चार साल पहले जब भड़ास4मीडिया डोमेन नेम बुक कराया था तब मैं अपने एक मित्र की नई शुरू हुई मोबाइल वैल्यू एडेड सर्विस कंटेंट प्रोवाइडर कंपनी में वाइस प्रेसीडेंट के पद पर था. तीस पैंतीस हजार के आसपास तनख्वाह थी. उसके पहले अमर उजाला, दैनिक जागरण और आई-नेक्स्ट अखबारों में करीब बारह-तेरह साल तक नौकरी कर चुका था, ट्रेनी पद से लेकर एडिटर पद तक की. उसके भी पहले सीपीआईएमल और इसके छात्र संगठन आइसा व कल्चरल फ्रंट जन संस्कृति मंच में करीब पांच साल तक सक्रिय रहा, कभी सपोर्टर के रूप में तो कभी होलटाइमर के रूप में. पत्रकारिता में आने के बाद समाज-देश बदलने के आदर्श और शराबखोरी की शुरुआत से उपज रही सनक का जो काकटेल बना तो इसने रुकने का नाम नहीं लिया. इमानदारी, आदर्श, कठिन मेहनत, दुस्साहस, अराजकता, लफंगई-लंठई… आदि के छोरों-दायरों में घूमता-तैरता एक ऐसा वक्त आया जब मेरे लिए मेनस्ट्रीम मीडिया में जगह नहीं थी.
रेवेन्यू के फेर में दिन प्रतिदिन पैसेवालों के तलवे चाटती मीडिया में न मैं एडजस्ट करने को तैयार था और न यह मीडिया मेरे जैसे आंदोलन से निकले युवक के सरोकार-आग्रह-दुराग्रह को मानने-अपनाने को राजी. नतीजतन एक दिन ऐसा आया कि मैं दिल्ली में आने के छह सात महीने बाद बिलकुल सड़क पर था. पेट पालने के वास्ते मीडिया से मजबूर मोबाइल कंटेंट प्रोवाइडर कंपनी में शिफ्ट करना पड़ा. कंटेंट के लिए तलवार उठाकर लड़ने वाला बंदा अचानक एक दिन मार्केटिंग करने निकल पड़ा, इस शहर से उस शहर. छह महीने में मार्केटिंग की शुरुआती एबीसीडी समझ में आ गई तो साथ साथ यह भी समझ में आ गया कि अपन नौकरी चाकरी करने लायक बने ही नहीं हैं. मक्खन मैं भी लगाता था / हूं, लेकिन बहुत देर तक नहीं, कोई मक्खन को मजबूरी समझ बैठे तो सारा मक्खन वापस खींचकर उसे दक्खिन भेजने में देर नहीं लगाया. इस अंतर्विरोधी स्वभाव और अबूझ उद्दंडता के कारण मैं खुद के लिए पहेली बनता गया. पिता, घर, परिवार, परिजन… सब पहले ही मुझे कम्युनिस्ट पार्टी होलटाइमर हो जाने के कारण अपने चित्त से उतार चुके थे, और मैं उनको. सो, किसी तरह का माया मोह भी नहीं पलता. पत्नी-बच्चों की जरूरतें उतनी ही हमेशा रहीं जितनी किसी दरिद्रनारायण के परिवार की होती थीं. उनकी तरफ से कोई अतिरिक्त डिमांड व जिद कभी नहीं हुई, सो ख्वाहिश विहीन परिवार के मुखिया के बतौर मेरे पास दुनियावी लिहाज से जिम्मेदार होने लायक कोई वजह नहीं थी. सो सच-झूठ, युद्ध-शांति, भला-बुरा, धर्म-अधर्म, जीवन-मृत्यु आदि के परंपरागत विवादों से दो-चार होते सीखते एक दिन ऐसा आया कि तय कर लिया, अब नौकरी नहीं, जो मन में है उसे करो, बको, निकालो, जो द्वंद्व है उसे प्रकट करो, सुनाओ, चिल्लाओ… और यह सब खुलकर करो, खुलेआम करो, नाम-पता-पहचान के साथ करो….
