दोस्तों, बिहार में वाकई सुशासन है। इस सुशासन के लिए केवल सरकार और सरकार से जुड़े तंत्र ही बधाई के पात्र नहीं हैं। यहां के कई अखबार भी किसी मायने में कम नहीं है। एक अखबार है टाइम्स आफ़ इंडिया। इस अखबार के प्रबंधक इतने दबंग हैं कि इनलोगों ने अदालती आदेश को भी ठेंगा दिखा दिया है। अदालत ने छंटनीग्रस्त कर्मियों के मामले में अखबार के प्रबंधकों को बार-बार नोटिस दिया। लेकिन प्रबंधक हर बार अनुपस्थि रहे। अंत में 2 फ़रवरी 2013 को सिविल कोर्ट पटना के न्यायिक दंडाधिकारी (प्रथम श्रेणी) न्यायमूर्ति रश्मि प्रसाद ने प्रबंधकों के खिलाफ़ गैरजमानतीय वारंट और कुर्की जब्ती का आदेश जारी किया।
लेकिन चूंकि बिहार में सुशासन है इसलिए पटना पुलिस ने अदालत के इस आदेश का आजतक पालन नहीं किया है। अदालत ने स्थानीय पुलिस प्रशासन को टाइम्स आफ़ इंडिया की मूल कंपनी मेसर्स बेनेट कोलमैन प्राइवेट लिमिटेड, मुख्य प्रबंधक एसके दास, टाइम्स पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, वरीय कार्मिक पदाधिकारी अशोक कुमार श्रीवास्तव, मेसर्स एक्सेल पब्लिशिंग हाऊस प्राइवेट लिमिटेड एवं इसके प्रोडक्शन मैनेजर एबी सिंह, टाइम्स हाउस के प्रबंधक करूणाकर झा को गिरफ़्तार कर किसी भी हाल में 2 अप्रैल 2013 को अदालत में प्रस्तुत करने का आदेश दिया था।
मामला टाइम्स आफ़ इंडिया के उन 74 कर्मचारियों से जुड़ा है जो 15 जुलाई 2011 तक टाइम्स आफ़ इंडिया की पटना इकाई के हिस्सा थे। अगले दिन यानी सोलह जुलाई को कंपनी ने प्रिंटिंग प्रेस बंद कर दिया और सभी कर्मचारी सड़क पर आ गये। हालांकि कंपनी की ओर से सभी कर्मचारियों को एक पत्र और उनके वेतन एवं कार्य अवधि के हिसाब से मुआवजा राशि दी गयी थी। इस संबंध में रामपूजन सिंह बताते हैं कंपनी ने उनके जैसे सभी कर्मचारियों को जबरन वीआरएस के लिए मजबूर कर दिया।
कंपनी के इस तानाशाही रवैये के विरोध में कर्मचारियों ने साझा आंदोलन फ़्रेजर रोड स्थिति टाइम्स आफ़ इंडिया के मुख्य कार्यालय के सामने फ़ुटपाथ पर करना शुरू कर दिया। रामपूजन सिंह के अनुसार उस दिन से शुरू हुआ आंदोलन अबतक जारी है। इस बीच अभाव में जी रहे कर्मचारियों के द्वारा प्रबंधकों से वार्ता करने की गुहार लगायी गयी, लेकिन प्रबंधकों ने साफ़ शब्दों में कहा कि वे अदालत के माध्यम से अपनी बातें कहें। कंपनी अदालत का फ़ैसला मानेगी।
रामपूजन सिंह के अनुसार मजबूर कर्मियों ने सिविल कोर्ट पटना में फ़रियाद की। जैसा कि उपर में वर्णित है कि प्रबंधकों ने स्थानीय न्यायालय में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करायी, जिसके कारण मामला लंबित है। बाद में कर्मचारियों ने यह मामला स्थानीय श्रम न्यायालय में भी उठाया। वहां भी प्रबंधकों ने अदालती आदेश को ठेंगा दिखाया। हालांकि इस बीच टाइम्स आफ़ इंडिया के प्रबंधकों ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में एक अपील दायर कर दी। लिहाजा अब कर्मचारियों का मामला एक साथ तीन-तीन अदालतों में चल रहा है।
टाइम्स आफ़ इंडिया के प्रबंधकों द्वारा कर्मचारियों के हितों की उपेक्षा कोई नई घटना नहीं है। इंटक के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रप्रकाश सिंह बताते हैं कि इससे पहले जब टाइम्स आफ़ इंडिया के द्वारा नवभारत टाइम्स को बंद किया गया था तब उसके मजदूर सड़क पर आ गये थे और कंपनी ने उनके हितों की उपेक्षा की थी। अदालत द्वारा कुर्की जब्ती का आदेश अमल में नहीं लाये जाने के संबंध में श्री सिंह ने कहा कि यह दुर्भाग्य ही है कि जो लोग आम आदमी के दुख तकलीफ़ को अखबारों के माध्यम से समाज में साझा करते हैं, उनके साथ हो रहे अन्याय के प्रति न तो अखबार के प्रबंधक संवेदनशील हैं और न ही स्थानीय प्रशासन के लोग। इसी मामले पर भाकपा माले के वरिष्ठ नेता धीरेंद्र झा ने कहा कि माले ने हमेशा ही मजदूरों के मुद्दे को मजबूती से उठाया है। टाइम्स आफ़ इंडिया के आंदोलनरत कर्मियों के साथ उनकी पार्टी हमेशा खड़ी रही है। उन्होंने यह भी कहा कि सूबे में केवल कहने को सुशासन है। असल में राज्य में जिनके पास सक्षमता है, उनके लिए कानून का कोई मतलब नहीं है। टाइम्स आफ़ इंडिया के प्रबंधकों और स्थानीय प्रशासन के रवैये से यह स्पष्ट हो जाता है।
बहरहाल, टाइम्स आफ़ इंडिया के 74 छंटनीग्रस्त कर्मियों में से 4 लोगों की मौत विभिन्न बीमारियों के कारण इलाज के अभाव में हो चुकी है। प्रिंटिंग मशीन यूनिट में काम करने वाले नासिर हुसैन के मुताबिक अभी हाल ही में दिनेश कुमार सिंह का निधन इलाज के अभाव में हो गया। इसके पहले टारजन नामक एक आदिवासी कर्मी और सुकुल राम नामक व्यक्ति की मौत भी इलाज के अभाव में हो चुकी है। नासिर हुसैन के मुताबिक कंपनी द्वारा हटाये जाने के बाद सभी मजदूरों और उनके बाल-बच्चों का जीवन नारकीय बन चुका है। अधिकांश मजदूरों के बच्चों की पढ़ाई चौपट हो गई है। कई मजदूरों की बेटियों की शादी टूट गयी। नासिर और उनके साथी चाहते हैं कि कंपनी यदि उन्हें नहीं रखना चाहती है तो नहीं रखे। चूंकि उम्र के इस दौर में वे अब कोई और काम नहीं कर सकते हैं इसलिए कंपनी उन्हें इसका समुचित मुआवजा दे ताकि वे अपना जीवन आराम से जी सकें।
लेखक नवल किशोर कुमार बिहार के जाने माने पत्रकार तथा अपना बिहार पोर्टल के संपादक हैं.