं शोध कर रहे हैं. इनसे संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं.
इसके पहले के भागों के बारे में पढ़ने के लिए क्लिक करें : वीरेंद्र यादव की चुनाव यात्रा