यह माना जाता है कि किताबें इंसान की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। वह जीवनपथ को रोशन करती हैं और भले-बुरे की पहचान में मददगार होती हैं। वह ज्ञान और सांस्कृतिक परंपराओं को सहजने का सबसे उत्तम तरीका हैं। अच्छी किताबों के जरिए ही दुनिया के अनेकों मनुष्यों ने अपने व्यक्तित्व को महानता के सांचे में ढाला और मानवता की सेवा की। इतिहास गवाह है, महान किताबों ने महान क्रांतियों का जन्म दिया और दुनिया को बदलकर रख दिया। कार्ल मार्क्स की लिखी पुस्तक ‘दास कैपिटल’ ने साम्यवाद की क्रांति को जन्म दिया और दुनिया के कई देशों में नई राजनीतिक व्यवस्थाओं को लागू करवाया। ‘टॉम काका की कुटिया’ नाम की किताब ने अमेरिका से नस्लभेद की महामारी को जड़ से खत्म कर दिया।
लेकिन, इस सबके बावजूद इसे बिडंबना ही कहा जाएगा कि जनसंवाद के माध्यमों में किताबों पर कोई गंभीर चर्चा देखने को नहीं मिलती है। विवादित किताबें या साहित्य ही मीडिया में अपनी जगह बना पाते हैं। हाल में ही, इसी खांचे में फिट होकर वेंडी डोनिगर की विवादित पुस्तक ‘द हिंदुस’ ने खूब सुर्खियां बटोरीं। भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को देखकर लगता है कि उसने तो साहित्य और किताबों से तौबा कर रखी है, उसके पास अंधविश्वासों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों के लिए तो पर्याप्त समय होता है, लेकिन किताबों पर चर्चा के लिए समय का अभाव। गौर करने वाली बात यह कि समय के साथ जिस मीडिया को और अधिक परिपक्व व गंभीर होने की आवश्यकता थी, वह इतनी अपरिपक्वता किन वजहों से दिखा रहा है। इसी का नतीजा है कि किताबों की चर्चा के लिए अखबारों में जगह कम होती जा रही है और एनडीटीवी 24×7 पर आने वाले ‘जस्ट बुकस’ जैसे कार्यक्रम बंद हो चुके हैं।
इस मामले में अमेरिका में प्रकाशकों और लेखकों द्वारा चलाए जा रहे विशुद्धरूप से किताबों व साहित्य के लिए समर्पित 24×7 सेटेलाइट टीवी चैनल ‘लिटरेरी टीवी’ से सीख ली जा सकती है। इस चैनल के चर्चा कार्यक्रम में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भी शामिल हो चुके हैं। भारतीय प्रकाशक व जाने-माने लेखक भी इस से प्रेरणा लेकर गंभीर प्रयास कर सकते हैं। मीडिया को इस मसले पर गंभीरता से सोचना चाहिए। खबरों के डीएनए की जांच करने वाले व प्राइम टाइम में संजीदा दिखने वाले सभी चैनलों के संपादकों के इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अधिक न सही हफ्ते में साहित्य व किताबों पर चर्चा के लिए 20-25 मिनट तो निकाले ही जा सकते है। नया पाठक वर्ग भी बनेगा और उनकी समझ में भी इजाफा होगा।
एक आंकड़े के मुताबिक देश के करीब 3-4 प्रतिशत लोग साहित्य व पुस्तकों को पढ़ना पसंद करते हैं। देश की जनसंख्या के 3-4 प्रतिशत को संख्या के लिहाज से कम नहीं आंका जा सकता है, जिसमें से अधिकांश की शिकायत रहती है कि उन्हें अच्छा साहित्य आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है। हिंदी व अन्य देशी भाषायी साहित्य के मामले में यह बात ज्यादा आम है। हिंदी प्रकाशकों व लेखकों के पास संसाधनों व प्रबंधन की कमी साफ नजर आती है। किताबों के फुटकर बाजार में भी हिंदी के प्रकाशक व लेखक पिछड़े हुए हैं। हिंदी के प्रकाशक और लेखक, दोनों ही किताब को पाठक तक पहुंचाने के बजाय सरकारी खरीद पर ज्यादा भरोसा करते हैं, इस तंत्र में किताब एक गोदाम से दूसरे गोदाम में चली जाती है या लाइब्रेरी सर्किल में धूल भांकती रहती है। साहित्यकर्म का उद्देश्य तभी पूरा माना जाएगा जब उसे पाठक तक आसानी से पहुंचाया जा सके।
आशीष कुमार
रिसर्च स्कॉलर, पत्रकारिता एवं जनसंचार
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