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अदम गोंडवी की पहली बरसी पर विशेष : सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए मुल्क क्या आजाद है

जनता की भाषा में जनता के दुख दर्द और उसके संघर्षों की बात करने वाले कवि अदम गोण्डवी ने पिछले साल हमारा साथ छोड़ दिया। इस साल 18 दिसम्बर को उनकी पहली बरसी है। लीवर सिरोसिस जैसी बीमारी ने अदम को असमय ही हमसे अलग कर दिया। बीमारी की हालत में उन्हें काफी तकलीफ थी। रह रह कर वे अचेत हो जाते थे। उनके इलाज के लिए धन की जरूरत थी। लेकिन जब भी अदम गोण्डवी की चेतना वापस आती, वे सख्त हिदायत देते कि मेरे इलाज के लिए सहयोग के लिए अपनी तरफ से न कहो। जैसे कहना चाहते कि सारी जिन्दगी संघर्ष किया है, अपनी बीमारी से भी लड़ेगे। उसे भी परास्त करेंगे। अपने आसपास साथियों को पाकर उनके चेहरे पर नई चमक सी आ जाती थी। कविता के जगत में उनके जाने से जो सूनापन पसरा है, उसे भर पाना आसान नहीं।

जनता की भाषा में जनता के दुख दर्द और उसके संघर्षों की बात करने वाले कवि अदम गोण्डवी ने पिछले साल हमारा साथ छोड़ दिया। इस साल 18 दिसम्बर को उनकी पहली बरसी है। लीवर सिरोसिस जैसी बीमारी ने अदम को असमय ही हमसे अलग कर दिया। बीमारी की हालत में उन्हें काफी तकलीफ थी। रह रह कर वे अचेत हो जाते थे। उनके इलाज के लिए धन की जरूरत थी। लेकिन जब भी अदम गोण्डवी की चेतना वापस आती, वे सख्त हिदायत देते कि मेरे इलाज के लिए सहयोग के लिए अपनी तरफ से न कहो। जैसे कहना चाहते कि सारी जिन्दगी संघर्ष किया है, अपनी बीमारी से भी लड़ेगे। उसे भी परास्त करेंगे। अपने आसपास साथियों को पाकर उनके चेहरे पर नई चमक सी आ जाती थी। कविता के जगत में उनके जाने से जो सूनापन पसरा है, उसे भर पाना आसान नहीं।

‘अदम गोण्डवी 1980 के दशक में अपनी व्यवस्था विरोधी तथा आंदोलन परक कविताओं से चर्चा में आये। ‘चमारों की गली’ उन्हीं दिनों लखनऊ व इलाहाबाद से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात’ में छपी। यह कविता अपनी विषय वस्तु और तेवर को लेकर काफी चर्चा में रही। अदम उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के रहने वाले थें जो राजाओं, सामंती प्रभुओं के दबंगई व उनके अत्याचार के लिए कुख्यात रहा है। सामंतों के दबदबे वाले समाज में ‘चमारों की गली’ जैसी कविता लिखना, सीधे उन्हें चुनौती देना था। अदम की रचनाशीलत इन्हीं प्रभुओं से टक्कर लेती आगे बढ़ी। हम पाते हैं कि उनकी इस रचनाशीलता का विकास आगे के दिनों में व्यवस्था को बदलने की चेतना तक हुआ।

1980 में इन्दिरा गाँधी की सत्ता में वापसी हुई थी। यह निरंकुशता और पूँजीवादी एकाधिकारवाद की वापसी थी। यह कलावादियों के लिए हर्ष व विजय का काल था। इसे ‘कविता की वापसी’ के रूप में स्थापित किया गया। कला व साहित्य को सत्ताश्रयी बनाने की चेष्टा में कलावाद को स्थापित करने तथा प्रगतिशीलता को नकारने के सचेतन प्रयास किये गये। शहरी अभिजात्य संस्कृति को साहित्य की मुख्य धारा के बतौर सामने लाया गया। भारत भवन और ‘पूर्वग्रह’ इसका केन्द्र बना। इस सांस्कृतिक किले से ‘जनवाद’ और जनता की संघर्षशील सांस्कृतिक परम्परा पर गोलीबारी की गई। ‘कविता की वापसी’ का यही यथार्थ था।