भड़ास की पैदाइश यहीं से हुई. भड़ास नाम से कम्युनिटी ब्लाग पहले ही बना चुका था. उस प्रयोग के जितने भी अच्छे बुरे अनुभव मिले, वे भड़ास4मीडिया के लिए मजबूत नींव साबित हुए. वर्ष 2008, मई-जुन-जुलाई में स्कूली गर्मियों की छुट्टियों में पत्नी-बच्चे गांव गए तो इधर मैं सब कुछ छोड़कर एक लैपटाप और एक वेबसाइट के जरिए दिन-रात लिखने-अपलोड करने में जुट गया. भड़ास4मीडिया में पेज दर पेज जुड़ने लगे. हिंदी मीडिया इंडस्ट्री के दबे-छुपे सच सामने आने लगे. और मेरे सामने आने लगी एक नई दुनिया, जो नौकर बनकर कभी नहीं दिखी, और न कभी समझ में आई. एक ऐसी दुनिया जिसमें दो तरह के लोग होते हैं. एक पैसे वाले, अर्थात संसाधनों पर काबिज व इसका उपभोग करते लोग. दूसरे संसाधनों के अभाव में ढेर सारे सिद्धांतों, बातों, वादों, दबावों के जरिए जीते-हंसते-गाते-लड़ते-रोते-बेचैन दिखते लोग.
भड़ास4मीडिया के साथ शुरुआती छह महीने बेहद तकलीफ में गुजरे. आर्थिक विपन्नता के उस दौर में आरोप-प्रत्यारोप और दुर्भाग्य के कुछ ऐसे दौर चले, जिसे जीवन में अब मैं कतई याद नहीं करना चाहता और जिसको लेकर कई तरह के प्रायश्चित मेरे मन में अब भी हैं. रोती हुई पत्नी, सहमे हुए बच्चे, अन्न विहीन किचन, दोस्त विहीन मैं… हर पल यातना और संघर्ष का चरम. पर झुकने-दबने का कतई भाव नहीं. यही करना है और सिर्फ यही करना है, न कर सका तो गांव जाकर बाप से लड़कर अपना हिस्सा लूंगा और बोउंगा-काटूंगा. मतलब, दिल्ली में मेरे लिए हालात कुछ इस तरह थे तब जैसे आपके सिर पर पिस्टल लगा दी गई हो व आपके पास सिवाय प्रतिरोध करके बच जाने या मर जाने के अलावा कोई विकल्प न हो. मैंने अकेले अपना काम जारी रखा. झूठ, छल और भ्रम के हर संभव ताने-बाने बुने, और इससे दो-तीन-पांच-दस हजार रुपये इधर उधर से आए तो पत्नी के हाथ में रखा, अन्न खरीदा, घर-गृहस्थी की गाड़ी सरकी. झूठे-सच्चे बहानों के जरिए कर्ज पर कर्ज लेता रहा. और, अपन के आसपास कोई ऐसा भी नहीं था जो बड़ी रकम उधार दे सके, ज्यादा से ज्यादा पांच हजार या दस हजार देने वाले मिले. देहात से शहर आए आदर्शवादी कम अबूझ उद्दंड-बकलंड नौजवान की और कैसी सर्किल बन सकती है.
