आओ-आओ, नाटक देखो। नाटक देखो। नाटक देखो, जी। यह आवाज किसी नाटक के मंच, सिनेमा के परदे से या फिर किसी ध्वनि प्रदूषण वाले माइक से नहीं बल्कि कनाट प्लेस के सौ साल पुराने ओडियन सिनेमा के सामने जुटे समवय लडके-लडकियों की झूंड से आ रही है। संवेद आवाज लगाने वाले दस-बारह तमाशाईयों के हावभाव में जबरदस्त उत्साह हैं। देखते देखते पहली जनवरी के स्याह सर्द रात में ड़ेढ दो सौ दर्शक जमा हो जाते हैं। पहले तो समझ आता है कि काले लिबास वाली युवा टोली सिनेमा जाने वालों से एतराज जताने पहुंची हैं और कहने आई हैं कि मनोरंजन के लिए कभी-कभार मंडी हाउस भी जाया करो। नाटक करने वालों का प्रोत्साहन किया करो। नाटक बचेगा, तो सिनेमा बढ़ेगा। इतना भर पैगाम होता तो भी गलत नहीं था।
जल्द ही साफ हो गया कि ये सिनेमा का विरोध नहीं। सीटियां बजने लगी, रस रसिक और रसिया की बातें हुईं। न जाने कैसे समां बंधा और मामला छिछोरे टोंटबाजी, छेडछाड, भ्रूण हत्या और बालात्कार तक पहुंच गया है। फिर जबरदस्त विरोध हुआ। नौटंकी से हिल्कोर भरा गया। बहुरुपियों ने कहा- नींद से जागो, उठो और समाज को दुर्दशा से बचा लो। मारक पैगाम के साथ नाटक वालों ने साफ किया कि इसके लिए वो पैसा नहीं चाहते। किसी एनजीओ या राजनीतिक दल से उनका वास्ता नहीं। समझदारों को समझा गए कि वो अरविन्द केजरीवाल के लोग नहीं हैं। पर्चे बांटते हुए आग्रह करते रहे कि उनको समाज में मूल्यों की बहाली वाले नाटक के लिए एनसीआर में कहीं भी बुलाया जा सकता है।
फिर खुद का परिचय देने के बजाए निर्देशक अरविन्द गौड़ का तार्रूफ करा दिया, जो वहां नहीं हैं। बताया कि वो अस्मिता थियेटर ग्रुप से हैं। प्रतिभावानों का खुद के बजाय अरविन्द गौड़ से अपनी पहचान कराने वाली बात अटक गई। पूछने पर संकोच और झेंप के साथ कास्टिंग कलाकार नाम बताने से हिचकते हैं। अक्समात लगा कि यह प्रतिभावान की नहीं बल्कि गुलामों की टोली है। यह आम आदमी पार्टी के कामकाज में भी अटकती है। सारा श्रेय आईआईटी से निकले नायक को दी जाने लगी है। आम आदमी में संशय है कि अगर नायक को कुछ हो गया, तो सारा ख्वाब धरा का धरा रह जाएगा। हिम्मत से बाहर निकलने का हिसाब उनको देना होगा जिनकी खिलाफत हो रही है।
नुक्कड़ का मामला हो या दिल्ली सरकार का सुधार का पूरा मामला दस जनपथ की तरह अरविन्द सेंट्रिक होता जा रहा है। यह खतरनाक है। इससे बचना चाहिए। इसके लिए माहौल से निकल रहे नायकों को होश हवास में रहना होगा। दरसल दुर्दशा की इंतहा हो चुकी है। हम ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां इंसानियत को बचना है, तो हरेक को सुधारना होगा। सुधार माहौल का न तो मोहताज हो सकता है और न ही एक नायक के आसरे मकाम तक पहुंच सकता है। एक के सुधरने से कुछ नहीं होने वाला। नायक में सुधार सिर्फ उसका सुधार है। ऐसे में सुधार के अवलंबदार बन रहे, माहौल बनाने, तरंग पैदा करने में लगे अरविन्द गौड़ को यह शिद्दत से सोचना चाहिए। अरविन्द केजरीवाल को कंधे पर उठाकर घुमने और सिर पर “मैं केजरीवाल हूं” की टोपी पहनने और पहनाने वाले को भी समझना होगा। जबतक अपने अपने स्तर पर सुधरने की पहल नहीं होगी, तालाब की जमी काई खत्म नहीं होगी।
