“इतिहास हमें सिखाता है कि किसी देश को बर्बाद करना है तो सबसे पहले वहां की मातृभाषा को नष्ट कर दो. शायद जर्मनी, चीन, फ्रांस व जापान के लोग इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने अपनी मातृभाषा को मरने नहीं दिया। मातृभाषा का मतलब महज कुछ शब्द भर नहीं, यह हमारी पहचान, हमारा अभिमान और हमारी एकता का प्रतीक है। सही भी है कोई भी इंसान अपनी सभ्यता व संस्कृति को नजरंदाज कर एक अच्छा लेखक या कलाकार नहीं बन सकता।” विदेशी अस्पताल की गैलरी में एक कोने पर सूचना बॉक्स में चिपकाए गए इस कतरन को पढ़ नजरें उस ओर ठहर गई। उपरोक्त चंद पंक्तियां लेबनान की कवियित्री व सामाजिक कार्यकर्ता सुजैन टोलहॉक के स्तम्भ से ली गई है, जो 12 जनवरी वर्ष 14 को ‘हिन्दुस्तान’ अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपा था।
नेपाल के तराई शहर वीरगंज से कुछ ही दूरी स्थित परवानीपुर के केडिया आंखा अस्पताल में मां की आंखों के इलाज के लिए पिछले दिनों जाना हुआ। इस पार बिहार का सीमाई कस्बा रक्सौल और उसपार वीरगंज। अस्पताल में जब भाषाई संवेदनशीलता से रूबरू हुआ तो जिज्ञासु मन में सहज ही जानने की इच्छा प्रबल हुई, कि बिहार या भारत में किसी भी सार्वजनिक जगह पर ऐसा कुछ चिपकाया हुआ देखने को नहीं मिलता। सिवाए सरकारी टाइप दफ्तरों में हिंदी में लिखे स्लोगन के, जो कि एक विज्ञापन से ज्यादा नहीं जान पड़ते। मसलन ‘हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है’, ‘हिंदी में काम करना हमारा नैतिक कर्तव्य है’, ‘हिंद है हम वतन है हिंदोस्ता हमारा’ आदि आदि. ताज्जुब की बात है ये स्लोगन किसी अन्दुरुनी प्रेरणा से नहीं बल्कि महज खानापूर्ति के लिए लिखे गए हैं। क्योंकि ऐसा सरकारी आदेश है। वरना पूरे भारत में कथित राष्ट्र भाषा हिंदी की क्या दुर्गति है यह किसी से छुपी नहीं। खैर, मैं विषय की तरफ लौटना चाहुंगा।
मैंने इस बाबत कुछ जानने के इरादे से बगल में खड़े अस्पताल के सहायक कम्पाउण्डर राम तपस्या यादव से पूछा, ‘यादव जी..।’उन्होंने विनम्रता से कहा, ‘हुजूर?’ (नेपाल में किसी को संबोधन के तौर पर
‘सर’ या ‘महाशय’ की जगह, जैसा कि भारत में बोला जाता है, ‘हुजूर’ ही कहा जाता है।) उनकी सवालिया नजरों को ताड़ मैंने बॉक्स की तरफ इशारा कर कहा, ‘ये अखबार का कटिंग यहां क्यों चिपकाया गया है?’ पहले तो वे अचकचाकर मुझे घूरने लगे कि ये क्या पूछ रहा हूं। लेकिन फिर माजरे को समझ उन्होंने कहा, ‘बै महाराज, बुझाता रऊआ बेलायत से आइल बानी। हिंदिए में त लिखल बा पढ़के समझ ली।’
उन्होंने भोजपुरी में इतना ही कह मुझे टरकाना चाहा पर मैंने सफाई दी, ‘जी समझ में त आवता बाकिर हम जानल चाहा तानी ई इहवां चिपकावल काहे बा?’ तो उन्होंने कहा, ‘हम त अस्पताल के छोटहन स्टाफ बानी। लेकिन हमरा जहां ले बुझाता ई उपर वाला (मुख्य प्रशासक) सभे सटवइले बाड़न। आपन मातृभासा के प्रचार करेला।’
‘प्रचार मतलब?’, मैंने अंजान बन पूछा।
'देखी इहवां नेपाल के राष्ट्र भाषा नेपाली ह आ हमनी के घरेया भासा भोजपुरी। आ ई दुनू भासा में इहवां बतियावला प रऊआ जादा आदर मिली। समझनी कि ना?'
