हरे प्रकाश उपाध्याय देश के जाने-माने युवा कवि, साहित्यकार और पत्रकार हैं. हरे प्रकाश लंबे समय तक कादंबिनी, दिल्ली में कार्यरत रहे. इन दिनों लखनऊ में जनसंदेश टाइम्स अखबार में बतौर फीचर एडिटर कार्यरत हैं. उनके द्वारा लिखित उपन्यास ''बिआह की पढ़ाई'' के कुछ अंश यहां पेश किए जा रहे हैं.
1
एक समय होता है विचारणा का और एक समय होता है ठिठककर सोचने का
एक समय होता है उन्नत बनने का और एक समय पतन का भी
एक समय उन्नति का और एक अवनति का (ताओ तेह् चिन)
हर साल की तरह इस साल भी रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय, सेदहाँ की वार्षिक परीक्षा गाँव भर के लिए किसी उत्सव या विशेष अवसर की तरह से आई थी. खासकर जिनके बच्चे आठवीं में थे, उनके लिए तो यह मौका ‘करो या मरो’ की तर्ज पर था. यह एक ऐसा निर्णायक मोड़ था जहाँ से जीवन के रास्ते मुड़ते थे. जिसकी जैसी औकात. प्रतिभा तो क्या निर्णायक होती, आर्थिक हैसियत ही सबकुछ तय करने वाली थी. फिर भी जो बच्चे आठवीं में थे उनके बापों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत चाहे जैसी हो पर उन्हें मिर्ची लगी हुई थी. बिना पढ़े या खेल-खाकर आठवीं पास का वह प्रमाण पत्र जो रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय से लड़कों, खासकर लड़कियों को मिलने वाला था, उसका उनके व्यावहारिक जीवन में बड़ा मोल था. उस प्रमाण पत्र के बूते ही इस इलाके में लड़कियों को मनचाहे ‘घर-वर’ मिल सकते थे. जिस लड़की को वह प्रमाण पत्र नहीं मिलता था उसके बाप को इतनी जगह शर्मिंदगी और इतने तरह की आर्थिक और सामाजिक परेशानियां उठानी पड़ती थीं कि वह आत्महत्या जैसे अंतिम विकल्प पर भी एक बार विचार करने को बाध्य हो जाता था. आठवीं का प्रमाण पत्र सामाजिक हैसियत का पर्याय था, वह न हो तो संतान गाय, भैंस या घोड़े-गदहे के जने की तरह ही थी. यह अनायास नहीं था कि उस पूरे इलाके में रामदुलारो मध्य विद्यालय की पढ़ाई को विवाह पढ़ाई कहा जाता था. पढ़ेगा का, बिआह पढ़ रहा है.
जवार भर में यह लहर एक फैशन या पैशन की तरह बढ़ती चली जा रही थी कि बेटे या बेटी को अनपढ़ से नहीं ब्याहना है. जिसका दामाद या बहू अनपढ़ हो, अनपढ़ होने से मतलब जिसके पास कम से कम आठवीं पास का भी प्रमाण पत्र न हो उसे सब हिकारत से देखते और जिसे ‘क’ से ‘कबूतर’ नहीं आता हो वह भी उसकी हंसी उड़ाता था. दामाद को भले अपना नाम रमेसर लिखने में र म ए स र पर आठ बार अटकना पड़े पर सूट के ऊपरी जेब मे बिना कलम खोंसे अगर वह विवाह के मंडप में चला जाए तो गाँव भर की गारी गानेवाली औरतों के ओंठ टेढ़े हो जाने की पक्की गारंटी थी. …हमार पढ़ल-लिखल धीया के घसकटा अइले रे… और धीया रमेसर को रमेसर पढ़ दें तो पद्मश्री दे दो. शर्तिया वे रामइसर पढेंगी. पढ़ेंगी क्या बिना पढ़े बूझ जाएंगी, पर उस कलाई पर जिसका जोर हमेशा गोबर पाथने या घर लीपने या बर्तन मांजने जैसे कामों में लगाने के लिए इस्तेमाल हुआ होगा, बिना घड़ी बांधें ससुराल चली जाएं तो सास और ननद को काला ज्वर तत्काल पटक दे.
और घड़ी बांधने या सूट में कलम खोंसने की हैसियत देता था रामदुलारो मध्य विद्यालय सेदहाँ का आठवीं पास का प्रमाण पत्र.
***
वार्षिक परीक्षा का प्रोग्राम घोषित हो चुका है. मास्टर साब लोगों ने लड़कों को चेता दिया है कि इस बार चोरी नहीं होगी. स्कूल की बदनामी बहुत हो रही है. ऊपर से आदेश आया है. सब लड़कों को मेहनत से इम्तिहान देना होगा. पर लड़के जानते हैं, ‘‘हर बार मस्टरवा सब असही कहता है. देखना ईहे सब चोरियो करवाएगा.’’
‘‘आरे देखना न पचमा मास्साब तो पइसा लेके नंबर दे देते हैं. उनसे जवन सेट कर लेगा, कौन रोकेगा उसको.’’
