कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इन दिनों एक साथ कई राजनीतिक अग्नि-परीक्षाओं से गुजर रहे हैं। पहली ‘अग्नि-परीक्षा’ से तो उन्हें पार्टी के अंदर ही जूझना पड़ रहा है। क्योकि, पार्टी कार्यकर्ता बेसब्री से इस इंतजार में हैं कि उनका ‘युवा ह्रदय सम्राट’ बड़ी जिम्मेदारी स्वीकार करने के लिए अंतत: राजी होता है या नहीं? शुक्रवार को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की एक दिवसीय बैठक होने जा रही है। इंतजार है कि राहुल औपचारिक तौर पर ‘पदोन्नति’ का खुला आमंत्रण मंजूर करते हैं या नहीं? इस मौके पर उन्होंने एक बड़े हिंदी दैनिक अखबार को इंटरव्यू दे दिया है। इसमें उन्होंने कह दिया है कि पार्टी जो भी जिम्मेदारी देना चाहेगी, उसे वे जरूर स्वीकार करेंगे। राजनीतिक हल्कों में इस टिप्पणी का आशय यही समझा जा रहा है कि पार्टी उपाध्यक्ष अब ‘पीएम इन वेटिंग’ की पेशकश मंजूर करने को तैयार हैं। लेकिन, इस मुद्दे पर उन्होंने एक राजनीतिक पेच भी फंसा रखा है। यही कहा है कि यदि पार्टी फैसला करेगी, तो वे मंजूर करेंगे। लेकिन, अहम सवाल यह है कि पार्टी का नेतृत्व भी तो उनकी मां और उनके पास ही है। ऐसे में, उन्हें और कौन आदेश देगा?
सत्ता की दो पारी पूरी करने जा रहे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने साफ तौर पर ऐलान कर दिया है कि वे तीसरे राउंड के लिए उपलब्ध नहीं हैं। वे पहले ही कह चुके हैं कि राहुल गांधी में वे सारी खूबियां मौजूद हैं, जो कि एक अच्छे प्रधानमंत्री में होनी चाहिए। उन्होंने यह कहने में भी हिचक नहीं दिखाई कि वे राहुल गांधी के नेतृत्व में बड़ी सहजता से काम करने को तैयार हैं। पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी भी खुले तौर पर कह चुकी हैं कि प्रधानमंत्री उम्मीदवारी के लिए पार्टी उचित समय पर फैसला जरूर कर लेगी। इसका साफ संकेत यही माना गया कि इस आशय का फैसला जल्दी ही कर लिया जाएगा। पार्टी आलाकमान के इन संकेतों के बावजूद कांग्रेस के अंदर इस मुद्दे पर दुविधा की धाराएं बरकरार देखी जा रही हैं। पार्टी की एक मजबूत लॉबी इस बात की पक्षधर है कि अब बगैर देरी के राहुल को मोदी के मुकाबले औपचारिक रूप से ले आना चाहिए। जबकि, चर्चित महासचिव दिग्विजय सिंह जैसे नेता इस मुद्दे को उलझाए रखना ही पसंद कर रहे हैं।
दिग्विजय सिंह यही कह रहे हैं कि चुनाव के पहले कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के ऐलान की परंपरा नहीं रही है। ऐसे में, वे नहीं मानते कि ऐसी घोषणा करना जरूरी है। हालांकि, इसी के साथ वे यह जोड़ना भी नहीं भूलते कि राहुल गांधी को पार्टी के सभी कार्यकर्ता भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं। पार्टी के अंदर लंबे समय से इस बात को लेकर खासी दुविधा की स्थिति बनी हुई है कि पार्टी उपाध्यक्ष नई जिम्मेदारी की पेशकश स्वीकार करना चाहेंगे या नहीं। उल्लेखनीय है पिछले साल