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अमरीका की दादागिरी का विरोध नितांत आवश्यक है

महाबली अमरीका का अन्य सार्वभौम देशों में हस्तक्षेप करने का बहुत पुराना रिकॉर्ड है. वह आर्थिक- सामरिक हस्तक्षेप तो करता ही है उन देशों के सम्मान और स्वाभिमान की भी धज्जियां उड़ा देता है. भारत के तमाम नेताओं जिसमें स्व इंदिरा गांधी से लेकर जॉर्ज फर्नांडिस, प्रफुल्ल पटेल, आजम खान, और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलम भी शामिल हैं को अमरीका द्वारा अपमानित होना पड़ा है. 
महाबली अमरीका का अन्य सार्वभौम देशों में हस्तक्षेप करने का बहुत पुराना रिकॉर्ड है. वह आर्थिक- सामरिक हस्तक्षेप तो करता ही है उन देशों के सम्मान और स्वाभिमान की भी धज्जियां उड़ा देता है. भारत के तमाम नेताओं जिसमें स्व इंदिरा गांधी से लेकर जॉर्ज फर्नांडिस, प्रफुल्ल पटेल, आजम खान, और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलम भी शामिल हैं को अमरीका द्वारा अपमानित होना पड़ा है. 
हमारे राजनयिकों और अन्य नागरिकों को भी अक्सर अपमानित होना पड़ता है. पूर्व में भी दूतावास की एक वरिष्ठ राजनयिक को जांच के बहाने अपमानित किया गया था. देवयानी खोब्रागडे उसका अपवाद नहीं हैं. अमरीका की जघन्य बर्बरता का इतिहास उसकी ऐसी अनेक सोची समझी क्रूर हरकतों से भरा पड़ा है.
 
एशियाई अफ्रीकी और लातिनी अमरीकी देश उसके आसान शिकार होते हैं. वह उन्हें लगातार अपमानित करता रहा है. यद्यपि क्यूबा और ब्राजील से देशों ने उसे मुंहतोड़ जवाब दिया है लेकिन अमरीकी बेशर्मी और गुंडागर्दी की कोई सीमा नहीं. उसके पाप कितने घृणित हैं विगत में इसके अनेकों उदहारण हैं. अमरीका ने १६ जूलाई सन १९४५ ईसवी को परमाणु बम का पहला परीक्षण किया इसका उददेश्य जापान पर परमाणु बमबारी की तैयारी करना था. जापान उस समय यूरोप में दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बावजुद अमरीकी बम्बारियों का डट कर मुकाबला कर रहा था और उसने अमरीका को भारी नुकसान भी पहुंचाया था. अमरीकी सरकार ने पहले परमाणु परीक्षण की सफलता के बाद जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर परमाणु बमबारी की और अपने अमानवीय अपराधों से इतिहास रच दिया.
अफगानिस्तान के बाद अमेरिका रासायनिक हथियार और अलकायदा को मदद करने के नाम पर इराक को तबाह कर दिया और राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी दे दी. जून 2013 में हॉन्गकांग स्थित एक होटल में स्नोडन ने लंदन के एक समाचार पत्र गार्जियन को एन.एस.ए से संबंधित अत्यधिक गोपनीय दस्तावेज उपलब्ध कराये. गार्जियन ने इन सूचनाओं को एक श्रृंखला के रूप में सार्वजनिक किया. जिसमें अमरीका और यूरोप के जासूसी कार्यक्रम इंटर्सेप्ट, प्रिजम और टेम्पोरा से जुड़ी जानकारियां शामिल थी. इससे साफ पता चलता है कि अमरीकी संस्था एन.एस.ए ने कुछ वर्षों में गूगल, एपल, फेसबुक, याहू जैसी शीर्ष इंटरनेट कम्पनियों पर अपना नियंत्रण कायम किया है और इन कम्पनियों का इस्तेमाल करके प्रिज़म जैसे कार्यक्रमों के द्वारा दुनिया भर के उपभोक्ताओं की गुप्त जानकारीयां हासिल की.
