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हमारे खानदान में वाइन पीने वालों की बड़ी इज्ज़त है

हमारे खानदान के सभी ढाई, तीन, साढ़े तीन अक्षर नाम वाले लोग निवर्तमान नवयुवक हो चुके हैं। कुछ तो जीवन की अर्धशतकीय पारी खेल रहे हैं तो कई जीवन के आपा-धापी खेल से रिटायर भी हो चुके हैं। कुछ वे लोग हैं जो अर्धशतकीय और उसके करीब की पारियाँ खेल रहे हैं। खानदान का नाम रौशन करना इनका परम उद्देश्य कहा जा सकता है। मुझे तो आभास हो रहा है कि यदि इनका खेल इसी तरह जारी रहा तो वह दिन भी आ जाएगा जब देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित/पुरस्कृत होंगे। जी हाँ मुन्ना, बब्लू, गुड्डू, डब्ल्यू, रिंकू, सिन्टू, मिन्टू, बन्टी, गोलू आदि नाम वालों ने घर फूँक तमाशा का खेल जिस तरह से जारी रखा हुआ है उससे तो हमारा खानदान/गाँव राज्य में ही नहीं देश में सर्वोच्च स्थान पर होगा और इनमें एकाध को ‘देश रत्न’ का खिताब भी मिलेगा।

हमारे खानदान के सभी ढाई, तीन, साढ़े तीन अक्षर नाम वाले लोग निवर्तमान नवयुवक हो चुके हैं। कुछ तो जीवन की अर्धशतकीय पारी खेल रहे हैं तो कई जीवन के आपा-धापी खेल से रिटायर भी हो चुके हैं। कुछ वे लोग हैं जो अर्धशतकीय और उसके करीब की पारियाँ खेल रहे हैं। खानदान का नाम रौशन करना इनका परम उद्देश्य कहा जा सकता है। मुझे तो आभास हो रहा है कि यदि इनका खेल इसी तरह जारी रहा तो वह दिन भी आ जाएगा जब देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित/पुरस्कृत होंगे। जी हाँ मुन्ना, बब्लू, गुड्डू, डब्ल्यू, रिंकू, सिन्टू, मिन्टू, बन्टी, गोलू आदि नाम वालों ने घर फूँक तमाशा का खेल जिस तरह से जारी रखा हुआ है उससे तो हमारा खानदान/गाँव राज्य में ही नहीं देश में सर्वोच्च स्थान पर होगा और इनमें एकाध को ‘देश रत्न’ का खिताब भी मिलेगा।

 
अब यह मत पूछिएगा कि घर फूँक तमाशा कौन सा खेल होता है। यह एक मुहावरा है। असली खेल है ‘दारूबाजी’। जी हाँ यह एक अत्यन्त लोकप्रिय खेल है, यह बात अलहदा है कि ‘मीडिया’ ने अभी इधर रूख नहीं किया है। कैसे करे, हमारे गाँव से ही कितने ऐसे लोग मीडिया में है जो इस खेल के पारंगत खिलाड़ी है तब भला हमारे गाँव के दारूबाजों का बाल बाँका कैसे हो सकता है।
‘‘फानूस बनके जिसकी, हिफाजत हवा करे।
वह शमा क्या बुझेगी, जिसे रौशन खुदा करे।।’’
मतलब यह कि मीडिया जैसा अस्त्र और कवच जब ढाई, तीन, साढ़े, तीन अक्षरों वालों के साथ है तब कलम/कैमरे का रूख उधर कैसे होगा? सामाजिक सरोकारों से सर्वथा दूर ये दारूबाज अपने काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं, यह बात सिर्फ उन्हें परेशान कर सकती है जो इनसे रिश्ते में काफी नजदीक हैं। चोरी हेराफेरी और जमीन जायदाद की बिक्री करना कोई इनसे सीखे। नशा करना है तो पैसा चाहिए पैसा नहीं है तो चोरी, हेराफेरी फिर जमीन जायदाद की बिक्री यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक आबकारी विभाग के जरिए सरकार को राजस्व की भरपूर आमदनी होती रहेगी।

एक बात मैने महसूस किया है कि किसी व्यक्ति के मुँह से निकलने वाली दारू की दुर्गन्ध उसकी माँ और पत्नी को नहीं महसूस होती। माँ और पत्नी के रिश्ते की घ्राण इन्द्रिय को इन व्यक्तियों की दुर्गन्धयुक्त स्वाँसों ने फालिज का शिकार बना दिया है। अरे भाई जरा रूकिए किसी वृद्धा माँ और प्रौढ़ स्त्री से यह मत कह दीजिएगा कि उनका पुत्र और पति शराबी है वर्ना आप जानो और आपका काम। अपना काम है समझाना सो कह रहा हूँ। कर डालो यह सुकार्य, कहो कि अमुक व्यक्ति दारूबाज है। माताएँ और उनकी पत्नियाँ कोसना शुरू कर देंगी। इसे मेरी आप-बीती भी मान सकते हो।
 