इस दौर का एक दूसरा पहलू भी है। यह नई राजनीतिक शक्तियों के अभ्युदय का भी समय रहा है। नई सामाजिक व राजनीतिक शक्तियाँ सामने आती हैं। नये नारों की गूँज सुनाई पड़ती है। सामंतवाद विरोधी किसान संघर्ष इस दौर की खासियत थी। वहीं, देश पर इमरजेंसी थोपे जाने की घटना ने लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की नई जमीन तैयार कर दी थी। ‘क्रान्तिकारी जनवाद’ के इस संघर्ष के केन्द्र में ‘रोटी, जनवाद और आजादी’ का सवाल था। यह संघर्ष अपने मूल चरित्र में गैर संसदीय था परन्तु इसकी अपील लोकतांत्रिक थी। हिन्दी उर्दू की इस पट्टी में उभरे इस संघर्ष से हिन्दी साहित्य को नई ऊर्जा मिली। वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर हिन्दी कविता में बदलाव देखने को मिला। एक तरफ वह उर्दू के करीब पहुँची तो वहीं जनता की बोलियों व भाषाओं में कविताएं लिखी जाने लगीं।

यह दौर था जब मध्यवर्गीय काव्यचेतना से अलग सामंतवाद विरोधी किसान संघर्षों से पैदा हुई काव्य चेतना थी जो गोरख से लेकर अदम तक में अभिव्यक्त हो रही थी। छन्दों, गीतों, गजलों जैसे लोकप्रिय काव्य रूपों में कविता की रचना इस जरूरत से पैदा हुई थी कि इसे जनचेतना के प्रचार प्रसार का हिस्सा बनाया जाय। हम देखते हैं और पाते हैं कि गोरख, दुष्यन्त व अदम जहां सशरीर नहीं पहुँच सकते थे, वहां भी इनकी कविताएँ पहुँची। छात्रों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों के आंदोलन में इनकी कविताएँ जनचेतना के प्रचार का हथियार बनीं। यह कविता की नई जमीन थी। यह जमीन जन संघर्षों की जमीन थी। यह यथार्थ जनजीवन का यथार्थ था। यह सौंदर्य श्रम और संघर्ष का सौंदर्य था। वास्तव में यह ‘कविता की वापसी’ के बरक्स कविता में  जनचेतना का विस्फोट था। अदम की संपूर्ण काव्य यात्रा इसी विस्फोट का हिस्सा थी। इसीलिए अदम का कविकर्म उनका सामाजिक कर्म भी था।

अदम गोण्डवी का जन्म उस साल हुआ, जब देश आजाद हुआ था। देश की आजादी के जवान होने के साथ वे जवान हुए थे। उन्होंने इस आजाद हिन्दुस्तान में गरीब को गरीब और अमीर को और अमीर होते देखा था। विषमतामूलक इस समाज में कैसी है आजादी और किसकी है आजादी, यह महसूस कर रहे थे। आजादी के क्या मायने हैं, वे समझ रहे थे। आजादी के बाद की इस व्यवस्था का विरोध इनकी कविता का मूल स्वर है। इस संदर्भ में वे अपने को धूमिल की परम्परा से जोड़ते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि धूमिल व्यवस्था विरोध तथा आजादी से पैदा हुए मोहभंग के सबसे मुखर और बड़े कवि हैं। धूमिल कहते हैं -‘क्या आजादी तीन थके रंगों का नाम है/जिसे एक पहिया ढ़ोता है/या इसका कोई खास मतलब होता है’