 
अमरीका एन.एस.ए और सी.आई.ए. जैसी संस्थाओं के जरिये इंटरनेट और दूरसंचार विभाग के माध्यम से पूरे विश्व की गुप्त जानकारी हासिल कर रहा है. इन गुप्त जानकारियों में विभिन्न देशों के नेताओं और राजनयिकों के निजी जिंदगी के आपराधिक रिकार्ड भी हैं ताकि वह मौका पड़ने पर इनकी बाहें मरोड़ सके और इनसे मनचाहे समझौतों पर हस्ताक्षर करवा सके. इसके अलावा किसी देश के रक्षा संबंधी दस्तावेज हासिल कर उसके खिलाफ कार्यवाई की रणनीति बनाना भी इसका एक हिस्सा है. इन हथकंडों से वह दुनिया पर प्रभुत्व स्थापित करने का सपना देख रहा है.
स्नोडन ने अमरीका द्वारा इराक, अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप के पीछे छिपी उसकी मंशा का भी भंडाफोड़ किया और यह बताया कि अमरीका कितनी चालाकी से यह सब विश्व शांति स्थापना की आड़ में करता है. सन् 2003 में इराक के खिलाफ युद्ध प्रशिक्षण के दौरान मिले अनुभवों से उसने बताया कि अमरीकी सैनिकों को अरब के लोगों की मदद करने की जगह उन्हें मारने के लिये प्रशिक्षण किया जाता है. यह अमरीका के साम्राज्यवादी मंसूबो को दर्शाता है जो वह इन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर कर रहा है. 
इन खुलासों से ये तो साफ है कि बुश की जासूसी करने वाली नीतियों को ओबामा ने हूबहू नकल किया है. सी.आई.ए के जरिये अमरीका दुनिया के ईमानदार नेताओं की जासूसी करने और उन्हें रिश्वत देने या उनकी हत्या करवाने का काम करता है. ऐसा संदेह है कि वेनेज़ुएला के सच्चे नेता ह्यूगो शावेज को इलाज के दौरान कैंसर की दवा देने का काम इसी संस्था द्वारा किया गया था. जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गयी. दूसरी और एन.एस.ए दुनिया की सबसे गोपनीय संस्थाओ में शीर्ष पर कायम है. 
एक आंकड़े के अनुसार इसका एक केन्द्र एक दिन मे ईमेल या दूरसंचार विभाग से दुनिया की एक अरब गुप्त जानकारी हासिल करता है और इसके 20 ऐसे केन्द्र लगातार काम करते है. जब बोलिविया के राष्ट्रपति एवो मोरालेस मास्को से अपने देश जा रहे थे, तो यूंरोप मे उनके हवाई जहाज को उतारकर तलाशी ली गयी, कि कही उसमें छिपकर स्नोडन ना भाग रहे हों.
तथाकथित आतंक के खिलाफ युद्ध अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का एक मंत्र है. यह दुनिया भर में सैन्य रूप से अमरीकी आधिपत्य को तो जायज ठहराता ही है, साथ ही अमरीकी हथियार निर्माताओं के लिए बाजार भी पैदा करके देता है. आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के काम आता है. पाकिस्तान सहित विभिन्न देशों को इस श्रेणी से सहायता प्रदान की जाती रही है. युद्धक सामान बनाने वाली कंपनियों ने अमरीकी राज्यतंत्र पर कब्जा कर लिया है, इसलिये दुनिया भर में युद्ध होते रहे हैं. शीत युद्ध के दौर के सबसे भीषण सैन्य संघर्षों में से एक वियतनाम युद्ध (1 नवंबर 1955 – 30 अप्रैल 1975) में एक तरफ चीन और अन्य साम्यवादी देशों से समर्थन प्राप्त उत्तरी वियतनाम की सेना थी तो दूसरे खेमे पर अमेरिका और मित्र देशों के साथ लड़ रही दक्षिण वियतनाम की सेना.