खैर, छह महीने की अथाह पीड़ा के उस दौर में हजारों खबरें-तस्वीरें आदि भड़ास4मीडिया पर मैंने अकेले अपलोड कर डाले. भड़ास4मीडिया का असर वैसे ही लोगों के सिर चढ़ने लगा जैसे दारू के शुरुआती दो पैग. बेजुबान पत्रकारों को जैसे आवाज मिल गई. बेइमान मालिक-संपादकों को जैसे सांप सूंघ गया हो. पर मैं, इधर-उधर भागता रहा, जीवन जीने के वास्ते, भड़ास4मीडिया चलाने के वास्ते, कुछ पैसे जुटाने के वास्ते. कुछ एक चमत्कारिक किस्म की मदद मिली. चालीस हजार रुपये प्रति माह के हिसाब से एक सरकारी विज्ञापन छह महीने के लिए मिल गया. लगा, जैसे सारा संकट ही दूर हो गया. उस छह महीने की आर्थिक सुरक्षा ने फिर से जिला दिया. उस पैसे ने मुझे, मेरे परिवार को गांव जाने से रोक लिया. भड़ास4मीडिया को बंद होने से बचा लिया. जिस साथी ने वो मदद दिलाई थी, उनका मैं आज भी दिल से आभारी हूं.
उन दिनों ज़िंदगी-मौत से भी जंग लड़ता रहा. रोज किसी न किसी से दिल्ली में लड़ाई होती. धमकियां आती रहती. दिन भर जिन बातों पर गुस्सा होता, रात में शराब पीकर उन कारण बने लोगों से फोन युद्ध में भिड़ जाता. घर का एड्रेस एसएमएस कर देता कि आ, या तो मैं निपटूं या तू निपट, वैसे ही मरा हुआ हूं, मेरा क्या जाएगा, तू सोच. एक आत्मघाती वेदना, चेतना, मानसिकता के साथ, सुसाइडल एप्रोच के साथ भड़ास, दारू और दंगा, तीन कामों में जुटा रहा. आलोक तोमर जैसे बड़े भाई किस्म के साथी मिले जिन्होंने हौसला बंधाया, कंधा दिया, ढांढस बंधाया. कई और वरिष्ठ-कनिष्ठ-समकालीन लोग संपर्क में आने लगे. एक नया कारवां तैयार होने लगा. आर्थिक दिक्कतें आज भी हैं. मुश्किलें उतनी ही आज भी हैं. बस, दिक्कतें-मुश्किलें व्यवस्थित हो गई हैं सो ये रूटीन बन गई हैं, और यही सब सहज लगने लगा है.
इस 17 मई को जब चार साल पूरे हो रहे हैं तो महसूस कर रहा हूं कि इन चार वर्षों में भड़ास ने मुझको अंदर से बिलकुल बदल कर रखा दिया है. कभी कभी लगता है कि मैं अपना जीवन जी चुका हूं. मोक्ष मिल चुका है. कोई सवाल मन में नहीं बचा है. पूरा ब्रह्मांड और इसके ग्रह-उपग्रह-सागर-अंतरिक्ष आदि जिस तरह से एक्जिस्ट कर रहा है, वह बनने-नष्ट होने की एक सतत प्रक्रिया के कारण अस्तित्व में है, और बनना-नष्ट होना इसकी नियति है. बनना सुख देता है, नष्ट होना कष्ट देता है. सुख और कष्ट की सतत प्रक्रिया में मनुष्यों का होना-खत्म होना और इसके बीच का शुभ-अशुभ संघर्ष निहित है. तभी तो जब भी मैं चिकन, मटन, फिश खाता हूं तो लगता है कि हम मनुष्य कितने स्वार्थी हैं जो मनुष्यों के दुख के लिए तो दिन रात रोते कलपते आंदोलित होते रहते हैं लेकिन इन बेजुबान जीवों ने हमारा क्या बिगाड़ा था… इन्हें क्यों पूरी दुनिया के मनुष्य हर रोज उत्सवी अंदाज में पकड़ते, काटते, बनाते, पकाते, खाते हैं. भावुक, मिडिल क्लास वाली बेवकूफी भरी इस थिंकिंग का जवाब अगले ही पल आ जाता है मेरे पास- अरे मूर्ख, यही बनना-कटना, जन्मना-नष्ट होना, हिंसा-अहिंसा तो इस पृथ्वी, इस ब्रह्मांड का आनंद है.
