आवश्यकता आविष्कार की जननी है। साल 2012-13 का दौर भी कुछ ऐसा ही वक़्त लगा था। तब हिन्दुस्तान को लगा कि आज़ादी की दूसरी क्रान्ति शुरू हो गयी है। अन्ना नाम के शख्स ने एक उम्मीद जगाई और केजरीवाल नाम के "नायक" का जन्म हुआ। इस दौर में लोगों की सोच में ख़ासी तब्दीली आई। महज़ घर में टी.वी. के सामने बैठ नेताओं को कोसने और देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने वाला तबका भी घर से बाहर निकला। "आज़ादी की दूसरी लड़ाई" में, आंशिक तौर पर ही सही, पर शामिल हुआ। "आप" का जन्म हुआ। अरविन्द केजरीवाल ने, आम आदमी का पैसा चूसने वाले क्रोनी कैप्टिलिज़्म के प्रतीक अम्बानी-अडानी और वाड्रा जैसे तथा-कथित प्रॉपर्टी डीलरों की जमात की खुलेआम मुख़ालफ़त की। पर अचानक नयी फिल्म आयी। "महानायक" नरेंद्र मोदी का अवतार सामने आया। ऐसा "अजूबा" अवतार जिसका फैन आम आदमी हो गया।
एक ऐसा "कुली", जो दावा करता है कि आम जनता का बोझ उठाने का माद्दा सिर्फ उसमें है। मगर ये कुली ऐसा "जादूगर " है, जो हर इंटरव्यू में ये बताता फिर रहा है कि गरीब का, गर, पेट भर रहा है तो अम्बानियों-अडानियों की बदौलत। आम आदमी को दो पैसे मिल रहे हैं तो अम्बानियों-अडानियों की "कृपा " से। इस "सरकार" के गुजराती सरकारी काम का मुरीद आम आदमी कुछ इस कदर कि पूछिये मत। गाली मिलेगी, गर विरोध में आवाज़ तक उठा दी तो। अम्बानियों-अडानियों की मार झेल रहा आम आदमी, इस बात से कोई सरोकार नहीं रख रहा कि मोदी अम्बानियों-अडानियों को "भारत भाग्य विधाता" का दर्ज़ा क्यों दे रहे हैं? आम आदमी अभी भी स्वस्थ औघोगिक विकास और शॉर्ट-काट वाले औघोगिक विकास में अंतर नहीं समझ पा रहा और न ही इस बात में भेद कर पा रहा कि व्यक्तिगत विकास और सामूहिक विकास का फासला बहुत बड़ा कैसे होता जा रहा है।
आंकड़े बता रहे हैं कि आम आदमी का विकास रॉकेट की गति से भले ही न हुआ हो लेकिन आम आदमी की बदौलत, पिछले कुछ ही सालों में, स्पेस विमान की रफ़्तार से हिन्दुस्तान में कई अम्बानी-अडानी पैदा हो गए। करोड़ों की दौलत, अचानक से सैकड़ों-हज़ारों-लाखों करोड़ में जा पहुँची। कैसे? क्या नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह जैसे लोग इस बात के ज़िम्मेदार हैं? क्या आम आदमी की हिस्सेदारी का काफी बड़ा हिस्सा "हथियाने" का हक़, अम्बानियों-अडानियों को मोदी और मनमोहन जैसे लोगों ने दिया? क्या आम-आदमी को मालूम है कि विकास की आड़ में आम-आदमी की आर्थिक हिस्सेदारी सिमटती जा रही है और व्यक्ति-विशेष की मोनोपोली सुरसा के मुंह की तरह फ़ैली जा रही है? क्या आम आदमी को मालूम है कि आज आम आदमी की औकात, अम्बानीयों-अडानियों के सामने दो-कौड़ी की हो चली है?