एक बात और। यह सुधार का साल है। ज्योतिष में नहीं अपना यकीन सकारात्मकता में है। फिर भी संयोग देखिए। 1947 से 2014 के कैलेन्डर की तारीख और दिन हू-ब-हू मेल खाती है। ज्योतिषी के जानकार का कहते हैं साल की शुरूआत और अंत बुधवार से होना शुभ है। बुध बुद्धि और विवेक के प्रदाता ग्रह हैं। तो बुधवार के दिन से शुरू हुए 2014 की नींव ठोस है। यह ठोसाकार 2013 की आखिरी महीने में देश से वीआईपी कल्चर खत्म करने के सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले से बना है। सुप्रीम कोर्ट के दस दिसंबर के फैसले से दो दिन पहले आठ दिसंबर को सुधार के समर्थन में दिल्ली की जनता की राय मतगणना से जाहिर हो चुकी थी। 2013 को सकारात्मक परिणति तक पहुंचाने में 2011 के रामलीला आंदोलन 2012 में नई पार्टी के गठन का योगदान था। उससे पहले के साल में भ्रष्टाचार और अनैतिकता के बोलबाले से कायम नकारात्मकता ने मौजूदा परिस्थिति बनाने में योगदान किया है। मतलब अवश्यसंभावी सुधार की जरूरत को जाहिर करते हुए हमने क्रमवार तरीके से 2014 में प्रवेश किया है। साल की शुरूआत का माहौल, तरंग और तरन्नुम कुछ वैसा ही है जैसा 1947 के आगाज के वक्त रहा होगा।
ऐसे में राजनीति पार्टी में शामिल हों ना हों पर आत्मसुधार के माहौल को गति देने के अभियान में लगना चाहिए। जिस तरह हममें से कई लोग 1947 के बदलाव में अपने पितामह के योगदान को नहीं महसूस कर निराश होते हैं। हो सकता है हमारी पीढियां हमें भी 2014 की भूमिका में तलाशने की कोशिश करें। उनका पूछना लाजिमी हो सकता है कि 2014 में जब मूल्यों के प्रस्थापना का माहौल था, तो हम क्या कर रहे थे। अगर इसी तरह का आभामंडल बना रहा तो हमारी पीढी के अरविन्द गौड़ और अरविन्द केजरीवाल ने अपना काम कर लिया है। इंतजाम कर लिया है कि उनकी पीढियां उनके होने पर गौरवान्वित महसूस करें। सोचने का वक्त है, इस संदर्भ में हमने क्या किया? ऐसा नहीं है कि हमारा वजूद सिर्फ उनके अनुगामी बनने से है। बल्कि सकारात्मक आबोहवा मे अपने-अपने तरीके से हस्तक्षेप किया जा सकता है। यह गुंजाईश बन आई है कि खुद को परिस्थिति का गुलाम नहीं समझा जाए। सुधार की तरंग को हिल्कोरने के लिए अहसास किया जाए कि हर इंसान स्वतंत्र पैदा होता है। स्वतंत्रता से इंसानियत को ऊंचाई देने में लगा जाए।
लेखक आलोक कुमार ने कई अखबारों और न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के दिल्ली में मीडिया सलाहकार रहे. कुल तेरह-चौदह नौकरियां करने के बाद आलोक काफी समय से समाज सेवा, पर्यावरण सक्रियता, मुक्त पत्रकारिता की राह पर हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.