‘‘आ हेडवा के कम का जानते हैं. बिना उसको साइन किए तुम्हारे साटिकफिटिक का कौनो मतलब है? बात बतियाते हैं. असली जोगाड़ तो उसी से लगाना पड़ेगा. पढ़ाई होइबे नहीं किया तो चोरी कइसे रूकेगा रे…सब मामा लोग के नौटंकी है नौटंकी…’’
‘‘आरे देखना मैडमवा सीमवा के टप कराएगी एह साल. उसी के घर रह रही है तो कुछ तो करेगी ही देख लेना. हम कह रहे हैं. तुमको विस्वास न हो तो कतही लिखलो कि का कहे थे हम.’’
लड़के इम्तिहान होने के पहले अपनी तरह से रिजल्ट के समीकरण समझने-बूझने में लगे थे. उधर उनके अभिभावक अलग परेशान थे, ‘‘सार लोग साल भ त मउज कइबे किया तुम सब. अब सालाना इम्तिहान हो रहा है तो इ ना कि चूतर एक जगह टीका के दू अक्षर पढ़ लें तो कूदकड़ी हो रहा है.’’
‘‘अरे मैया चो जैसा करोगे वैसा भरोगे… का लोगे हमनी के? अभी पढ़े के उमिर है पढ़ि लो…नहीं तो जिनीगी भर नाक पकड़के रोना पड़ेगा.’’
‘‘शाम हो रही है. ससिया के पते नहीं, कहाँ गया है?’’ सिपाही अंकल उसके मां से हिसाब ले रहे हैं.
‘‘ऊ तो बारहे बजे से खेलने निकला है तो लौटा है अभी, उसका संगत खराब होते जा रहा है, बिगाड़ रहा है सब उसको?’’
‘‘आने दो आज हम उसका मनोकामना पूरे कर देंगे. तुम्हीं लोग उसका आदत बिगाड़ दी हो. लाड़-दुलार में रह गया सरवा…देखो पल्टूआ को…एह साल उहे टप करेगा….’’ अपने बेटे के आचरण से खिन्न भुनभुना रहे हैं सिपाही अंकल. तभी शशि सिपाही अंकल से नजर बचाते हुए घर में घुस रहा था कि वे देख लिए, ‘‘ऐ हीरो, इधर आओ…इधर आओ. कहाँ साहेबी हो रही है? पता है कब से इम्तिहान है?’’
‘‘हाँ, पता नहीं है.’’
एक कसकर देते हुए उन्होंने उससे फिर पूछा, ‘‘तो किताब-कापी का दरसन न करना चाहिए कि दिन भर जवार भर के दौरा करोगे तो हो जाओगे पास, आंय?’’
‘‘दौरा करने गए थे? कोटा में किरासन तेल का पता करने गए थे कि नहीं’’ चोट से तिलमिलाया शशि गुस्सा-सा गया.
‘‘तो कब गए थे? बारहे बजे का गए, पौने छह हो गया. का उहाँ मराने लगे थे?’’
शशि की मां ने हस्तक्षेप किया, ‘‘आप भी न लइकन से असही बोला जाता है? का हुआ बेटा? कब तक मिलेगा किरासन?’’
‘‘कब तक का मिलेगा, बेच दिया हीरा बबवा सब. कोई पूछने जइबे न करता है तो का करेगा? अउर पूछने प खिसिया भी रहा था.’’ शशि ने नमक-मिर्च लगाकर जनवितरण प्रणाली के ठेकेदार की शिकायत की.
‘‘आह रे रमवा…हरमिया गाँव में अन्हार कराएगा का? अबही पूरा महिना पड़ा है.’’ शशि की मां ने घबराते हुए कहा.
चिंता तो सिपाही अंकल को भी हो आई पर बाहर से बेफिक्री दिखाते हुए बोले, ‘‘ना अइसे-कइसे बेच देगा? ओकरे मजाल है, देखते न हैं कल जाकर.’’
इस गाँव की जन वितरण प्रणाली के दुकानदार हीरा बाबा भी कम दबंग नहीं हैं. कोशिश करते हैं कि जगदीशपुर ब्लॉक के गोदाम से माल लाने का झंझट कम से कम पड़े. सरकार चीनी, किरासन (मिट्टी का तेल), गेहूं, चावल सब सामान सस्ते दाम पर कोटे की दुकान से ग्रामीणों को उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है पर हीरा बाबा की माने तो बीडीओ पंचानन राम उनसे कहते हैं, ‘‘बांटने लायक रहिएगा तब नू बांटिएगा. हर कदम पर स्पीडब्रेकर बना हुआ है और उहवां एगो देवता बैठा है. पहले उ सबको चढ़ावा चढ़ाइए तब नू गाड़ी चलेगी. आ पता चलता है कि गाँव तक आते-आते पूरी गाड़ी का माल त परसादी जैसा बंटा गया. अब आप लोग जान खाते हैं कि गेहूं नहीं आया तो किरासन नहीं आया तो चीनी पर यूनिट कम भेंटा रहा है. त हम क्या करें हमारा मांस खाइए आप लोग. उहो त नहीं खाते हैं. ऊपर में है कोई पूछवइया. सब लोग को हीरे राय लउकते हैं कमजोर…जादा करिएगा तो हम लइबे न करेंगे माल….’’