दारूबाज कितने प्रकार के होते हैं, सोंचो कि यह कैसा प्रश्न है? जी हाँ यह सवाल है जिसका उत्तर बड़ा ही आसान है। एक बार नहीं अनेको बार मैने कइयों से पूँछा क्यों डियर तुम्हारे डैड नशा करते हैं, तुरन्त रिस्पान्स मिला हाँ सर जी लेकिन अपने पैसे की नहीं पीते हैं। चलो ठीक है ऐसे लोग पास/बेटिकट/मुफ्त में ही मौत का ग्रास बन रहे हैं। दारूबाजों के प्रकार में ठर्रा/कच्ची, देशी और विदेशी शराब के सेवन करने वालों को श्रेणीबद्ध करने के क्रम में ठर्रा (कच्ची) कम पैसे वाले श्रमिक वर्गीय लोग पीते हैं। हमारे गाँव में मनरेगा का पैसा देशी दारू के सेवन में खर्च होता है। ऐसा करने वालों का मन हमेशा गाता है न कि मनरेगा के प्रत्येक अक्षर का फुलफार्म बाँचे। यदि ऐसा करने का विल-पावर जुटा भी लिया तो गाँधी जी को अपमानित होना पड़ेगा।
 
जब
कोई प्रभावशाली/बड़ा आदमी शराब का नशा करके ऊल-जुलूल हरकतें करता है तब आम लोग इसके विरूद्ध आवाज नहीं उठाते हैं, परन्तु जब किसी साधारण व्यक्ति ने थोड़ा सा मदिरा सेवन कर लिया तो बावेला खड़ा। हमारे गाँव में रहने वाले परिवार/खानदान के लोगों की हालत भी कुछ ऐसी ही है। आए दिन शोर-शराबा और अराजकता फैलाकर ये दारूबाज इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन लोगों ने जमकर मदिरा पान किया है। ढाई अक्षर नाम वाले अधेड़ भाई साहेब ने अपनी पुश्तैनी जमीन बेंचकर दारू पीना शुरू किया है। उनकी सेवा में हराम की पीने वालों की भीड़ लगी हुई है। एक तो तितलौकी, दूजे नीम चढ़ी ठाकुर जाति के हैं, ऊपर से दारू का नाश्ता ऐसे में किसकी मजाल कि वह कह सके कि बाबू साहब दारू पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। आप अपनी मौत को दावत दे रहे हैं। यदि किसी ने कह दिया तो उनका यह उत्तर भी हो सकता है कि रोज-रोज पत्नी, बच्चों की बातें सुनकर घुट-घुटकर मरने से बेहतर है कि खा-पीकर मरूँ। पत्नी की डांट-मार खाकर मरने से अच्छा है कि शराब के जहर से ससम्मान मरूँ।
 
बाबू साहब की बात है- उनको समझाकर अपनी बेइज्जती कौन कराए? हमारे खानदान में कई और भी हैं जो पियक्कड़ की श्रेणी में नहीं कहे जाते हैं, लेकिन पीते हैं शान से। पैसा कमाते हैं इसलिए वाइन(ब्राण्डेड अंगरेजी शराब) पीते हैं, उनकी बड़ी इज्जत है। पैसा है कुछ बेंचकर वाइन का सेवन नहीं करना है, इसलिए वह लोग इज्जतदारों की श्रेणी में आते हैं। एक बात और, ऐसे लोग जो शाम को रात्रि भोजन के पूर्व वाइन लेते हैं या फिर पार्टियों में मदिरा सेवन करते हैं, बड़े लोगों में शुमार होते हैं। यह बात दीगर है कि वे भी पियक्कड़ ही हैं, फिर भी अपना मानना है कि हर दारूबाज को उनकी स्टाइल्स का अनुकरण करना चाहिए। इससे हर पियक्कड़ सम्मानित कहलाएगा।
 
हमारे कई बन्धु ऐसे हैं जो घर का खाद्यान्न, बर्तन, जेवर तक बेंचकर दारू गटक चुके हैं। मजाल क्या कोई तीसरा उल्लू का पट्ठा उनकी माताओं/पत्नियों और बच्चों से यह कहे कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मेरा गाँव भी अद्वितीय है और यहाँ निवास करने वाले तो परम अद्वितीय। खुद मियाँ फजीहते- दीगरे नसीहते। इस एपीसोड में बस इतना ही क्योंकि लिखते-लिखते मेरा भी दारू पीने का मन होने लगा है।

 

लेखक डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनसे संपर्क 09454908400 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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