वियतनाम युद्ध के चरम पर होने और अमेरिका और मित्र देशों की सेना की भीषण मारक क्षमता को भली भांति जानते हुए भी 'लाओस' ने अपनी धरती उत्तरी वियतनाम की सेना के लिये मुहैया करा दी. यह अहंकारी अमेरिका को मंजूर नहीं हुआ.
इस निर्णय ने लाओस के भविष्य को बारूद के ढेर के नीचे हमेशा हमेशा के लिये दबा दिया. अमेरिका की फौज को एक छोटे से देश लाओस के इस निर्णय पर गुस्सा आ गया था. उत्तरी वियतनाम की सेना और छोटे से देश लाओस को सबक सिखाने के लिए अमेरिकी सेना ने यहां सबसे भीषण हवाई हमले की योजना बनाई. बस फिर क्या था मौके की ताक में बैठी अमेरिका की वायुसेना ने दक्षिण पूर्व एशिया के इस छोटे से देश लाओस पर इतने बम गिराए जितने कि अफगानिस्तान और इराक पर भी नहीं गिराए गए. लाओस में वर्ष 1964 से लेकर 1973 तक पूरे नौ साल अमेरिकी वायुसेना ने हर आठ मिनट में बम गिराए. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार नौ सालों में अमेरिका ने लगभग 260 मिलयन क्लस्टर बम वियतनाम पर दागे हैं जो कि इराक के ऊपर दागे गए कुल बमों से 210 मिलियन अधिक हैं.
लाओस में अमेरिका ने इतने क्लस्टर बम दागे थे कि दुनिया भर में इन बमों से शिकार हुए कुल लोगों में से आधे लोग लाओस के थे. अमेरिका द्वारा लाओस पर की गई बमबारी को लेकर हुए खुलासों के अनुसार अमेरिका ने नौ सालों तक प्रतिदिन 2 मिलियन डॉलर सिर्फ और सिर्फ लाओस पर बमबारी करने में ही खर्च किए थे. फिर 1971 में हो ची मिन्ह के नेतृत्व में वियतनाम की जनता ने अमरीकी साम्राज्यवाद को उसकी हैसियत दिखा दी थी, अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके सामाजिक आधार को गहरी कुण्ठा से भर दिया था जिसे दुनिया वियतनाम ग्रन्थि (वियतनाम सिण्ड्रोम) के नाम से जानती है. 
 
अमरीका इस हार को कभी पचा नहीं सका और इसी कुंठा के तहत उसने तमाम अन्य देशों को अपना शिकार बनाया लेकिन अब वहां अन्य देशों में तेल और खनिज सम्पदा का भीषण दोहन भी शामिल था.
अफगानिस्तान के बाद अमेरिका ने रासायनिक हथियार रखने और अलकायदा को मदद करने के नाम पर इराक को तबाह कर दिया और राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी दे दी. अमरीकी साम्राज्यवाद ने जब इराक पर आधिपत्य जमाने के लिए आक्रमण किया तो उसके कई मन्सूबे थे. पहला, इराक के ऊर्जा-स्रोतों पर एकाधिकार कायम करना. दूसरा, इराक को स्प्रिंग बोर्ड बनाकर भूमध्यसागर के दोनों ओर के तथा मध्य एशिया के ऊर्जा भण्डारों पर एकाधिकार कायम करना. उसका तीसरा मन्सूबा था, अपनी आधुनिकतम उन्नत तकनीक और सामरिक शक्ति-जैविक हथियारों, क्षेत्रीय पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले छोटे नाभिकीय हथियारों, अत्याधुनिक इलेक्ट्रानिक सामरिक हथियारों से लदे विमानवाही पोतों (एयर क्राफ्रट कैरियर) और पनडुब्बियों का नग्न प्रदर्शन और इस्तेमाल करके पूरी दुनिया पर आतंक का राज्य कायम करना, जिसमें साम्राज्यवादी समूह के भीतर उसके विरोधी-फ़्रांस, जर्मनी और रूस तथा इच्छुक सहयोगी-ब्रिटेन, इटली इत्यादि भी आते हैं. शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के बाद मध्य एशिया में अजरबैजान, काजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान, जार्जिया, युक्रेन आदि नव स्वतंत्र देशों का जन्म हुआ. यहां एक लाख मिलियन बैरल से अधिक दोहन योग्य तेल भण्डार है. अमेरिका सहित पश्चिमी देश इन तेल भण्डारों के दोहन के लिए व्यग्र हो उठे. फलतः अमेरिका और पश्चिमी योरोप की अनेक तेल कम्पनियां इस ओर दोड़ पड़ी, जिनमें प्रमुख थीं मोबिल, शेवरान, यूनोकल, टेक्सको, एजिप, टोटल, स्टेट आयल, ब्रिटिश, पेट्रोलियम और शेल आदि. अब प्रारंभ हुई तेल कूटनीति. इराक समस्या, ईरान और रूस के साथ अमेरिकी कटुता, अफगान युद्ध, इस्लामी आंतकवाद की समस्याएं बहुत कुछ इसी तेल राजनीतिक धूर्तता का परिणाम है . तालिबान का जन्म वास्तव में तेल दोहन की अमेरिकी रणनीति का भी एक हिस्सा था जिसके गंभीर दुष्परिणाम अमेरिका और पाकिस्तान को आज भुगतने पड़ रहे हैं.