सिपाही अंकल घर से किरासन तेल का टीन लेकर आए थे और जिद पर अड़े थे ‘‘बिना लिए आज जाएंगे ही नहीं, लइकन के इम्तिहान है. एहू महीना में नहीं दीजिएगा तब गाँव में कोटा रहे चाहे तेलहाँडा में जाए, का फायदा है?’’
‘‘कहाँ से दे दे भाई अइबे नहीं किया तो? चीनी ले जाइए.’’
‘‘चीनी का करेंगे? हमारे यहाँ तो असही गुड़ पसीज रहा है. केहू पूछवइया नहीं है. देखिए आपको किरासन त देना ही पड़ेगा बाबा. नाहीं त इस बार बवाल कर देंगे. लइकन का इम्तिहान है.’’
‘‘लाइए दू लीटर दे देते हैं घर से. केहू के बताइएगा मत. नाहीं त रूप चौधरिया बवाल करवा देगा कि केहू के दे रहे हैं आ केहू के नहीं. अइसे बीडीओ सहेबवा उसका सुनता ही नहीं है, कहता है कि मंगनी में चंगनी बिलइया मांगे आधा. इसको बिल्ली बोलता है बिल्ली.’’
भागते भूत की लंगोटी भली. सिपाही अंकल लाचारीवश दो लीटर पर ही राजी हो गए पर उनको हीरा बाबा की बातें तनिक भी नहीं जंची. वे भी एक बोल छोड़ते गए, ‘‘देखना हीरा बाबा इहे बिल्ली एक दिन जाएगी दिल्ली. तब तुम आ तुम्हारा चूहा बीडीओ कैसे बील में घुस जाओगे.’’
हीरा बाबा धीमी आवाज में सिपाही अंकल की मां-बहन से रागात्मक संबंध जोड़ने लगे.
रास्ते में सिपाही अंकल को किरासन का टीन ले जाते कुछ लोगों ने देखा तो वे भी अपने राशन कार्ड और टीन के साथ हीरा बाबा की मड़ई पर जुटने लगे. हीरा बाबा इधर दुकान बंदकर पिछले दरवाजे से नौ-दो ग्यारह हो लिए. लोग उनके दरवाजे से गालियां भुनभुनाते हुए लौट आए. बाद में पता चला कि हमेशा की तरह जिनसे हीरा बाबा को डर था कि वे या तो ब्लॉक पर जाकर हंगामा कर सकते हैं या यहीं उनके दरवाजे पर ही हीरा बाबा की बांह मरोड़ सकते हैं, उनको कम-बेशी किरासन तेल मिल गया बाकि गरीब-लाचार लोग काम चलाने के लिए बाजार से खरीदने या अंधेरे में रहने को ही अभिशप्त रहे.
यहाँ चला-चली की बेला में जी रहे लकुड़ी सिंह से आजादी और लोकतंत्र के बारे में बात कीजिए तो वह कहेंगे, ‘‘लोकतंतर माने फोद. अंगरेजवने के राज अच्छा था बबुआ. एतना अनेत नहीं नू था. अब त सब लोग हाकीमे बन गया है. कमजोर आदमी के का मिला, ओकर खोपड़ी तो अभीओ सबके जूता खाइए न रही है.’’
लेकिन सरकार से सब शिकायत करने वाले लोगों से पूछिए कि गाँव अंधेरा में काहे जी रहा है तो मुस्का के चल देंगे.
इस गाँव में करीब दस साल पहले बिजली के खंबे गड़े तो लोग खुश हुए कि अब समय बदलेगा. खंभे पर तार बीछे. बिजली आई. खेतों में पंपिंग सेट हरहराने लगे पर जब बिजली का बिल आया तो बाबू लोग महटिया गए. बिजली का बिल आता रहा लोग महटिआए रहे. एक दिन कनेक्शन कट गया तो लोगों को उत्पात सूझा और धीरे -धीरे बीजली के पोलों पर लगे तार से लोगों ने आंगन में अलगनी टांग दी. बिजली के लकड़ी वाले खंभों पर दालान छा लिया. अब अंधेरे का बहाना बनाकर बच्चे पढ़ने से मना कर रहे हैं. सिंचाई के अभाव में खेत में जब फसल सूखने लगती है तो लोग सरकार की मइया चोदने की बात कर संतोष कर लेते हैं.
***
रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय की परीक्षा बड़े जोशो-खरोश के साथ हुई. परीक्षा के पहले ही संगीता मैडम ने सारे प्रश्न पत्र निकालकर सीमा को सारे प्रश्नों के उत्तर रटा डाले थे. पचमा मास्साब ने प्रश्न पत्रों का फटा बंडल देखा तो भीतर से तो बहुत गरमाए पर समझ गए कि मैडमवा का ही काम है, इसलिए कुछ बोले नहीं मुस्काकर संगीता मैडम को कनखी मार दिए. मन ही मन सोचा उन्होंने, कर लो मेरी जान, तुम भी कर लो खेल. एक दिन तो धरेंगे ही हम तुम पर हाथ.
