पृथ्वी अगर मुक्त बाजार संस्कृति से कहीं बची है तो इलाहाबाद में। पिछले दिनों हमारे फिल्मकार मित्र राजीव कुमार ने ऐसा कहा था। मैं इलाहाबाद में 1979 में तीन महीने के लिए रहा और 1980 में दिल्ली चला गया। लेकिन इन तीन महीनों में ही इलाहाबाद के सांस्कृतिक साहित्यिक परिवार से शैलेश मटियानी जी, शेखर जोशी जी, अमरकांत जी, नरेश मेहता जी, नीलाभ, मंगलेश, वीरेनदा, रामजी राय, भैरव प्रसाद गुप्त और मार्कंडेय जी की अंतरंग आत्मीयता से जुड़ गया था। अमरकांत जी और भैरव प्रसाद गुप्त जी की वजह से माया प्रकाशन के लिए अनुवाद और मंगलेश के सौजन्य से अमृत प्रभात में लेखन, मेरे इलाहाबाद ठहरने का एकमात्र जरिया था।
मैं शेखर जोशी जी के 100 लूकर गंज स्थित आवास में रहा तो इलाहाबाद के तमाम साहित्यकारों से गाहे-बगाहे मुलाकात हो जाती थी। भैरव जी, अमरकांत जी और मार्कंडेय जी के अलावा शैलेश जी के घर आना जाना लगा रहता था। यही आत्मीयता हमें छात्र जीवन में ही आदरणीय विष्णु प्रभाकर जी से नसीब हुई तो बाद में बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी से। ये तमाम लोग और उनका साहित्य जनपद साहित्य की धरोहर है, जिसका नामोनिशान तक, अब कहीं नहीं है।
त्रिलोचन जी के निधन पर हमने लिखा था कि जनपद के आखिरी महायोद्धा का निधन हो गया। तब भी अमरकांत जी थे। दूधनाथ सिंह की भी इस दुनिया में खास भूमिका रही है। इलाहाबाद विश्विद्यालय में हिंदी में डा.रघुवंश और अंग्रेजी में डा. विजयदेव नारायण साही और डा. मानस मुकुल दास प्रमुख थे।अमृत प्रभात में मंगलेश को केंद्रित एक युवा साहित्यिक पत्रकार दुनिया अलग थी। अमृत राय की पत्रिका 'कहानी' और महादेवी वर्मा की 'हिंदुस्तानी' तब भी छप रही थीं। शैलेश जी 'विकल्प' निकाल रहे थे तो मार्कंडेय जी 'कथा।'
दरअसल इलाहाबाद के साहित्यकारों को हमने नैनीताल मे 'विकल्प' के माध्यम से ही जाना था। अमरकांत जी की कहानी 'जिंदगी और जोंक' को शायद पहली बार वहीं पढ़ा था। आज जो लिख रहा हूं अमरकांत जी के बारे में, यह भी अरसे से स्थगित लेखन है। मैं न साहित्यकार हूं और न आलोचक। साहित्य के क्षेत्र में दुस्साहसिक हस्तक्षेप हमारी औकात से बाहर है। लेकिन इलाहाबादी साहित्य केंद्र के नयी दिल्ली और भोपाल स्थानांतरित हो जाने के बावजूद जो लोग रच रहे थे, जिनमें हमारे इलाहाबाद प्रवास के दौरान तब भी जीवित महादेवी वर्मा भी शामिल हैं, उनके बारे में मैं कायदे से अब तक लिख ही नहीं पाया। शैलेश मटियानी के रचना संसार पर लिखा जाना था, नही हो सका। शेखर जी के परिवार में होने के बावजूद उनके रचनाक्रम पर अब तक लिखा नहीं गया।
हम अमृतलाल नागर और विष्णु प्रभाकर जी के साहित्य पर भी लिखना चाहते थे, जो हो न सका। दरअसल इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली जाने के फैसले ने ही हमें साहित्य की दुनिया से हमेशा के लिए बेदखल कर गया। हम पत्रकारिता के हो गये। फौरी मुद्दे हमारे लिए ज्यादा अहम है और साहित्य के लिए अब हमारी कोई प्राथमिकता बची ही नहीं है। अंतरिम बजट से लेकर तेलांगना संकट ने इलाहाबादी साहित्यिक दुनिया के भूले बिसरे जनपद को याद करने के लायक नहीं छोड़ा हमें। वरना हम तो नैनीताल में इंटरमीडिेएट के जीआईसी जमाने से कुछ और सोचते रहे हैं। मोहन कपिलेश भोज का कहना था कि नये सिरे से लिखना और रचना ज्यादा जरुरी नहीं है, बल्कि जो कचरा जमा हो गया है, उसे साफ करने के लिए हमें सफाई कर्मी बनना चाहिए।
