भड़ास4मीडिया के संपादक य़शवंत जी को जेल पहुंचाने में कॉरपोरेट मीडिया घरानों के मालिक और उनके चापलूस कामयाब हो गए हैं क्योंकि समाज में पत्रकारिता के नाम पर अपना धंधा चलाने वालों की बाढ़ आ गई है। यहां सबसे बड़ी निराशा उन आंदोलनकारी पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गतिविधियों से हुई है जो खुद को जनता का रहनुमा बताते फिरते हैं और देश के प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए लाइन लगाए खड़े रहते हैं। वैकल्पिक मीडिया के एक माध्यम के बल पर बड़े से बड़े कॉरपोरेट घरानों और उसके चापलूसों की सच्चाई लाने वाला एक आंदोलनकारी आवाज सलाखों के पीछे पहुंच गया, लेकिन जमीनी स्तर पर एक चूं तक नहीं हुई।
आखिर क्यों? इसके पीछे की वजहों पर मंथन करने का समय आ गया है। कॉरपोरेट घरानों और सरकार की छोटी से छोटी बात पर हल्ला मचाने वाले समाज के ठेकेदार आखिर एक आंदोलनकारी आवाज को बचाने के लिए सड़कों पर क्यों नहीं आ रहे हैं? शायद उन्हें डर है कि उनकी सच्चाई सामने आ जाएगी। लेकिन वे क्यों भूल जाते हैं कि गला-काट इस प्रतियोगिता में कभी वे भी इन कॉरपोरेट घरानों का शिकार होंगे । इतिहास गवाह है कि पूंजी के खेल से कोई भी नहीं बच पाया है। अब तो यह सामान्य बात हो गई है। ऐसे में जनहित में काम करने वाले पत्रकारों को इस बारे में सोचने और उसपर अमल करने का समय आ गया है।
हो सकता है यशवंत जी ने जाने अनजाने में ऐसी किसी वारदात को अंजाम दिया हो जो हमारे विचारों से मेल नहीं खाते हों, लेकिन जनहित में किए गए उनके कार्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। मानता हूं कि उनका जनहित का कार्य समाज के निचले पायदान पर जीने वाले लोगों के लिए प्रत्यक्ष रूप से न हो, लेकिन कॉरपोरेट मीडिया संस्थानों में जिस तरह से जनविरोधी छवि वाले मैनेजरों (स्वयंभू मीडियाकर्मियों) की संख्या बढ़ती जा रही है, उसे समाज के सामने रखने में उन्होंने बड़ा योगदान दिया है जो कहीं न कहीं समाज के निचले पायदान पर जीवन गुजार रहे लोगों से जरूर जुड़ता है।
वैसे भी उन्होंने मीडिया वर्ग में फैले भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और शोषण की तस्वीर जिस तरह से समाज के युवा वर्ग के सामने लाई है, उसकी तुलना में हाल ही में लगाए गए कथित आरोप नगण्य हैं। इन आरोपों की विश्वसनियता भी सवालों के घेरे में है। यशवंत जी ने शोषितों के साथ-साथ मीडिया जगत में प्रवेश करने वाले युवाओं के लिए एक बेहतर विकल्प उपलब्ध कराया, जिसके माध्यम से मीडिया जगत में हो रही हलचलों के बारे में सभी को सूचना हासिल होती है। ऐसे आंदोलनकारी आवाज को बचाने के लिए वैकल्पिक मीडियाकर्मियों के साथ-साथ समाज के बुद्धिजीवियों को सड़क पर उतरने के लिए पहल करनी होगी। क्या आप इसके लिए तैयार हैं? इस बारे में जरूर सोचें।
शिव दास
पत्रकार
(पत्रकार शिव दास ने अपनी यह टिप्पणी भड़ास के पास 5 जुलाई को मेल किया लेकिन तत्कालीन आपाधापी के कारण इसे प्रकाशित नहीं किया जा सका था. अगर आपने भी जुलाई-अगस्त महीने में कुछ लिखकर भड़ास के पास भेजा और उसका प्रकाशन नहीं हो पाया तो उसे फिर से भड़ास के पास [email protected] के जरिए भेज दें. -एडिटर, भड़ास4मीडिया)
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