हेड सर को इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कहाँ गया प्रश्न पत्र और कहाँ गई उत्तर पुस्तिका. उनका तो अपना फंडा था, बिना सौ का पत्ता लिए एस एल सी देबे नहीं करेंगे. और जिसको बिना स्कूल का दर्शन किए ही एस एल सी चाहिए, ऊ इहाँ रख जाए पनसौआ (पांच सौ).
‘‘माट्साब पांच सौ जादा हो रहा है.’’
‘‘जादा हो रहा है तो मत दीजिए. हम आपको बुलाने गए थे क्या? बच्चा को स्कूल का दर्शन कराए बिना ही एस एल सी ले रहे हैं. जानते हैं एस एल सी का मतलब? ई स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र है. बच्चा स्कूल अइबे नहीं किया तो छोड़ कइसे दिया भाई? इसी जादू का लग रहा है पांच सौ तो आपको जादा बूझा रहा है.’’
‘‘माट्साब समझ रहे हैं पर लइकी जात है. स्कूल आके का करती? ई तो नया जमाना चल गया कि बिना साटिकफिटिक देखे अब बियाहे नहीं कर रहा है कोई. नहीं तो का जरूरत था? अब लइकी का कुछ उद्धार हो, देखिए अढ़ाई सौ ले लीजिए.’’
‘‘ए महाराज बनिया का दुकान समझ लिए हैं का? नामो-गाँव लिखना जानती है आपकी लइकी? नहीं नू? हम इहाँ अठवां पास के सार्टिफिकेट दे रहे हैं. के फसेगा जी, कुछ हो गया तो? आप त भाग न चलिएगा, जवाब तो हमीं न देगे.’’
‘‘माट्साब जवन लइका पढ़ने आ रहे हैं सब, ऊ कवन पढ़ के मार अंगरेज हो गये? बात बतियाते हैं, हम जानते नहीं हैं आप लोग जवन पढ़ाई पढ़ा रहे हैं? देखे ना का इम्तिहनवा में. सब तो किताब से देखिए-देखी लिख रहा था. कवन अपना मन से लिख रहा था. आदमी जातो-बेरादरी का तनी खेयाल रखता है.’’
‘‘जाते-बेरादरी हैं तभीए एतना बोलिओ ले रहे हैं नहीं तो हमको ज्यादा बात करने नहीं आता. बहस कर रहे हैं. जाइए महाराज.’’
‘‘कहाँ जाएं जी साटिकफीटीक लेने आए हैं तो लेइए के जाएंगे? आपो लोग आदमी चिन्हते हैं, बरियारा होता तो जवन देता चुपचाप रख लेते बगली में.’’
‘‘आरे आप समझ नहीं रहे हैं न सहजा भाई. इसमें बड़ा मेहनत है. पुरनका रजिस्टर में दूसरे क्लास से नाम लिख के आठवां तक लाना पड़ेगा. नहीं तो कोई इंस्पेक्शन हो गया तो आपका भी काम बिगड़ेगा और हम भी फसेंगे. समझ रहे हैं न? ’’
पचमा मास्साब की नजरें भी हेड सर की कमाई पर अंटकी रहती है पर उनके चुप रह जाने के दो कारण हैं.
‘‘एक तो बेचारा स्कूल में रहो न रहो, टोकता नहीं है. हाजिरी बना के निकल लो. सब सम्हाल लेता है जवान. दूसरे इम्तिहान के बाद हस्तकला दिखाने के नाम पर लड़के जो झाड़ू, रूमाल, आईना, कंघी, फूल, खिलौने लाते हैं, उसे हाथ नहीं लगाता. खूब हुआ तो दू ठो झाड़ू ले लिया आ एक ठो कंघी. शौखिन बहुत है जवान. जेब में हरदम एक ठो कंघी रखता है. आ मैडमवा के तो इ सबसे मतलबे न रहता है. ओठ बिचकाती है ई सब देख के. ’’ पचमा मास्साब कुछ रखकर कुछ बेंच देते हैं. हजार-बारह सौ का हो ही जाता है.
परीक्षा संपन्न हो जाने पर सारा तनाव जाता रहा. लड़के भी बम-बम. स्कूल भी बम-बम. गाँव भी बम-बम. नीचे के क्लास में तो एकाध फेल भी हुए पर आठवीं में चौबीस छात्र थे, इतने ही पास नहीं हुए. गाँव की कुछ और लड़कियां भी पास हो गईं. जो यह तक न जानती थी कि पास कैसे हुआ जाता है और फेल कैसे? वे यह भी नहीं जानती थी कि किताब को किस तरफ से पढ़ा जाता है.