इस महासंकल्प को हम लोग अमली जामा नहीं पहुंचा सके। न मैं और न कपिलेश। फर्क यह है कि नौकरी से निजात पाने के बाद वह कविताएं रच रहा है और साहित्यिक दुनिया से अब हमारा कोई नाता नहीं है। आज जो भी कुछ लिखा रचा जा रहा है, उनमें से बहुचर्चित प्रतिष्ठित ज्यादातर चमकदार हिस्सा मुक्त बाजार के हक में ही है। साठ के दशक में स्वतंत्रता के नतीजों से हुए मोहभंग की वजह से जितने बहुआयामी साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन हुए, अन्यत्र शायद ही हुए होंगे। लेकिन धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, ज्ञानरंजन से लेकर नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह की बेजोड़ गिरोहबंदी की वजह से उस साहित्य का सिलसिलेवार मूल्यांकन हुआ ही नहीं। वह गिरोहबंदी आज संक्रामक है और पार्टीबद्ध भी।
अमरकांत अब तक जी रहे थे, वह वैसे ही नहीं मालूम पड़ा जैसे नियमित काफी हाउस में बैठने वाले विष्णु प्रभाकर जी के जीने-मरने से हिंदी दुनिया में कोई बड़ी हलचल नहीं हुई। वह तो लखनऊ में धुनि जमाये बैठे, भारतीय साहित्य के शायद सबसे बड़े किस्सागो अमृतलाल नागर जी थे, जो नये पुराने से बिना भेदभाव संपर्क रखते थे और इलाहाबाद से उपेंद्रनाथ अश्क भी यही करते थे। उनके बाद बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री के बाद विष्णु चंद्र शर्मा ने दिल्ली की सादतपुर टीम के जरिये संवाद का कोना बचाये रखा। शलभ ने मध्य प्रदेश के विदिशा जैसे शहर से दिल्ली और भोपाल के विरुद्ध जंग जारी रखी। लेकिन इलाहाबाद तो नईदिल्ली और भोपाल से सत्तर के दशक में ही युद्ध हार गया और एकाधिकारवादी तत्व हिंदी में ही नहीं, पूरे भारतीय साहित्य में साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ, रंग-बिरंगे पुरस्कारों, बाजारु पत्रिकाओं और सरकारी खरीद से चलने वाले प्रकाशन संस्थानों के जरिये छा गये।
आलोचना बाकायदा मार्केटिंग हो गयी। साहित्य भी बाजार के माफिक प्रायोजित किया जाने लगा। हिंदी, मराठी और बांग्ला में जनपद साहित्य सिरे से गायब हो गया और जनपदों की आवाज बुलंद करने वाले लोग भी खो गये। अब भी जनपद इतिहास पर गंभीर काम कर रहे सुधीर विद्यार्थी और अनवर सुहैल जैसे लोग बरेली और मिर्जापुर जैसे कस्बों से साठ के दशक के जनपदों की याद दिलाते हैं। बांग्ला में यह फर्क सीधे दिखता है जब साठ के दशक के सुनील गंगोपाध्याय मृत्यु के बाद अब भी बांग्ला साहित्य और संस्कृति पर राज कर रहे हैं। माणिक बंद्योपाध्याय, समरेश बसु और ताराशंकर बंदोपाध्याय के अलावा तमाम पीढ़ियां गायब हो गयी और बांग्ला साहित्य और संस्कृति में एकमेव कोलकाता वर्चस्व के अलावा कोई जनपद नहीं है। हिंदी में डिट्टो वही हुआ और हो रहा है।
मराठी में थोड़ी बेहतर हालत है क्योंकि वहा मुंबई के अर्थ जागतिक वर्चस्व के बावजूद पुणे और नागपुर का वजूद बना हुआ है। शोलापुर, कोल्हापुर की आवाजें सुनायी पड़ती हैं तो मराठी संसार में कर्नाटकी गुलबर्गा से लेकर मुक्तिबोध के राजनंद गांव समेत मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान, गोवा तक की मराठी खुशबू है।
जनपदों के सिंहद्वार से ही कोई अचरज नहीं कि मराठी में ही दया पवार और नामदेव धसाल की अगुवाई में भारतीय दलित साहित्य का महाविस्फोट हो सका। हिंदी में दलित साहित्य का विस्तार उस तरह भी नहीं हो सका जैसे पंजाबी में। बांग्ला में तो खैर जनपदीय साहित्यिक भूगोल के सिरे से गायब हो जाने के कारण सही मायने में दलित साहित्य का कोई वजूद है ही नहीं।