जहां जीवन नहीं है, वहां जीवन की संभावना के लिए हम पगलाए हैं. वहां जीवन की संभावना की चल रही प्रक्रिया पर सतत नजर गड़ाए हैं कि अगर धरती का सिस्टम बनने-नष्ट होने की चल रही और चलने वाली प्रक्रिया में किसी एक दिन पलड़ा नष्ट होने की तरफ ज्यादा झुक जाए तो कुछ लोग नई जीवन भरी किसी दूसरी धरती को तलाश कर ब्रह्मांड के उस नए ग्रह-उपग्रह वाली धरती पर पहुंच जाएं और फिर से वहां नई शुरुआत करें. स्टीफन हाकिंग से लेकर ढेर सारे विज्ञानियों, खगोलविदों, शोधार्थियों को पढ़ने-जानने के बाद समझ में आता है कि दरअसल हममें से ज्यादातर की सोच-समझ-भावना बस वहीं तक है जहां तक उसे हमें अपने संस्कार, माहौल, परिवेश, चेतना के स्तर व पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता के आधार पर निर्मित कर पाते हैं. और, इससे उपजे बौद्धिक नतीजे को हम अंतिम सच मानकर दूसरों से सतत संघर्ष करते रहते हैं. यही संघर्ष विनाश और सृजन दोनों का कारण बनता है.
बेहतर समाज और देश बनाने का जो संघर्ष चल रहा है, वह क्रांति अशांति शांति सब कुछ अपने में समाए है. और, जो सिस्टम फिलहाल झटके हिचकोले के साथ चल रहा है, वह अपने आप में क्रूरता और उदाहरता, हिंसा-अहिंसा, विनाश-सृजन दोनों समेटे है… और इस सिस्टम में उदारता, अहिंसा, सृजन की मात्रा दिन ब दिन कम होती जा रही है, इसलिए क्रूरता, हिंसा, विनाश के शिकार लोग हर दिन ज्यादा चीत्कार अलग अलग फार्मेट्स में कर रहे हैं. बढ़ती हुई क्रूरता, हिंसा, विनाश से कुछ लोगों का फायदा हो रहा है, उनका संसाधनों पर कब्जा बढ़ता जा रहा है, या यूं कहें कि क्रूरता, हिंसा, विनाश इसलिए भी बढ़ाव पर है क्योंकि कुछ लोग सब कुछ कब्जाना पाना हथियाना चाहते हैं… बची हुई उदारता के कारण बहुत से लोगों का सिस्टम में भरोसा बचा हुआ है जिसके कारण आगे भी किसी खास समय तक सिस्टम के एक्जिस्ट करने की संभावना बची हुई है. फिर यह सिस्टम कभी नष्ट होगा, नया सिस्टम बनेगा, समय के साथ उसमें भी तनाव, क्रूरता, हिंसा पैदा होने लगेगी… एक लयबद्ध क्रम है, जिसे हम इतिहासबोध की कमी के कारण ठीकठीक समझ नहीं पाते, अपने समय के सच को ही अंतिम सच मानकर उसके इर्द गिर्द डोलते उतराते चिल्लाते रहते हैं…
अभी परसों ही तो था मार्क्स का जन्मदिन. फेसबुक पर मैंने लिखा- ''महात्मा गांधी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, मदर टेरेसा, ओशो, मार्क्स, कबीर… ये वो कुछ नाम हैं जिनसे मैं काफी प्रभावित रहा हूं. जिनका मेरे जीवन पर किसी न किसी रूप में गहरा असर रहा है या है. इन्हीं में से एक मार्क्स का आज जन्मदिन है. मार्क्स को पढ़-समझ कर मैंने इलाहाबाद में सिविल सर्विस की तैयारी और घर-परिवार छोड़कर नक्सल आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया. मजदूरों, किसानों, छात्रों के बीच काम करते हुए एक दिन अचानक सब कुछ छोड़छाड़ कर लखनऊ भाग गया और थिएटर आदि करते करते पत्रकार बन गया. मार्क्स ने जो जीवन दृष्टि दी, जो बोध पैदा किया, उससे दुनिया समाज मनुष्य को समझने की अदभुत दृष्टि मिली. आज मैं खुद को भले मार्क्सवादी नहीं बल्कि ब्रह्मांडवादी (मानवतावाद से आगे की चीज) मानता होऊं पर जन्मदिन पर मार्क्स को सलाम व नमन करने से खुद को रोक नहीं पा रहा.''