आठवीं में चौबीस छात्रों में जो कुल आठ लड़कियां थी उनमें से भी पांच ने पढ़ाई छोड़ दी. एक अपने चाचा के पास जाकर आरा शहर में रहने लगी. वहाँ उसके मामा नौकरी करते हैं. कंपाउंडर हैं अस्पताल में. कहा गया वहीं रहकर पढ़ेगी. गाँव ने समझ लिया, वहाँ रहकर बरतन मांजेगी और तब तक मांजेगी, जब तक विवाह नहीं हो जाता. सोलह लड़कों में से भी छह ने पढ़ाई छोड़ दी. सुदामा और धीरू दोनों के बाप ने पीरो शहर में घर बना लिया था. उन दोनों का परिवार पीरो में शिफ्ट कर गया और उनका वहीं रामस्वारथ साहू हाई स्कूल पीरो में नाम लिखा दिया गया.
उस स्कूल के बाकी लड़कों और साक्षी तथा सीमा का नाम पौने चार किलोमीटर दूर हसन बाजार कस्बे के हाई स्कूल में लिखाया गया. वह उस इलाके का बड़ा माना हुआ हाई स्कूल था. लोग कहते उसका हेड मास्टर हाथी पर बैठकर आता है. वैसे स्कूल में किसी ने हाथी बंधा देखा नहीं था पर चूंकी हेडमास्टर के संयुक्त परिवार में एक हाथी था तो लड़के उसे हाथी वाला मास्टर भी कहते थे. उसकी दबंगई के तमाम किस्से थे. उस स्कूल में आस-पास के गाँवों की लड़कियां और दूर-दराज तक के गाँवों के लड़के साइकिल पर बैठ कर पढ़ने आती थीं. एकाध लड़कियां भी यहाँ साइकिल से पढ़ने आती थीं, जिनका जिक्र कर इस स्कूल के अधिकांश लड़के बड़ा रस लेते थे. वे स्कूल में एडवांस मानी जाती थीं. बाकी थोड़े पास की लड़कियां पैदल चलकर और थोड़ी दूर की लड़कियां अपने भाइयों की साइकिल पर पीछे बैठकर और कोई एकाध अपनी चाचाओं की मोटर साइकिल पर पीछे बैठकर.
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जिन लड़के-लड़कियों का आगे नाम नहीं लिखाया, वे घर-गृहस्थी में जुट गए. वैसे भी सेदहाँ का रेकार्ड पढ़ाई-लिखाई के मामले में अपनी तरह से अलग ही रहा है. दो-ढाई सौ घरों में मुश्किल से पांच लोग एमए पास हैं, अठारह लोग बीए. नौकरी करने वाले कुल बीस लोग हैं जिसमें अधिकांश या तो सिपाही हैं या मास्टर. अपने बैच के सबसे तेज छात्र समझे जानेवाले कृष्णकांत ने इंटर करने के बाद एक प्राइवेट स्कूल खोल लिया है जिसमें गाँव के कुछ नौजवान और कुछ प्रौढ़ बेरोजगार पढ़ाने लगे हैं. सात सौ रुपये महीने पर, अगर उन्हें भी नौकरी पेशा मान लें तो गाँव में नौकरी करने वालों की संख्या कुछ और बढ़ जाएगी.
गाँव में एक नया-नया डेयरी फार्म खुला है. ललू राय के प्रयास से. वे ही कत्र्र्ता-धर्ता हैं. सुबह-शाम उनके दरवाजे पर मजमा लग जाता है. गाँव भर का दूध वहाँ इकट्ठा होता है और पीरो से ट्रक आता है डेयरी फार्म का. उसमें सब केन लदा के चला जाता है. सुमेसर तिवारी का मन पिनपिनाता है तो कहते हैं, ‘‘गाँव के लोग के पोलियो के शिकार बनाकर छोड़ेगा ललूआ. अब जे एको जवान के पाव भर भी दूध भेंटा जाए तो कहिए. लोगों के दरवाजे पर चार-चार ठो लगहर बन्हा गई लेकिन दूध से दरसन दुरलभ हो गया. नौजवानन के राह चलते झांई मार रहा है. एकरा मइया चो का होगा पइसा रे…है कोई पूछवइया? ’’
पर डेयरी फार्म खुलने से बहुत लोग खुश हैं. जिसके घर कोई नोकरिहा आदमी नहीं है, उसके घर भी आने लगी मंथली इनकम. हर महीने के पहली को दूध का हिसाब होता है. किसी को दो हजार-किसी को चार हजार, सबको कुछ न कुछ. ललू राय गाय खरीदने के लिए ब्लॉक से लोन भी दिलवा रहे हैं. हर आदमी ने बांध लिया है दरवाजे पर लगहर. ललू राय को भी रूतबा मिला है. अब हर आदमी थोड़ी तमीज़ से पेश आता है उनसे.