यादव की बात सुन दिल को थोड़ी तसल्ली मिली क्योंकि मैं खुद झिझक के मारे हिंदी में बतिया रहा था। और उनके जवाब की पुष्टि भी हो गई, जब मैंने अस्पताल के चिकित्सकों से भोजपुरी में बात की। सभी ने काफी शालीनता से मुझे सुना, जवाब दिया। ना कोई बनावटीपन, ना ऐठ, ना तो कोई पूर्वाग्रह ना ही भेदभाव, जैसा कि उतर भारत के शहरों में क्षेत्रीय जुबान में बात करने पर एक प्रकार की मानसिक हीनता से गुजरना पड़ता है। अस्पताल की प्रतीक्षा गैलरी में भी माइक से भोजपुरी में ही मरीजों को आवश्यक जानकारी दी जा रही थी। हालांकि परिसर में मैंने एक चीज पर गौर किया की यहां आए 90 फीसदी मरीज बिहार व यूपी के मोतिहारी, बेतिया, बगहा, गोपालगंज, छपरा, सिवान, आरा, पटना व महराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर आदि जगहों के दिखे। जो कि खांटी भोजपुरी क्षेत्र है। यानी भोजपुरी में सहज संवाद का एक खास कारण इस भाषा का यहां मार्केट वैल्यू होना भी है।
वीरगंज में दिखा भोजपुरी का पहला दैनिक अखबार
वीरगंज स्थित घंटाघर चौराहा यानी शहर का चर्चित स्थल, जहां से बाजार जाने के लिए कई गलियां निकलती हैं। यहीं कोने पर पत्र-पत्रिकाओं की एक छोटी सी अस्थायी दुकान दिखी। जहां काउंटर पर हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर (सभी मोतिहारी संस्करण) के साथ तमाम हिंदी, अंग्रेजी व नेपाली पत्र-पत्रिकाएं बिकने के लिए सजी थीं। तभी इसी कतार में ‘भोजपुरी पाती’ नामक दैनिक पर आंखें रूक गई। उठाकर पड़ताल की तो पाया दो पृष्ठों के इस श्वेत-श्याम अखबार में तराई क्षेत्र की दैनिक खबरें छपी हैं। मैंने बिना देरी किए वेंडर से अखबार का दाम पूछा। जवाब मिला, नेपाली पांच रूपये यानी तीन रुपये भारतीय। हालांकि कंटेंट के हिसाब से मूल्य कुछ ज्यादा लगा। लेकिन भोजपुरी में पढ़ने का मोह नहीं छोड़ पाया। सो उसे खरीद लिया।
घर आकर अखबार को पलटा तो उम्मीद के मुताबिक ही छपी सामग्री सतही लगी। इसमें भोजपुरी को लेकर किए जा रहे संघर्ष के अलावा कुछ भी खास नजर नहीं आया। अखबार के कार्यालय का पता वीरगंज ही छपा था। जबकि अंतिम पृष्ठ पर रक्सौल, बिहार के संवाददाता लटपट ब्रजेश का नाम और उनका मोबाइल नंबर विज्ञापन की तरह एक बैनर में प्रकाशित था। अधिक जानकारी के लिए उनको फोन मिलाया। तो बतकही का सिलसिला चल पड़ा और कब एक घंटा निकल गया पता ही नहीं।
कई सारी चीजों पर चर्चा हुई जिसका जिक्र फिर कभी करूंगा। लेकिन मेरे जैसी नवही व गवही मातृभाषा प्रेमी की संतुष्टि के लिए इतनी ही जानकारी काफी थी कि पूरे तराई क्षेत्र में इस दैनिक की प्रसार संख्या 10 हजार के करीब है। मुंह से तो न सही पर दिल से एक अनकही दुआं भी निकली, चलो कोई तो है जिसकी बदौलत भोजपुरी भाषा की पटरी खिंच रही है।
दर्जनों नेपाली एफएम पर बह रही भोजपुरिया बयार