और इसी स्टेटस पर एक साथी की आई टिप्पणी के जवाब में मैंने लिखा- ''मार्क्स का जो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है, उसे अगर ध्यान से समझ लीजिए तो आपको जीवन व ब्रह्मांड का सूत्र पकड़ में आ जाएगा. पूरा ब्रह्मांड, प्रकृति, देश, सिस्टम, समाज, मनुष्य, जीव-जंतु… एक सतत संघर्ष के जरिए पैदा हुए, हो रहे, होंगे, नष्ट हुए, हो रहे, होंगे… सुख दुख की तरह, जीवन मौत की तरह, आग पानी की तरह, हिंसा अहिंसा की तरह ही क्रांति शांति भी है, अच्छी शांति के लिए क्रांति जरूरी है, वह होगी, हमारे आपके इसमें शामिल होने न होने से रुकेगी नहीं क्योंकि जब अशांति ज्यादा होगी तो क्रांति के जरिए लंबी शांति आएगी, उसी तरह जैसे हिंसा और अहिंसा के समुच्चय, संतुलन से ब्रह्मांड का अस्तित्व है… तो, मार्क्स को पढ़कर आप दरअसल जीवन विज्ञान को समझ लेते हैं..''
मैं यहां यह स्पष्ट कर दूं कि किसी भी व्यक्ति और उसके विचार को कट्टरपंथी तरीके से लेने का मैं कतई पक्षधर नहीं हूं. समय, काल-परिवेश और प्रोजेक्ट के हिसाब से चीजें मोडीफाई की जाती हैं. उसी तरह जैसे जिसने जहाज का अविष्कार किया उसने यह फार्मूला नहीं दिया था कि किस तरह पंद्रह हजार किलोमीटर तक मार करने वाली सटीक मिसाइल बनाई जा सकती है. उसने एक रास्ता दिखाया, उसने एक फार्मला दिया. अब उस रास्ते, विचार, फार्मूले की मूल भावना, सूत्र को समझना पकड़ना व उसका विकास करना हमारा काम है.
बहुत सी चीजें समझाई नहीं जा सकतीं. उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होते. शब्द हमारी-आपकी भावनाओं को एक हद तक ही अभिव्यक कर पाते हैं और उसमें एक खतरा भी यह होता है कि उसका अर्थ हर कोई अपने अपने हिसाब से निकाल सकने के लिए स्वतंत्र होता है, तो शायद जो कहने वाला कहना चाहता था, वह ठीक से दूसरों तक कनवे नहीं हो पाता. कुछ कुछ मेरे साथ अब वैसा ही हो रहा है. गद्य-पद्य लिखने का मन नहीं होता. लगता है कि क्या ये बच्चों वाला काम करना. केवल गुनगुनाते घूमते रहने को जी होता है. जैसे, खुद को खुद ही समझा रहा होता हूं कि जब सब कुछ समझ बूझ लिया तो अब काहे को भेड़चाल में चलते हुए मिमियाना हिहियाना गाना-गरियाना चाहते हो बंधु.