हर आदमी होड़ में लगा है कि कौन कितना अधिक से अधिक दूध डेयरी को दे दे. पहले स्कूल छोड़ने वाले नौछटिहे खेती के काम में सीधे लगने से कुनमुनाते थे पर दूध से सीधे हाथ में कैश आ रहा है तो गाय-भैंस की चरवाही करने से किसी को परहेज नहीं. बाबाजी हो चाहे बाबू साहेब चाहे रविदासी, सबके लड़के बारह बजते न बजते खा-पीकर गाय-भैंस के साथ सोन की ओर प्रस्थान कर जाते हैं, तो सात बजे से पहले नहीं लौटते हैं. उधर सालों भर चरी का इंतजाम रहता है. वहीं मवेशी चरते रहते हैं और लड़के रेडियो पर गाना सुनते रहते हैं. जब मधुबाला गाती है तो लंबू जी लंगटे नाचने लगते हैं. कुछ लड़कों की ताश जमती है. कुछ जुआ-उआ भी खेल लेते हैं.
जैसे गाँव के समाज में ऊंच-नीच है, वैसे चरवाही में भी है. चरवाही के नेता हैं रमेश काका. सब नौछटिया चरवाहों में वे ही उम्रदराज हैं. लड़के रोज उनको घेर लेते हैं, ‘‘काका सुनाइए तनी, का हुआ सुहाग रात के दिन? ’’
‘‘अरे दूर, तोहनियो सब न रोज एके बतिया करता है.’’
‘‘ काका बतिया तो एके नू है, रतिया के बतिया कि दू ठो है, तो दूनो सुनाइए.’’
‘‘ पैर दबाएगा न रे तेलिया? ’’
‘‘आरे काका शुरू न करिये, तेली रामा रोज दबाते हैं, आज कोई नया है? ’’
‘‘ जानते हो गए न तो तुम्हारी ककिया तो समझो नखड़ा करने लगी लेकिन उघार के… ’’
एक लड़का मस्तराम की किताब लाया था. काका को चुप कराकर उसका पाठ करने लगा.
एक लड़का चुप कराकर उससे पूछने लगा, ‘‘आरे सरवा गरमा जाते होगे तो बंड राम का करते होगे? ’’
एक तीसरा बोला, ‘‘अपना भइसीए के… ’’
मवेशियों को धोने का समय हो रहा था. कुछ लड़के अपने जानवरों के साथ सोन में उतर लिए. रमेश काका ने मुस्कराकर पूछा, ‘‘ कौन डूब के पानी पी रहा है? ’’
एक की भैंस नहर से बाहर भागने लगी. उसका चरवाहा अपनी भैंस को बेतहासा पीटने लगा.
एक की भैंस पानी में बैठी हुई थी और उसका चरवाहा उसके पीछे मौज मना रहा था.
2
काट रहे हैं घोर अंधेरा छोटे-छोटे लोग
तपता सूरज लंबा रस्ता छोटे-छोटे लोग .
– (शोभनाथ फैजाबादी)
खेतों में कटनी शुरू हो चुकी थी. इस साल रबी की अच्छी फसल हुई थी. पूरे गांव वाले खेतों में खड़ी संपत्ति को देखकर पगलाए हुए थे. चैता अभी शुरू नहीं हुआ था गांव-जवार में लेकिन रात में लोग सोते तो सपने में चैता गाते हुए ही रात कट जाती. एक दम भोर होते ही लोग हशिया लेकर खेतों में निकल पड़ते. वही नहर के किनारे दिसा-मैदान करते और जब दो-चार कट्ठा हर आदमी काट चुका होता तब पूरब में ललकी किरण दिखती. बारह बजते-बजते तो खेतों में आग लगने लगती, किसकी मजाल जो टीके. हे प्रभु, इस साल कितनी गरमी पड़ेगी? जितनी फसल हुई है, उतना ही रंगा दिखा रहे हैं सूरज देव भी. अभी तो चैत शुरू ही हो रही है और ये हाल है.
उधर महुआ भी इस साल खूब चू रहा है. आमों पर मोजर भी खूब आए हैं. लगता है ईश्वर इस बार गांव पर दिल खोलकर मेहरबान है. खेतों में कटाई का काम मरदों के जिम्मे और महुआ बीनने का काम औरतों और बच्चों के जिम्मे. पर रेज टोल की औरतें महुआ बीनने लगें तो साल भर रोटी कैसे खाएं? और महुआ के पेड़ के मालिक भी तो बड़ टोल के लोग ही हैं. भाड़े पर महुआ बीनो तो चौथाई मिलता है. इससे अच्छा तो कटनी ही है. सोलह बोझा काटो तो एक बोझा अपना हो जाता है. वैसे लड़ाई चल रही है कि चौदह बोझे पर ही एक बोझा मिलना चाहिए पर मालिक लोग मान नहीं रहे हैं. जिनके दस-बारह बीघे खेत हैं और वे सवंगगर हैं तो अपना खेत खुद ही काट रहे हैं. मजूर नहीं लगा रहे हैं. उनका मानना है कि लूट मची है लूट. कटनीहार मजूर खेत वाले का बोझा छोटा बनाते हैं और अपना बोझा चलने भर का बांध लेते हैं बल्कि वे उसे दो बार में ढोते हैं.