अदम गोण्डवी की कविताओं में धूमिल की इस समझ और विचार का विस्तार है। अदम  अपनी कविता के माध्यम से आजादी के बाद की तस्वीर पेश करते हुए सवाल करते हैं  कि जिस देश के ‘सौ में सत्तर आदमी’ नाशाद हैं, क्या उसे आजाद देश माना जाय और फिर ये आजादी का जश्न मनाये तो भी किस बूते जब ये अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिये गये या लगातार किये जा रहे हैं। अदम की ये कविताएँ अस्सी के दशक की हैं। उन्होंने आजादी और उसके बाद के शासक वर्ग के जिस वीभत्स चेहरे व चरित्र को उदघाटित किया था, आज इक्कीसवीं सदी में देश उसकी क्रूरता को भोग रहा है जहाँ एक तरफ मेहनतकश जनता जल, जंगल जमीन और अपनी सम्पदा व श्रम से लगातार बेदखल की जा रही है। पूरी सत्ता भ्रष्टाचार में डूबी है।

आजादी के बाद की व्यवस्था, राज्य व शासक वर्ग के बारे में अदम की समझ बिल्कुल साफ थी। इसीलिए सामंतवादी.औपनिवेशिक व्यवस्था के विरोध में वे गरीब किसानों, दलितों, शोषितों के पक्ष में खड़े होते हैं। अपनी समझ की वजह से ही अदम नई पीढ़ी का आहवान करते हैं कि वह धूमिल की विरासत को आगे बढ़ाये। अदम नई पीढ़ी से अपेक्षा करते हैं कि वह धूमिल की व्यवस्था विरोधी परम्परा से जुड़े, उससे ऊर्जा ले और इस संघर्ष को आगे बढाने में अपनी सारी ताकत लगा दे।

आजादी के बाद की ऐसी कौन सी समस्या है जिस पर अदम ने कविताएँ नहीं की है। 1990 के दशक में जब साम्प्रदायिकता जैसी समस्या से देश जूझ रहा था। उन्होंने साम्प्रदायिकता के खिलाफ कविताएँ की। साझी संस्कृति की रक्षा के लिए चले आंदोलन में वे न सिर्फ शामिल थे बल्कि वे जानते थे कि यह सब भूख व गरीबी के खिलाफ चल रही लड़ाई को भटकाने की साजिश है। इसलिए वे कविता में आहवान करते हैं: ‘छेड़िए इक जंग, मिलजुल कर गरीबी के खिलाफ/ दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए’। अदम में हमें हिन्दी कविता की एक भिन्न परम्परा दिखती है। यह उर्दू की जमीन पर खड़ी है। यहाँ दुष्यन्त की तरह की तल्खी व बेबाकपन है, वहीं गोरख की तरह व्यवस्था को बदलने की छटपटाहट है। इनकी कविता में जिन्दगी व समाज को बदलने की ललकार है, व्यवस्था के विरुद्ध बगावत है। वे चाहते हैं कि कविता, अदब मुफलिसों की अंजुमन तक पहुँचे, उनकी आवाज बने:

‘भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो

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या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।’

अदम का महत्व हमारे लिए इसलिए भी है कि वे आज के ऐसे दौर में सक्रिय रहे हैं जब जन आंदोलन व जन प्रतिरोध शिथिल रहा है। कविता में कलावादी आग्रह बढ़ा है। अदम ऐसे दौर में हमारे अन्दर जन प्रतिरोध की मशाल जलाते हैं। हमें जिन्दगी के ताप को गहरे महसूस कराते हैं। कविता में लोकप्रियता को सांस्कृतिक मूल्य के रूप में स्थापित करते हैं। इस अर्थ में वे हमारी ऐसी धरोहर हैं जो न सिर्फ नई राह बनाते हैं बल्कि उस पर चलने के लिए हमें प्रेरित करते हैं।

कौशल किशोर

एफ – 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ  – 226017

मो. – 09807519227, 08400208031


अदम गोंडवी के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करें- भड़ास पर अदम गोंडवी

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