जनपदों का महत्व जानना हो तो दक्षिण भारतीय भाषाओं में खासकर तमिल, कन्नड़ और तेलुगु के साहित्य संसार को देखना चाहिए जहां हर जनपद साहित्य और सस्कृति के स्वशासित केंद्र हैं। ओड़िया और असमिया से लेकर मणिपुरी और डोगरी तक मे यह केंद्रीयकरण और बाजारु स्वाभाव नहीं है, न कभी था। यह फर्क क्या है, उसे इस तरह से समझ लें कि बिहार में बांग्ला साहित्य का कभी बड़ा केंद्र रहा है। विभूति भूषण, सुबोध राय, सतीनाथ भादुड़ी से लेकर शरत तक का बिहार से नाता रहा है। अब भी बिहार और झारखंड से लेकर त्रिपुरा और भारत के दूसरे राज्यों में भी बांग्ला में रचनाकर्म जारी है लेकिन कोलकतिया साहित्य में उनकी नोटिस ही नहीं ली जाती। इतना वर्चस्ववादी है बांग्ला का पश्चिम बंगीय साहित्य। दूसरी भारतीय भाषाओं की क्या कहें जहां बांग्ला जनपदों तक की कोई सुनवाई नहीं है।
इसके विपरीत बांग्लादेशी साहित्य पूरी तरह विकेंद्रित है। जहां हर जनपद की आवाज रुप रंग रस के साथ मौजूद है। जहां हर बोली में उत्कृष्ट साहित्य लिखा जा रहा है। जो देश भाषा के नाम पर बना जहां बांग्ला भाषा के नाम पर लाखों लोगों ने कुर्बानी दी और आज भी दे रहे हैं, वहां बांग्ला नागरिक समाज तमाम आदिवासी भाषाओं को मान्यता दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। वहीं हमारे विश्वविद्यालयों से लेकर विश्व पुस्तक मेले तक में आदिवासी भाषा और साहित्य के प्रति कोई ममत्व नहीं है। जनपदीय साहित्य के कारण ही बंगाल में सहबाग आंदोलन संभव है क्योंकि कट्टरपंथ के विरुद्ध वहा के साहित्यकार, पत्रकार और बुद्धिजीवी जब-तब न सिर्फ सड़कों पर होते हैं, न सिर्फ आंदोलन करते हैं बल्कि अपनी जान की कुर्बानी करने को तैयार होते हैं। शायद इस महादेश के सबसे बड़े कथाकार अख्तराज्जुमान इलियस का समूचा लेखन ही जनपद साहित्य है।
भारत में जनपदों के ध्वंस, कृषिजीवी समाज, अर्थव्यवस्था, प्रकृति और पर्यावरण की हत्यारी मुक्तबाजार की संस्कुति ही रचनात्मकता का मुख्य स्वर बन गया है और इसके लिए भारतीय भाषाओं के तमाम साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षक और बुद्धिजीवी समान रुप से जिम्मेदार हैं। हम हिंदी समाज का महिमामंडन कर रहे होते हैं हिंदी समाज के लोक-मुहावरों और विरासत को तिलाजलि देते हुए। हमने हमेशा दिल्ली, मुबंई और भोपाल के तिलिस्म को तरजीह दी और जनपदों के श्वेत श्याम चित्रों का सिरे से ध्वंस कर दिया है। राजनीति अगर इस महाविध्वंस का पहला मुजरिम है तो उस जुर्म में साहित्यिक सांस्कृतिक दुनिया के खिलाफ भी कहीं न कहीं कोई एफआईआर दर्ज होना चाहिए।
बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा है कि पढ़े लिखे लोगों ने सबसे बड़ा धोखा दिया है। मौजूदा भारतीय परिदृश्य में रोज खंडित-विखंडित हो रहे देश के लहूलुहान भूगोल और इतिहास के हर प्रसंग, हर संदर्भ और हर मुद्दे के सिलसिले में यह सबसे नंगा सच है, जिसका समाना हमें करना ही चाहिेए।
हमारे मित्र आनंद तेलतुंबड़े, आईआईटी खड़गपुर में हैं और उनसे निरंतर संवाद जारी है। इसी संवाद में हम दोनों में इस मुद्दे पर सहमति हो गयी कि पढ़े लिखे संपन्न लोगों ने नाम और ख्याति के लिए अंधाधुंध जिस जनविरोधी साहित्य का निर्माण किया और मीडिया में जो मिथ्या भ्रामक सूचनाएं दी जाती हैं, और उनका जो असर है, उसके चलते देश का एकीकरण असंभव है और देश बेचो ब्रिगेड इतना निरंकुश है और इस तरह के भ्रामक रचनाकर्म और सूचनाओं से जनसंहारक तिलिस्म रोज ब रोज मजबूत हो रहा है।