गेहूं की कटनी ही लोग मजूरों से करा रहे हैं बाकी दलहन और तेलहन की फसलों की कटनी तो खुद ही कर रहे हैं. ये नगदी फसलें हैं. इनको किसी और के हवाले नहीं किया जा सकता. गरीब लोग क्या जानें दाल भी क्या चीज होती है. यह तो भला हो कुछ दयानतदार मालिकों का कि वे अपने आदमियों को भी काम के दिनों में कभी-कभार दाल खिला देते हैं. सरसो का तेल भी रड़ टोली में आकाश कुसुम है. जब महुआ के नशे में आता है भूअर दुसाध तो तो तेल और दाल की मां-बहन एक कर डालता है.
रेज टोल की तरफ ही महुआ के सारे पेड़ हैं. उस टोले की औरतें और बच्चे महुआ के दिन में चौकन्ने सोते हैं बल्कि सोचते हैं कि इस समय सोए तो समझो कि भाग्य सोया. वे जागते रहते हैं कि कब गांव सोए और वे महुआ के पेड़ों की ओर निकल लें. बरसात में महुआ को गुड़ के साथ भूनकर खाने का अलग ही मजा है. गरीब आदमी का मेवा. वे इससे दारू भी बना लेते हैं और मलिकार लोगों को पिलाकर अपने वश में कर लेते हैं. रेज टोल में जो एक-दो घर आधे-अधूरे सीमेंट-ईंट के बने दिख रहे हैं, लोग झूठ कहते हैं कि वे इंदिरा आवास योजना से बने हैं. सब इसी महुआ के दारू के जादू से बने हैं. बाबू लोगों को जब महुआ का दारू और दूसरे की मेहरारू दिखती है तो सब वैर भाव भुलाकर ‘परमात्मा’ बन जाते हैं. क्या गैर क्या अपना. लगता है कि सही ही कहा गया है, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’. पूरी धरती ही घर है, परिवार है. गांव में महुआ के दारू की डिमांड हरदम बनी ही रहती है. रेज टोल के लोगों के लिए नगद आमदनी का वह एक बढ़िया तरीका है.
भूअर दुसाध की बनाई महुआ की दारू इस गांव में ही नहीं बल्कि पूरे जवार में नामी है. बाबू साहेब या बाबा जी लोग किसी के यहाँ अब कोई मेहमान आए तो बिना दारू पीए नहीं लौटता बल्कि मन करे तो कह सकते हैं कि सेदहाँ में कोई मेहमान महुआ की दारू पीने ही तो आता है.
भूअर दुसाध का बड़ा छोटा परिवार है. वे हैं और उनकी जोरू लछमीनिया है और बेटी परवतीया. परवतीया जवान हो गई है. सोलह साल की. उसकी जवानी का एहसास भूअर को उनकी दारू की मांग में एकाएक आई उछाल से भी हो रहा है. गांव के नौछटियों के दारू की तलब इधर कुछ ज्यादा ही जोर मार रही है. रात-बिरात कोई जवान उनके दरवाजे की किवाड़ थपथपाने लगता है, ‘भूअर, भूअर, आरे भूअरा, दारू है का?’
भूअर इस चैत में दारू कहाँ से बनाएं? इस मौसम में वे और उनकी लछमीनिया मिलकर रबी की कटनी कर रहे हैं. अनाज घर में आए तभी तो पेट चलेगा. सिर्फ दारू बेचने से क्या होता है? वह भी मालिक लोग कभी पैसा देते हैं, कभी डांट देते हैं, ‘सरवा, हमी लोग के महुअवा बीन के हमी लोग से पैसा मांगता है, पगला गया है का रे? ’
भूअर बहुत विनम्रता से मना करते हैं, ‘मलिकार, ई तो ताड़ी का मौसम है.’ जब जवान विदा होने लगता है तो उसकी पीठ पर अपनी घृणा पूरी ताकत से फेंकते हैं भूअर. वे सब समझते हैं पर किसी से पंगा नहीं लेते. पंगा लें तो गांव छोड़ें पर गांव छोड़कर कहाँ जाएंगे वे? गरीब का निबाह कहाँ है?
भूअर कटनी में परवतीया को भी ले जाते थे पर पिछले साल वाले कांड की वजह से अब नहीं ले जाते. पिछले साल यहीं चैत की कटनी हो रही थी. भूअर को ठंड के साथ बुखार आ रहा था. काम पर जा नहीं सके थे. नहीं तो वे या लछमीनिया में से कोई एक परवतीया के साथ ही रहते थे. पर उस दिन लछमीनिया ललन बाबा के खेत में कटनी कर रही थी और परवतीया दूसरे बधार में रमेश काका के खेत में गई थी. लहालह दोपहरिया थी. मजूर अब अपने घर लौटने लगे थे. परवतीया भी अपना काम खत्म कर चुकी थी. रमेश काका परवतीया से प्यार से बोले, ‘‘पारवत, ए पारवत, थक गई हो रे, आकर थोड़ा बैठ लो बगीचा में. आओ थोड़ा पानी पी लो, थोड़ा सुस्ता लो, तब जाना बेटा.’’