जनवरी में हुए जयपुर सम्मेलन में राहुल गांधी ने अपनी मां के हवाले से एक किस्सा सुनाया था। इसमें उन्होंने बताया था कि कैसे उन्हें एक दिन मां ने कहा था कि सत्ता तो एक जहर होती है। इनके इस जुमले की चर्चा राजनीतिक हल्कों में अलग-अलग नजरिए से होती रही है। क्योंकि, राहुल ने कई बार ‘एंग्री लीडर’ के किरदार में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा है कि बार-बार उनसे यह सवाल क्यों किया जाता कि वे प्रधानमंत्री पद चाहते हैं या नहीं? जबकि, सभी जानते हैं कि इस पद के लिए पार्टी में काबिल लोगों की कमी नहीं है।
वैसे भी उनकी पहली वरीयता संगठन को ज्यादा से ज्यादा मजबूत करने की है। पार्टी के तमाम घाघ किस्म के नेता भी नहीं समझ पाए हैं कि राहुल की इन बातों का असली मर्म वाकई में है क्या? इधर, मनमोहन सिंह ने तीसरे राउंड के खेल से अपने को बाहर कर लिया है। ऐसे में, चर्चा यह भी रही है कि कहीं कांग्रेस आलाकमान राहुल के बजाए इस बार पी. चिदंबरम जैसे साफ छवि के नेता को मनमोहन सिंह का ‘विकल्प’ बनाने की कोशिश न करे। मनमोहन सिंह की तरह चिदंबरम भी तमाम गुणों के बावजूद जननेता वाली चमक नहीं रखते हैं। संकट यह भी है कि पार्टी ने इस मामले में अपने पत्ते नहीं खोले, तो उसका दोहरा नुकसान संभावित है।
हालांकि, राहुल गांधी की ताजा टिप्पणी से पार्टी कार्यकर्ताओं में काफी उत्साह देखा जा रहा है। पार्टी प्रवक्ता मीम अफजल कहते हैं कि मीडिया इंटरव्यू से यह साफ हो गया है कि पार्टी उपाध्यक्ष खास राजनीतिक मुद्दों पर कितना साफ-साफ नजरिया रखते हैं? जबकि, भाजपा प्रवक्ता डॉ. संवित पात्रा का मानना है कि राहुल गांधी अभी भी झूठी उम्मीदों में बैठे हैं। इसी से वे इंटरव्यू में सच्चाई स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। पात्रा इस बात पर हैरान हैं कि कांग्रेस उपाध्यक्ष किस आधार पर नरेंद्र मोदी की तरफ इशारा करके भाजपा पर व्यक्ति आधारित राजनीति को बढ़ावा देने का आक्षेप करते हैं? जबकि, इतिहास गवाह है कि व्यक्ति आधारित राजनीति तो कांग्रेस की पुरानी संस्कृति है। इंदिरा गांधी की राजनीति के तौर-तरीकों का इतिहास बहुत पुराना भी नहीं हुआ है। ऐसे में, राहुल गांधी के कटाक्ष का कोई मतलब नहीं है।
नरेंद्र मोदी की रीति-नीति से जुड़े एक सवाल के संदर्भ में राहुल ने कहा है कि भाजपा व्यक्ति आधारित राजनीति को बढ़ावा दे रही है। जबकि, 120 करोड़ की आबादी वाले भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए व्यक्तिवादी राजनीति का बढ़ावा कोई शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। उन्होंने मोदी पर इशारों-इशारों में ही कई निशाने साधे हैं। यहां तक कि उनकी राजनीति को औरंगजेब से जोड़ा है। उन्होंने कह दिया है कि कांग्रेस ने तो सम्राट अशोक और अकबर की तरह सामुदायिक एकता और राष्ट्रीय अखंडता के लिए काम करना ठीक समझा है। जबकि, इसके उलट औरंगजेब की लाइन रही है, अब कुछ लोग इसका अनुसरण करते दिखाई पड़ते हैं। जाहिर है उन्होंने यह टिप्पणी मोदी की राजनीति से जोड़ दी है।