नयी शुरुआत से पहले इस ट्रैश डिब्बे की सफाई और साहित्य सांस्कतिक संदर्भो, विधाओं और माध्यमों को, सौंदर्यशास्तत्र को वाइरस मुक्त करने के लिए रिफर्मैट करना अहम कार्यभार है। सहित्य में जनपदों के सफाये की शोकगाथा इलाहाबाद के ध्वंस के साथ शुरु हुई। अमरकांत जी का अवसान उनके कृतित्व व्यक्तित्व की विवेचना से अधिक इसी सच के सिलसिले में ज्यादा प्रासगिक है। हिंदी के बाजारवाद का मतलब यह था कि प्रेमचंद के बजाय हिंदी दुनिया शरत चंद्र को पलक पांवड़े पर बैठाये रखा, निराला और हजारी प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन रवींद्र छाया मे होता रहा और अमृत लाल नागर को ताराशंकर के मुकाबले कोई भाव नहीं दिया गया। बल्कि यह बांग्ला में भी हुआ, जिन दो बड़े बाजारु साहित्यकार शंकर और विमल मित्र को गंभीर साहित्य कभी नहीं माना गया, उन्हीं को हिंदीवालों ने सर माथे पर बैठाये रखा जबकि महाश्वेतादी और नवारुण भट्टाचार्य के अलावा हिंदी साहित्य की चर्चा तक करने वाला बंगाल में कोई तीसरा महत्वपूर्ण नाम है ही नहीं।
अमरकांत जी के अवसान के बाद दरअसल ध्वस्त जनपदों की यह शोकगाथा है, जिसमें इलाहाबाद का अवसान सबसे पहले हुआ। काशी विद्यापीठ के बहाने काशी फिर भी जीने का आभास देती रही है। इसी वजह से हिंदी दुनिया को अमरकांत जी के अवसान के बाद, साठ दशक के बाद शायद पहली बार मालूम चला कि वे जी रहे थे और लिख भी रहे थे। अमरकांत जी पर लिखना विलंबित हुआ और लिख भी तब रहा हूं जबकि आज शाम ही दिल्ली से तहेरे भाई अरुण ने फोन पर सूचना दी की हमारी सबसे बड़ी दीदी मीरा के दूसरे बेटे सुशांत का निधन भुवाली सेनेटोरियम में हो गया और अभी वे लोग अस्पताल नही पहुंच पाये हैं।
बचपन में हमारी अभिभावक मीरा दीदी को फोन लगाया तो संगीता सुबक रही थीं। उसके विवाह की सूचना देते हुए उसके पिता हमारे सबसे बड़े भांजे शेखर ने फोन पर धमकी दी थी कि अबके नहीं आये तो फिर कभी मुलाकात नहीं होगी। बेटी के विवाह के तीन महीने बीतते न बीतते सर्दी की एकरात बिजनौर दिल्ली रोड पर मोटरसाईकिल से जाते हुए सुनसान राजमार्ग पर ट्रक ने उसे कुचल दिया और समय पर इलाज न होने की वजह से उसका निधन हो गया। संगीता को अपने चाचा के निधन पर अपने पिता की भी याद आयी होगी। हमें तो अपने भांजे की मृत्यु को शोक इलाहाबाद के शोक में स्थानांतरित नजर आ रहा है।
पद्दोलोचन ने दो दिन पहले ही फोन पर आगाह कर दिया था। इसलिए इस मौत को आकस्मिक भी नहीं कह सकते। आज ही पहाड़ से तमाम लोग भास्कर उप्रेती के साथ घर आये थे। आज ही राजेंद्र धस्माना से भाई की लंबी बात हुई है। जनपदों की आवाजों के मध्य हम बंद गली में कैद हैं, और उन आवाजों के जवाब में कुछ कहने की हालत में भी नहीं हैं। पद्दो ने याद दिलाया कि करीब पैंतीस साल पहले प्रकाश झा ने गोविंद बल्लभ पंत पर दूरदर्शन के लिए फिल्म बनायी थी, जिसकी शूटिंग बसंतीपुर में भी हुई। पिताजी हमेशा की तरह बाहर थे, लेकिन उस फिल्म में बंसंतीपुर के लोग और हमारे ताउजी भी थे।
जनपद हमारे मध्य हैं लेकिन हम जनपदों में होने का सच खारिज करते रहेते हैं जैसे हम खारिज करते जा रहे हैं जनपद और अपना वजूद।
लेखक पलाश विश्वास वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार और सोशल एक्टिविस्ट हैं।