प्यास तो लगी ही थी परवतीया को. रमेश काका के मीठे बोल ने उसे भावुक भी बना दिया. वह चली गई बागीचा में. रमेश काका ने बागीचे में एक कुआं भी खुदा रखा था. उसका पानी बधार में पीने के काम भी आता था और उससे खेतों की सिंचाई भी होती थी. गरमी में उसका पानी मीठा और खूब ठंडा हो जाता था. परवतीया का कंठ ललचा गया. रमेश काका गांव में रसिक तो गीने जाते थे पर परवतीया को इस बात का दूर-दूर तक अंदेशा नहीं था कि उसके बाप की उम्र के बराबर के रमेश काका की रुचि उसमें भी हो सकती है. पर रमेश काका बूढ़ी औरतों में रस लेकर तो रसिक के रूम में ख्यात नहीं ही हुए थे, पर परवतीया को इसका इल्म नहीं था.
रमेश काका जमीन पर बैठे थे. उनके पास एक डोर से बंधी बाल्टी रखी थी और एक लोटा. खेत में जहाँ आग लगाने वाली गरमी पड़ रही थी, वहीं इसके विपरीत बागीचे में सुहानी हवा चल रही थी. रमेश काका के पास से बाल्टी लेकर कुंए से एक बाल्टी पानी निकाल लाई परवतीया. पानी उनके पास रखकर सोचने लगी बाल्टी से पानी कैसे पीए? रमेश काका ने अपना लोटा बढ़ाते हुए कहा, ‘लो इसमें पानी निकालकर पी लो. ’
परवतीया को अब थोड़ा काला लगा कि मालिक उससे घिना क्यों नहीं रहे हैं? अपना लोटा क्यों दे रहे हैं? खैर वह प्यास की मारी थी. लोटा में पानी निकालकर ऊपर से उसकी धार मुंह में उड़लते हुए पानी पीने लगी. और रमेश काका गौर से उसकी छातियां घूरे जा रहे हैं. पानी पीकर वह चलने लगी, तो रमेश काका ने इसरार किया, ‘थोड़ा सुस्ता लो तो जाना. घर ही तो जाना है.’
‘‘नहीं, काका घर लौटने में देर हो जाएगी. बाबू बीमार हैं.’’
‘‘बीमार है भूअरा? कहें कि दिखा नहीं?’’
‘‘तो कौनो चिंता हो तो बताना.’’ अपनापन दिखाते हुए उसे अपने निकट बुलाने लगे रमेश काका, ‘‘आओ ना इधर तनी पसवा में. एगो बात कहनी है.’’
चली गई वह उनके थोड़ा पास और उन्होंने बाज की तरह झपटकर उसे अपनी गोद में बैठा लिया. एक हाथ से छाती दबाने लगे. दूसरे से उसे कसकर पकड़े रहे. वह उनकी गोद में जल से बाहर निकाली मछली की तरह छटपटाने लगी.
‘‘काका, छोड़िए ना. का कर रहे हैं ई? आही रे रामा केहू आ जाएगा?’’
‘‘केहू नहीं आएगा परवतीया. ई दुपहरिया में इधर केहू नहीं आएगा. बीता लो मजिगर दुपहरिया. हमरो दिन बना दो, अपनो बना लो फिर जो कहोगी, सो.’’
‘‘छोड़िए न काका.’’ रोने लगी परवतीया.
‘‘हसन बाजार से सोना के नकबाली ला देंगे तोरा के.’’ प्रलोभन देने लगे रमेश काका.
परवतीया ने और कोई चारा नहीं देखा तो दांत गड़ा दिया उसने रमेश काका की बांह में. बिलबिलाकर पकड़ ढीली की उन्होंने और वह पिंजड़े से भागे पंछी की तरह उड़ी. रमेश काका ने पीछा नहीं किया, ‘‘देखते हैं हरमजादी कब तक तरसाती हो? हमें नहीं दोगी, किसी को तो दोगी ही. सतवंती बनती है साली. देखेंग कब तक कंठीमाला फेरती है.’’
रोते हुए सीधे घर पहुंची वह और लेदरा में मुंह छिपा के रोने लगी. लछमीनिया घर पहुंची थी पहले से ही. उसने ऐसा देखा तो, पहले तो गरमाई, ‘‘अरे रांड़ी, का हुआ बताओगी कि टेसुना बहाओगी?’’
पर जब परवतीया रो-रोकर सुनाने लगी हाल, तो लछमीनिया भी उससे जा लिपटी और रोने लगी. बहुत देर तक दोनों रोती रहीं. भूअर ओसारे में पड़े खांसते रहे. उन्हें लग रहा था कि अब बहुत बूढ़ा गए वे, जिएंगे नहीं ज्यादा. हालांकि वे अभी पचास के भी नहीं हुए. पर भुअर को अपनी उम्र कहाँ याद है. यह तो उनका शरीर बता रहा है कि चलो बहुत हुआ, अब चोला बदलो.
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