इन दिनों राजनीतिक हल्कों में भाजपा और कांग्रेस से ज्यादा चर्चा आम आदमी पार्टी (आप) के तौर-तरीकों की हो रही है। इस पार्टी ने पिछले महीने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में बड़ी कामयाबी हासिल करके राजनीतिक तहलका मचा दिया है। ‘आप’ की कामयाबी ने राष्ट्रीय राजधानी में कांग्रेस की स्थिति काफी कमजोर कर दी है। राजनीतिक मजबूरी के चलते इस पार्टी को ‘आप’ नेतृत्व के सामने झुकना पड़ा है। कांग्रेस ने बगैर शर्त समर्थन देकर अरविंद केजरीवाल की सरकार बनवा दी है। कांग्रेस से समर्थन लेने के बावजूद यह नवोदित पार्टी कांग्रेस को आंखें दिखा रही है। मुख्यमंत्री केजरीवाल आए दिन कांग्रेस नेतृत्व को भ्रष्ट करार करते हैं। वे लगातार यह संकल्प जता रहे हैं कि उनकी सरकार शीला दीक्षित सरकार के कार्यकाल के तमाम घोटालों की जांच कराएगी। जब कांग्रेस सरकार के कार्यकाल की पोल खुलेगी, तो संभव है दिल्ली के कई दिग्गज कांग्रेसी जेल में दिखाई पड़ें। इस तरह की खरी-खोटी बातें सुनने के बाद भी कांग्रेस का रुख ‘आप’ के प्रति नरम है, तो इसकी वजह यही है कि केजरीवाल सरकार को झटका देने का जोखिम फिलहाल लेने की स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व नहीं है।
क्योंकि ऐसा कुछ किया गया, तो कांग्रेस के लिए देशव्यापी नकारात्मक राजनीतिक संदेश चला जाएगा। वैसे भी, भ्रष्टाचार विरोधी राजनीतिक एजेंडे पर चढ़कर आई ‘आप’ ने देशभर में बदलाव की राजनीति का संदेश दिया है। दिल्ली में अपना पहला सफल राजनीतिक प्रयोग करने के बाद अब यह पार्टी जोर–शोर से लोकसभा की चुनावी चुनौती के लिए मैदान में आ गई है। इस पार्टी के रणनीतिकारों ने कांग्रेस के साथ भाजपा को भी अपने निशाने पर लिया है। इस पार्टी के नेता दोनों दलों को ‘सांपनाथ और नागनाथ’ करार दे रहे हैं। ‘आप’ कोर ग्रुप के सदस्य प्रशांत भूषण कहते हैं कि बुनियादी मुद्दों पर इन दोनों दलों का चरित्र एक-सा है। ऐसे में, भ्रष्टाचारी संस्कृति से लबालब कांग्रेस का साफ-सुथरा राजनीतिक विकल्प भाजपा कतई नहीं हो सकती। प्रशांत कहते हैं कि कांग्रेस का विकल्प भाजपा मानने की गलती आवाम को नहीं करनी चाहिए। क्योंकि, इनके नेता नरेंद्र मोदी की राजनीतिक प्रवृति लोकशाही को मजबूत करने वाली है ही नहीं। गुजरात के दंगों में पूरे देश ने मोदी का असली चेहरा पहले ही देख लिया है। इस खतरे को समझने की जरूरत है।
