Arvind K Singh : भड़ास फार मीडिया के पांचवीं वर्षगांठ पर मेरा भी जाना हुआ… शानदार आयोजन जिसमें मुझे तमाम ऐसे साथी मिले जो मेरे प्रेरक रहे हैं और भाई आनंद प्रधान जैसे पुराने मित्र भी मिले… आनंद प्रधान और कई अन्य वक्ताओं के ओजस्वी भाषण मुझे पसंद आए.. इस आयोजन के लिए भाई यशवंत और उऩकी टीम को बहुत बधाई और शुभकामनाएं… लेकिन उसी मौके पर श्री मनीष सिसौदिया ने मीडिया को लेकर बहुत सही गलत बातें कहीं… बहुत नकारात्मक छवि दिखाने की कोशिश की.. उनकी सारी बातें सुनीं..मन मसोस कर रह गया.
मीडिया घरानों का कारपोरेटीकरण केवल उन संस्थाओं की नीतिगत देन नहीं है, उसमें दलाल पत्रकारों का बड़ा योगदान है… लेकिन ऐसे दलालों की संख्या सीमित है.. इनकी करनी को ही पत्रकारिता मान लेना अन्याय है… मनीष जी अब राजनीति में पांव रख चुके हैं और उनकी पत्रकारिता की उम्र भी सीमित रही है.. किसी एक संस्थान के अनुभव के आधार पर पूरी मीडिया पर उंगली उठाना ठीक नहीं… उनको भारत की मीडिया को समझने के लिए पहले पड़ोसी देशों यानि नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान और बंगलादेश की मीडिया की हालत को समझ लेना चाहिए… भारत में आज भी किसी पत्रकार के पास काम करने की गुंजाइश है.. एकतरफा आलोचना ठीक नहीं…आज मीडिया की बदौलत ही आम आदमी पार्टी खड़ी है.
रही बात ऐसे आंदोलनों के जनाधारों की..तो 1987 में मेरठ का किसान आंदोलन कवर करने पूरी दुनिया की मीडिया पहुंचा था… हमें लगता था कि भारत में नयी क्रांति आ रही है किसान उठ खड़ा हुआ है… लेकिन हालत यह हो गयी कि उसी के कुछ साल बाद ही भारत में किसानों की आत्महत्याएं शुरू हो गयीं… पत्रकार राजनेता बनें इसमें बुराई नहीं, लोकतंत्र में राजनीति के लिए सबको खुली छूट है… लेकिन सीमित जानकारी के आधार पर पत्रकारिता की गलत तस्वीर पेश करना एकदम ठीक नहीं है.. इस मसले पर मैं उनसे बहस करने के लिए तैयार हूं… मनीषजी चाहें तो मैं इस मसले पर उनसे बहस को तैयार हूं.. यह जानकारी देने के साथ कि राजनीति में आने के लिए मेरे पास थाली में परोसे मौके आए लेकिन मैंने पत्रकार बने रहना ही पसंद किया.
राज्यसभा टीवी के वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह के एफबी वॉल से साभार.
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