“ई गढ़ी माई एफएम ह, तनी देर में रउआ तराई क्षेत्र के समाचार सुनेम।”, “बनल रही हमनी के संगे जाई मत कही. काहेकि संस्कृति एफएम सुनावे जा रहल बा कल्पना के आवाज में पूर्वी गीत।” जी हां, कुछ इसी तरह के उद्गारों के साथ नेपाल के तराई कस्बों में करीब दो दर्जन एफएम गुलजार हैं। बिहार व नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों वीरगंज, कलैया, गौर, ढेंग, बैरगीनिया, जनकपुर, विराट नगर आदि में संचालित इन एफएम केन्द्रों से भोजपुरी, नेपाली, मैथिली में मनोरंजक कार्यक्रम, समाचार व गाने दिन भर प्रसारित होते रहते हैं। जिनके श्रोताओं बिहार में मोतिहारी, सीतामढ़ी, बेतिया, शिवहर, बगहा, मधुबनी के लोग भी शामिल हैं।
नेपाल में कुकुरमुते की तरह इनके फैले होने की खास वजह यहां भारत की तरह एफएम लाइसेंस लेने की प्रक्रिया का पेचिदा नहीं होना भी है। और कोई भी तीन से पांच लाख भारतीय रुपये में इसे शुरू कर सकता है। इनका कवरेज क्षेत्र 30-70 किमी तक है। हालांकि कंटेंट के मामले में भारतीय एफएम की गुणवता से तुलना करना बेईमानी सरीखा होगा। हां, इतना जरूर है कि बिहारी विज्ञापनों से हो रही अकूत कमाई से इन सबकी पौ बारह है।
पहले नहीं था भोजपुरी को लेकर इतना क्रेज
आज से 30 साल पहले नेपाल में भोजपुरी भाषी को नीची नजरों से देखा जाता था। हर जगह नेपाली बोलने का चलन चरम पर था। यह कहना है भोजपुरी बौद्धिक विकास मंच के संस्थापक लटपट ब्रजेश का। वे रक्सौल से ही सटे जटियाही गांव के निवासी हैं जो फिलहाल शहर के कौडिहार चौक के पास रहकर करीब 30 वर्षों से मधेसियों के बीच भोजपुरी को सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन्होंने भारतीय होते हुए भी काठमांडू में 15 देशों को लेकर आयोजित ‘विश्व भोजपुरी सम्मलेन’ में नेपाल की ओर से प्रतिनिधित्व किया हैं।
वे बताते हैं कि बचपन में जब अपने ननिहाल नेपाल के एक गांव में जाता था। तो ग्रामीणों की भाषा भोजपुरी देख बेहद खुशी मिलती। जब थोड़ा बड़ा हुआ और समझदारी आई तो नेपाल में भोजपुरी को लेकर किए जा रहे भेदभाव, खासकर वहां के मूल निवासियों(पहाड़ी लोगों) का भाषाई आधार पर मधेसियों के साथ दोयम व्यवहार मन को काफी कचोटता था। इस भाषा में अखबार व साहित्य गढ़ना तो दूर की बात थी। भोजपुरी बोलने का मतलब खुद को पिछड़ा होना साबित करना था। जबकि यहां का बाजार व कारोबार पूरी तरह भोजपुरी भाषियों पर ही केंद्रित है।
आगे उन्होंने बताया कि भोजपुरी वैसी समृद्ध भाषा है जिसमें स्वाभिमान, ओज, आग्रह, विनम्रता, मिठास के साथ ही दबंगता भी कूट कूट कर भरा है। इस रसिक बोली में इतनी क्षमता भी है कि गैर-भाषी जनों को खुद में समाहित कर सकती है। ब्रजेश बताते हैं कि आज आप इस तराई शहर में जो कुछ भी देख रहे हैं। यह एक लंबे संघर्ष का परिणाम है।
पूर्वी चंपारण में पत्रकारिता से जुड़े लेखक व पत्रकार श्रीकांत सौरभ 'मेघवाणी' ब्लॉग के मॉडरेटर हैं। संपर्कः #9473361087, [email protected]