पिछले महीने दिल्ली में मिली ‘आप’ की चुनावी सफलता के बाद राहुल ने अपनी पार्टी के नेताओं से कहा था कि अब जरूरी हो गया है कि पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के तौर-तरीकों से सीख लें। यही कि जनता से सीधे संवाद बनाकर कैसे उनका दिल जीता जा सकता है? ‘आप’ की राजनीतिक शैली की सराहना करने वाले राहुल अब कुछ चौकन्ना हो गए हैं। ऐसे में, वे अब राजनीतिक खतरे को भांपकर ‘आप’ को भी निशाने पर ले रहे हैं। उन्होंने इंटरव्यू में कहा है कि इस पार्टी के तमाम तौर-तरीके उन्हें पसंद नहीं है। क्योंकि, यह पार्टी लोकप्रियता बटोरने के लिए तमाम शॉर्ट-टर्म खेल करने में लग गई है, जिसे ठीक नहीं माना जा सकता। कांग्रेस के प्रवक्ता और व्याखाकार ‘आप’ की राजनीति के संदर्भ में कह रहे हैं कि उनके नेता राहुल गांधी ने काफी पहले जनसंवाद की राजनीतिक संस्कृति शुरू की थी। इसी के तहत वे दूर-दराज क्षेत्रों में जाकर दलितों के घर रैन-बसेरा करते रहे हैं। भट्टा-पारसौल जैसे गांव में जाकर जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर किसानों की पीड़ा समझने की कोशिश करते रहे। अब यही नकल ‘आप’ ने करनी शुरू की, तो उसको वाह-वाही मिल रही है। पार्टी प्रवक्ता मीम अफजल राहुल गांधी के ऐसे तमाम काम गिनाते हैं, जो कि ‘आप’ शैली वाले हैं।
कांग्रेस के प्रवक्ता इस तरह की बातों से यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि ‘आप’ ने कांग्रेस को नहीं बल्कि, राहुल गांधी ने ‘आप’ को राजनीतिक रास्ता दिखाया है। ऐसे में, वे लोग कांग्रेस को ठेंगा दिखाने की जुर्रत न करें। ‘आप’ के चर्चित नेता कुमार विश्वास राहुल गांधी के मुकाबले अमेठी में चुनावी चुनौती देने के लिए कूद पड़े हैं। उन्होंने ऐलान कर दिया है कि वंशवाद की राजनीति की जड़ें उखाड़ने के लिए वे राहुल को हराने के लिए अमेठी आ गए हैं। ‘आप’ नेतृत्व की इस पहले के बाद अब कांग्रेसियों ने भी टीम केजरीवाल के खिलाफ जुबानी जंग तेज कर दी है।
राहुल गांधी को गुस्सा आ रहा है कि मीडिया बार-बार यह आकलन क्यों पेश कर रहा है कि कांग्रेस की राजनीतिक जमीन तेजी से खिसकने लगी है? उन्होंने कह दिया है कि मीडिया कांग्रेस के बारे में जो तस्वीर पेश कर रहा है, वह हकीकत नहीं है। उन्होंने कहा है कि 2004 और 2009 के चुनावों में भी मीडिया ने इस तरह की तस्वीर पेश करने की कोशिश की थी। लेकिन, जीत कांग्रेस की ही हुई थी। कांग्रेस के कई व्याखाकार इस बात की कसक जरूर जताते हैं कि जनता से जिस ‘कनेक्ट’ की बात राहुल गांधी ने कई साल पहले चिन्हित की थी, उसका ध्यान यूपीए सरकार ने जरा भी रखा होता, तो आज की स्थिति दूसरी होती। राहुल गांधी भी जानते हैं कि उनकी पार्टी और सरकार का ‘पब्लिक कनेक्शन’ क्यों नहीं जुड़ा? आखिर, वे भी तो मुद्दे उछालकर महीनों-महीनों के लिए नदारत होते रहे हैं। भला, इस छापामार शैली की अधकचरी राजनीति से पार्टी का ‘पब्लिक कनेक्शन’ जुड़ भी कैसे सकता है? सो, पता नहीं कांग्रेस उपाध्यक्ष को वाकई में किस पर गुस्सा आ रहा है? इन दिनों ‘आप’ की टोपी ने भाजपा और कांग्रेस दोनों खेमों में खलबली बढ़ा दी है। ऐसे में, सियासी मुकाबला शुरू हुआ है कि कौन किसे अपनी टोपी पहनाए? ताकि, जिम्मेदारियों से बचने के लिए हाथ की सफाई का कमाल दिखाया जा सके।
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।