नहीं! आम आदमी को नहीं मालूम। मालूम होता तो वो मोदी और मनमोहन जैसों से ये ज़रूर पूछता कि आम आदमी और अम्बानियों-अडानियों की विकास-दर में क्या फ़र्क़ है? आम आदमी को मालूम होता तो वो ज़रूर सवाल करता कि अपने मुल्क़ में अम्बानी-अडानियों की इच्छा के बिना कोई फैसला क्यों नहीं होता? आम आदमी को मालूम होता तो वो ज़रूर ज़ुर्रत करता, ये पूछने, कि इस देश के प्राकृतिक संसाधन या ज़मीन पर पहला हक़ अम्बानीयों-अडानियों जैसों का क्यों है? आम आदमी को, मोदी और मनमोहन जैसे लोग ये कभी नहीं बताते कि अम्बानी-अडानी जैसों की जेब में भारत के मोदी और मनमोहन क्यों पड़े रहते हैं? सोनिया गांधी के दामाद, रॉबर्ट वाड्रा, अचानक बहुत बड़े प्रॉपर्टी डीलर बन गए। करोड़ों-अरबों कमा बैठे। कैसे? मोदी पैटर्न पर। हरियाणा के मुख्यमंत्री हुड्डा और गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी में फ़र्क़ सिर्फ इतना भर रहा कि मोदी ने विकास के नाम पर अम्बानियों-अडानियों जैसों को एकतरफा बेतहाशा अमीर बनने की छूट दी और हुड्डा ने "गुजराती" विकास की तर्ज़ पर, हरियाणा में "ज़मीन बांटों" अभियान के तहत DLF और वाड्राओं को "विकास-पुरुष" बनने का मौक़ा दिया।
किसी भी देश के विकास में उद्योग-धंधों की स्थापना का अहम योगदान होता है। पर इस तरह के विकास में समान-विकास की समान दर की अवधारणा अक्सर बे-ईमान दिखती है। ऐसा तब होता है जब देश-प्रदेश के "भाग्य-विधाता" हिडेन एजेंडे के तहत निजी स्वार्थ की पूर्ति में लग जाते हैं। यही कारण है कि अन्ना-आंदोलन और केजरीवाल जैसों की पैदाइश होती है। हिन्दुस्तान में 2012-2013 के दौरान पनपा जनाक्रोश, संभवतः, इसी एक-तरफ़ा विकास की अवधारणा के खिलाफ था। एक तरफ देश में महंगाई-हताशा-बेरोज़गारी चरम सीमा पर और दूसरी तरफ, उसी दरम्यान, विकास के नाम पर अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं-DLF जैसों की दौलत, अरबों-खरबों में से भी आगे निकल जाने को बेताब। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही वक़्त में मुट्ठी भर लोगों की दौलत बेतहाशा बढ़ रही हो और आम आदमी, महंगाई-हताशा-बेरोज़गारी का शिकार हो?
अन्ना-आंदोलन या केजरीवाल जैसों का जन्म किसी सरकार के खिलाफ बगावत का नतीज़ा नहीं है। ये खराब सिस्टम के ख़िलाफ़ सुलगता आम-आदमी का आक्रोश है जो किसी नायक की अगुवाई में स्वस्थ सिस्टम को तलाश रहा है। इसी तलाश के दरम्यान कभी केजरीवाल तो कभी मोदी जैसे लोग नायक बन रहे हैं, जिनसे उम्मीद की जा रही है कि महंगाई-हताशा-बेरोज़गारी के लिए ज़िम्मेदार अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं-DLF पर रोक लगे। लेकिन मामला फिर अटक जा रहा है कि अम्बानी-अडानियो -वाड्राओं-DLF ने विकास का लॉलीपॉप देकर मोदी सरीखे नायकों को सिखा रखा (डरा रखा) है कि आम आदमी को बताओ कि ये मुल्क़ अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं-DLF की बदौलत चल रहा है। इस मुल्क़ का पेट, अम्बानी-अडानियो-वाड्राओं-DLF की बदौलत भर रहा है। ये देश अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं-DLF के इशारों पर सांस लेता है। पिछले 10 साल से केंद्र में मनमोहन सिंह और गुजरात के मोदी आम-आदमी को यही बतला कर डरा रहे हैं।
खैर, कुछ भी हो पर इतना ज़रूर है कि मुट्ठी भर अम्बानी-अडानियो-वाड्राओं-DLF से ये देश परेशान है। सतही तौर पर गुस्सा किसी पार्टी विशेष के ख़िलाफ़ है मगर बुनियादी तौर पर ये आक्रोश अम्बानियों-अडानियों-वाड्राओं-DLF के विरोध में है। आर्थिक सत्ता का केंद्र तेज़ी से सिमट कर मुट्ठी भर जगह पर इकट्ठा हो रहा है। मुट्ठी भर अम्बानी-अडानियो-वाड्राओं-DLF, देश के करोड़ों लोगों का हिस्सा मार कर अपनी तिजोरी भर रहे हैं और विकास की "फीचर फिल्म" के लिए मोदी या राहुल गांधी जैसे नायकों को परदे पर उतार रहे हैं। ये नायक अपने निर्माता-निर्देशकों और स्क्रिप्ट राइटर्स के डायलॉग मार कर बॉक्स ऑफिस पर अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं-DLF की रील फिल्म हिट कर रहे हैं। मगर रियल फिल्म? पब्लिक चौराहे पर है। कई सौ साल तक ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी झेलने के बाद आज़ाद हुई, मगर एक बार फिर से हैरान-परेशान है। उम्मीदों के नायकों ने समां बाँध दिया है लिहाज़ा उम्मीद, फिलहाल, तो है। मगर टूटी तो? क्रान्ति असली "खलनायकों " के खिलाफ। इंशा-अल्लाह ऐसा ही हो।
नीरज…..'लीक से हटकर।' संपर्कः [email protected]