मीडिया, पालिटिक्स, ब्यूरोक्रेसी, सिस्टम, जनता…. सब एक बड़े फ्राड का निर्माण लगता है. पहले साफ साफ शोषण था. एक शोषक और दूसरा शोषित. अब यही काम घुमा फिराकर और ढेर सारी किताबों कानूनों के नाम पर सभ्य तरीके से किया जा रहा है. कुछ भी तो नहीं बदला. प्रागैतिहासिक काल से लेकर अब तक हमने कुछ भी नहीं बदला. तकनीक, विज्ञान, विकास आदि के नाम पर जो सामूहिक उन्नति हुई है, उसके बाद भी आज सीन मालिक-नौकर वाली ही बना हुआ है. नौकर कभी दास था, मालिक कभी सामंत था. आज नौकर बुद्धिमान है, मालिक संविधान है. बहुत फर्क नहीं है बॉस. गहरे उतरकर देखिए तो जो लड़ाइयां चलती हुई दिख रही हैं, उन सभी में दांव-घात बस यही है कि जो सिस्टम पर कब्जा जमाए हुए हैं, उनकी जमात में घुसना है, उनमें से कुछ को निकाल फेंकना है. यह काम पहले भी होता था, तलवारों-युद्धों के जरिए. आज थोड़ा साफिस्टिकेटेड तरीके से हो रहा है. हर देश में आंतरिक संघर्ष है. कहीं कम, कहीं गरम. कहीं ज्यादा, कहीं नरम. और, हर देश दूसरे देश को बर्बाद करने के लिए औकता से ज्यादा हथियार, सेना, फौज-फाटा तैयार रखे हुए है, उस स्थिति में भी जब उनके यहां की ढेर सारी जनता भूखों, व कई अन्य कारणों से तड़प तड़प कर मर रही है.
पहले भी यही था. राजा महाराजा ऐश करते थे, युद्ध के साजो सामान बटोरते थे, और, ढेर सारी जनता प्रजा बीमारियों, रोगों, उत्पीड़नों, भूख आदि से मर जाया करती थी. हर समय एक संकट रहा है. और अगर आप इस संकट को संकट के रूप में देखते हैं तो फिर आप संकट में हैं. यह संकट ही इस ब्रह्मांड का उत्सव है. इसी कारण समझदार लोग सबसे बड़े निजी संकट, यानि मृत्यु को उत्सव के रूप में देखते रहे हैं. इससे न डरने की सलाह देते रहे हैं. वे खुद को मानसिक रूप से मृत्यु, जीवन, सुख, दुख, भय, हर्ष से मुक्त कर चुके थे. और यह अवस्था एक लंबे भोग, संघर्ष, हाहाकारी किस्म के सामूहिक जीवन यापन के जरिए आती है. हाहाकारी किस्म का सामूहिक जीवन जरूरी नहीं कि हाहाकार बाहर मचाए, यह हाहाकार अंदर मचता है. कोई बहुत अंतर्मुखी व्यक्ति अपने अंदर हाहाकर समेटे हुए हो सकता है और बाहर उसका प्रकटीकरण बिलकुल भी न हो रहा हो सकता है, या जो प्रकट हो रहा हो सकता है वह हमको आपको सामान्य सहज उदगार लग दिख सकता है. गौतम बुद्ध को क्या हुआ था? ओशो को क्या हुआ था? नानक को क्या हुआ था? कबीर को क्या हुआ था? ढेरों उदाहरण हैं सूफियों संतों बड़े मनुष्यों के जिन्होंने जीवन के एक किसी क्षण में ब्रह्मांड के रहस्य को पहचान लिया था. यह रहस्य और फार्मूला कोई बहुत रहस्यमय नहीं था. उसे एक्सप्लेन करके समझा पाना कठिन है इसलिए नासमझ लोग उसे रहस्य व मोक्ष मान बैठे.