कुछ मध्य पूर्व एशियाई देश अमरीका के पिछलग्गू रहे हैं. अमरीका जैसी महाशक्तियों ने इन देशों की इस मूलभूत कमजोरी का बड़ा लाभ उठाया है. इन देशों को आर्थिक, सैनिक और शस्त्रों की सहायता अमरीकी राजनीति और रणनीति के माध्यम रहे हैं. यह बात दीगर है कि इस कुचक्र में फंसे सहायता-प्राप्त देश अपने निर्णय की स्वतंत्रता खो बैठते हैं. परिणामत: उनमें एक अबाध हस्तक्षेप प्रारम्भ जाता है. एशियाई देशों का वर्तमान काल इस तरह के हस्तक्षेप के उदाहरणों से भरा पड़ा है. संधिबद्ध देश अपनी आंतरिक और बाहरी राजनीति में एक लंबे अरसे से अमरीकी हस्त्तक्षेप के शिकार रहे हैं. अनुदान और ऋण भी साम्राज्यवादी देशों द्वारा नवोदित सर्वभौम राज्य की नीतियों को प्रभावित करने का एक और साधन होते हैं. सहायता कार्यक्रम के अंतर्गत दी गई धनराशि का अधिकांश मामलों में देशों के सत्तारूढ़ हलकों को राजनीतिक घूस के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं. यह बात सर्वविदित है कि सन् १९६५ में भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन पश्चिमी देशों के दबाव के लेकर ही था. एशिया,अफ्रीका और लातीनी अमरीका में उपनिवेशवाद तो समाप्त हो गया है किंतु ये देश इस व्यवस्था की व्यूह रचना से अभी पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाए हैं. इन देशों की अर्थव्यवस्था भी भूतपूर्व औपनिवेशिक चंगुल से मुक्त नहीं हुई है. इसका पूरा लाभ साम्राज्यवादी अमरीका लगातार उठता रहा है. उसके इस शोषण के विरोध में आने की हिम्मत किसी की नहीं हुई. सद्दाम हुसैन ने अमरीका से वैर लिया और खत्म कर दिए गए. भारत और पाकिस्तान अमरीकापरस्त आर्थिक नीतियों के कायल रहे हैं. पाकिस्तान तो अमरीका के ऊपर अत्यधिक निर्भर है. ऐसे में अमरीका का वैचारिक और मानसिक आधिपत्य इन देशों की सत्ताओं पर सदैव रहता है. तब अमरीका से बराबर का सम्बन्ध होने की और उसके द्वारा अपमानित न होने की गुंजाईश कम ही बची रहती है. लेकिन अमरीका की इस दादागिरी का विरोध नितांत आवश्यक है. बल्कि विश्व के अन्य मित्र देशों को भी इसके लिए विश्वास में लेने की आज महती आवश्यकता है.
 
शैलेन्द्र चौहान 
07838897877
 
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