एक खास स्तर की बाहरी आंतरिक परिस्थितियां, जीवनचर्या मनुष्य को मोक्ष की अवस्था में ले जाता है जहां वह समभाव की स्थिति में आ जाता है. अपन कुछ कुछ उसी मोक्ष की ओर अग्रसर हैं. निर्मल बाबाओं और पाल दिनाकरण जैसों की कृपाओं के इस दौर में कोई अगर मोक्ष की बात करे तो उसे सिवाय एक नए फ्राड से ज्यादा कुछ नहीं समझा जा सकता, और ऐसा समझना भी चाहिए क्योंकि मनुष्य की चेतना का कोई सगुण प्रकटीकरण संभव नहीं है और जो प्रकट चेहरा मोहरा शरीर दिखता है उसके जरिए किसी के बारे में बहुत कुछ ज्यादा बताया कहा नहीं जा सकता. इस निर्गुण किस्म के बीतरागी अवस्था में भड़ास4मीडिया का चार साल मनाते हुए यह महसूस कर रहा हूं कि मेरे लिए भड़ास वर्ष 2008 में जितना प्रासंगित था, अब उसी अनुपात में बिलकुल अप्रासंगिक लग रहा है. एक धोखे की तरह है यह जिसको जबरन जी रहा हूं. जाने कब यह चोला भी छूट जाए. फिलहाल तो आइए, इसी बहाने कुछ बतियाते कहते सुनाते हैं. मेरे लिए हो सकता है मुक्ति का रास्ता दिख गया है, लेकिन जानता हूं कि हमारे ढेर सारे जन मुक्त होने के लिए तड़प रहे हैं, लड़ रहे हैं, दिन-रात एक किए हुए हैं.
यह मुक्ति दरअसल और कुछ नहीं, अपने भयों से मुक्ति है, अपने समय और अपने समाज के दबावों-आरोपों से मुक्त होने की मुक्ति है. जब आप मुक्त होकर आगे देखने लगते हैं और थोड़ा ठहरकर धैर्य के साथ देखने लगते हैं तब वाकई दुनिया बच्चों के खेल की तरह नजर आती है… वो ग़ालिब साहब कह भी गए हैं, इसी मुक्ति की अवस्था के दौरान कि… ''बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे''. तो ये जो मेरे जन हैं, जो लड़ रहे हैं, तड़प रहे हैं, उनके साथ हूं, और उनके साथ भी हूं जो रोज कट रहे हैं, पक रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं… और उनके साथ भी हूं जो लुट रहे हैं, रो रहे हैं, उदास हो रहे हैं. कभी भी किसी भी दौर में कोई एक अवस्था नहीं लाई जा सकती, कि सभी खुश रहें, कि कोई उदास न हो. और, कोई भी लड़ाई इसलिए लड़ी भी नहीं जाती कि सभी खुश रह सकें और कोई उदास न रहे. खुशी और उदासी, स्थायी भाव हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व है ही नहीं. इसलिए मार्क्सवादी साथी भी यही कहते हैं कि वे एक बड़े तबके के लिए लड़ रहे हैं, जो फिलहाल उदास है, उसे सुख दिलाना चाहते हैं. संघी साथी भी कहते हैं कि बहुसंख्यक के लिए वे लड़ रहे हैं, जो उनके हिसाब से उदास है, दुखी है. सबके अपने अपने खांचे, सांचे हैं और उसी के हिसाब से दुनिया का ढालना बदलना चाहते हैं.
पर मुश्किल ये है कि दुनिया किसी के बदलने से नहीं बदलती, इसके मूल में ही ऐसा अंतर्विरोध है जो हम सबको खुशी-उदासी, बनने-नष्ट होने की प्रक्रिया में डालकर बदलाव पर चलने को प्रेरित-मजबूर करती रहती है. इसका मतलब कि हम आप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, ऐसा भी नहीं. आप चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि ये जो मनुष्य का शरीर, चोला धारण किया है ना, वह घुमाता रहेगा, चक्कर कटवाता रहेगा. कभी इस छोर तो कभी उस छोर. तो हम लड़ेंगे उदास मौसम के खिलाफ, पर यह समझ कर कि मौसम से उदासी कभी न जाएगी क्योंकि उदासी है तो सुख-खुशी का एहसास है और उसके लिए संघर्ष है. भड़ास4मीडिया के चार साल होने पर आप सभी से अनुरोध है कि अपनी बात जरूर शेयर करें, चाहें वह जितना भी अस्पष्ट, अमूर्त और अव्यक्त किस्म का हो. मुझे अपनी तारीफ और गालियां, दोनों सुनने का लंबा अनुभव रहा है और इन दो विरोधों को सुनते साधते भी शायद आज शंकर टाइप का हो रहा होऊं. जो कुछ लिखा, उसमें जो गलत लगे, उसे मजाक के रूप में लें, भले स्माइली न लगा रखा हो उन जगहों पर, और जो ठीक लगे उसे प्रसाद के रूप में लें 🙂 , यहां स्माइली लगा दिया, एहतियातन :). क्योंकि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी….
आखिर में. इस 17 मई को दिल्ली में भड़ास की तरफ से एक आयोजन है. उसका पूरा फार्मेट अभी डिसाइट नहीं है लेकिन इतना जरूर डिसाइड है कि उस आयोजन में इस समय के देश के जाने माने जर्नलिस्ट, जो दिल्ली से दूर अपना ठीहा जमाकर पूरे देश की पत्रकारिता के लिए एक बड़े संबल बने हुए हैं, आदरणीय हरिवंश जी, अपना एकल व्याख्यान देंगे. विषय डिसाइड नहीं है, लेकिन जो कुछ मेरे जेहन में है, वो ये कि ''यह समय, मीडिया, सत्ता और मनुष्य की मुक्ति'' जैसा विषय हरिवंश जी को दिया जाए, जिन पर उन्हें सुनना मुझे निजी तौर पर अच्छा लगेगा. और, यह दावे के साथ कह सकता हूं कि दिल्ली के बेदिल चकाचौंध में फंसे-अटके पत्रकारों, बुद्धिजीवियों के लिए हरिवंश जी को सुनना जरूर किसी अदभुत अनुभव सरीखा होगा. हरिवंश जी को अभी तक जितना मैंने पढ़ा है, उसके आधार पर कह सकता हूं कि उनको पढ़कर लगता है कि आज कुछ ठीकठाक बौद्धिक खुराक मिला. उससे ज्यादा उनसे मिलकर उन्हें सुनकर लगता है कि आज किसी ठीकठाक आदमी से मिला और सुना. इस आयोजन में एक सूफी म्यूजिकल कनसर्ट भी होगा. कबीर को सुनेंगे हम लोग. एक ऐसा आयोजन होगा, जो निजी तौर पर मुझे सुख देगा, और, कह सकता हूं कि भड़ास को चाहने वालों को भी अच्छा लगेगा. तो आप सभी निमंत्रित आमंत्रित हैं. 17 मई का दिन अपने लिए अलग से रिजर्व कर लीजिए, छुट्टियों के लिए अप्लीकेशन दे दीजिए, दिल्ली के लिए टिकट कटा लीजिए. प्रोग्राम कहां और कब होगा, यह अगले एक दो दिन में डिसाइड हो जाएगा और इसकी आधिकारिक सूचना भड़ास4मीडिया पर अलग पोस्ट के रूप में प्रकाशित कर दी जाएगी.
इतने लंबे भड़ास को आप लोगों ने झेला, इसके लिए दुखी-आभारी दोनों हूं. दुखी इसलिए कि आप शायद दुखी हो गए हों, इसलिए दुख शेयर कर ले रहा हूं, आभारी इसलिए कि आप दुखी नहीं है. भड़ास को लेकर, भड़ास4मीडिया के चार साल होने को लेकर अगर आप कुछ लिखेंगे तो उसे प्रकाशित करने में मुझे खुशी होगी. अपनी बात, बधाई, शुभकामनाएं, गालियां, टिप्पणी… जो भी लिख सकें, [email protected] पर मेल कर दें. आपके सुझावों-आलोचनाओं का आकांक्षी हूं.
जय हो
यशवंत
एडिटर , भड़ास4मीडिया
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