किताबें यूं तो बोल नहीं सकती लेकिन शब्द बोलते हैं… इसलिए वो भी। यह आदत भी ठीक नहीं थी कि किसी पेज का पता याद रखना होता, तो कभी बीच से, कभी हाशिए पर उसे मोडं दिया करता था। शायद बहुत से पाठक ऐसा ही करते हों। याद है कि बीती बार कुछ ऐसा करके, कई दिनों तक भूल गया था। किताब अभी और पढ़ी जानी है…एक कहानी उसी मोड़ पर खड़ी रही जहां छोड़ आया था। समझ नहीं पाया शायद, लेकिन अपनी भी एक अधूरी कहानी छोड़ आया था। आज जब लौट रहा हूं तो अजनबी सा महसूस हो रहा है। कहानी तो इंतजार में थी… अब उसे आगे पढ़ा जाना है। उस पेज को अनफोल्ड किया…ताज्जुब होता है उन हर्फों पर, कितने सब्र से बैठे रहे। वहीं मिले जहां उन्हें होना था। पेज से किताब का एक खूबसूरत रिश्ता होता है। जनम-जनम के साथ की तरह। आप यह भी देखें कि पेज से शब्द व वाक्यों का भी एक नाता तो है। दो सामानांतर को एक दूसरे के लिए इस तरह जीते कम देखा था। चूंकि अब फिर से पढ़ने लगा था…एक तीसरी चीज भी साथ हो गयी थी। जमाने से शिकायत नहीं कि उसने पेज को नंबर से याद रखा, लेकिन जिस तरह का नाता हमारा कायम हुआ वो आदमियों सा था। दोस्त का दोस्त से, सरीखा रिश्ता।
कोई रिश्ता बनाकर मुतमईन होना नहीं अच्छा
मुहब्बत आखिरी दम तक आजमाती है…
किताबों के साथ बढ़िया फील होता है। किसी की होकर खुद को सुपुर्द कर दिया करती है। पढ़ने-लिखने वाले थोड़े इंसान ही हैं…उसे उसके जैसा प्यार लौटा देते है। एक तरह से प्यारा सा बंधन कह सकते हैं। इन्हें करीब से देखकर हैरान हूं कि कोई साथी क्या इस क़द्र भी साथ निभा सकता है! बेपरवाह ही हूं कि कभी कुछ किताबें खो भी जाया करती हैं। क्या कोई उसे यहां से मांग ले गया था? हो सकता है। कहना होगा कि सुंदर किताब थी…अफसोस संभाल कर रख ना सका। अब तो सिर्फ वो वरक ही बाक़ी रहा जो शायद कट कर निकल गया था। किताब की झलक ग़र किसी को देखनी हो, तो वो यही था…पाठ से जुदा होकर उसे ठीक नहीं लगा था… युं ही कमरे में मारा फिरता है। इतना ज़्यादा अकेला नहीं रह सकता। आओ एक ख्वाब सजाएं…किसी के साथ जीने लगा है…अब वो आवारा नहीं, सिर्फ भीड़ में तन्हा रह रहा है। दूसरी किताब के पन्नों के बीच पड़ा है। किसी खूबसुरत किताब का कोई एक पन्ना खो जाए तो खालीपन बनने लगता है। पुरानी से पुरानी किताब को संभालकर रखना किसी जिंदा दास्तान को संभाल रखने बराबर होता है। तकनीक ने कंटेंट से उस तरह का रिश्ता थोडा बदल दिया…लेकिन उसके संरक्षण की आदत खत्म नहीं की।
यह सोच लिया कि किसी को आवाज़ नहीं देनी मोहसिन
कि अब मैं भी तो देखूं…कोई कितना है तलबगार मेरा।
कुछ अजीब सी हैं यह किताबें भी…प्यार सिखाना तो समझा जा सकता लेकिन नफरत भी? जोड़ना भला होता है, फिर उसी को तोडने की बातें? एक जोड़ रही तो दूसरी मोड़ रही। कोई किसी को महान बताती तो कोई और को…ठहर यह ख्याल आया कि अरे किताब नहीं उसे लिखने वाला, प्रसार करने वाला ज्यादा जिम्मेदार होता है। किताबें तलबगार को वही रोशनी या राह दे रहीं जिस कामना से उसे वो उसका चुनाव करता है। कबीर की साखियां…ग़ालिब और मीर के दीवान तो यही पढ़े थे। वाल्मिकी –तुलसीदास की रचनाएं कोई भूला सकेगा भला? याद आ रहा कि रसखान कृष्ण भक्ति के दीवाने थे। सुना था फराज़ को ग़ालिब व कैफी से दिली मुहब्बत थी…पढ़ा भी यही। हिन्दुस्तान जब तकसीम हुआ पाकिस्तान बन गया…दोस्तों कुछ पुरानी किताबों में रेखाएं एक हैं।
आता है याद मुझको गुजरा हुआ ज़माना…वो बाग़ की बहारें वो शब का चहचहाना
आज़ादियां कहां वो अब अपने घोंसले की…अपनी खुशी से आना, अपनी खुशी से जाना।
कहानियां-कविताओं के साथ जीना बेशुमार जिंदगियों के साथ जीना है। किताब का धारक या तलबगार तय करे कि किताब से कौन सी निस्बत है। क्या उसकी रूचि कहती है? तलाश करें नग़मा मिलेगा, किस्सा-कहानी अदब और अदीबों की दुनिया यहीं सांस लेती है। एक कहानी हर पल बन रही…लिखी जा रही। एक अधूरी रह जाती है। क्या यह बदली भी जा सकती थी…दूसरा रुख ले सकती थी? बहुत सी कहानियां को अनुभव कर…उसे उस तरह देख कर तब्दील करने का मन होता है। मुकम्मल कहानियों की उम्मीद नहीं होती, मिल जाए तो स्वागत है। रचना की दुनिया फिर भी अधूरी रह जाए तो ठीक होता है…क्योंकि शायद पाठक को थोडा प्यासा छोड़ देना ही रचनात्मकता का कारण है। कहानी का आदमी से एक वास्ता होता है…बहुत बार उसमें अपनी ही कहानी नजर आती है। उसके पात्रों में पाठक खुद का अक्स पा लेता है। युं तो हररोज ही एक कहानी घट रही, लेकिन लेखक की नज़र से ओझल चीजें सृजन से बाहर हो जाया करती है। एक मामूली सी दिखने वाली घटना को भी रचना में शामिल करने की क्षमता लेखक को सक्षम बनाती है। कहानियों से गुजरते हुए हम उन घटनाओं के समक्ष रहते हैं जो किसी ने देखी थी। देर से सही रचना के माध्यम से पाठक भी उसको देख पाता है। कह सकते हैं कि अनदेखी-अनजान दुनिया से रूबरू कराने में किताब सरीखा सृजनात्मक माध्यम कमाल हैं।
बड़ा करम है यह मुझ पर, अभी यहां से ना जाओ…बहुत उदास है यह घर,
अभी यहां से ना जाओ, यहां ना था कोई दिन-भर, अभी यहां से ना जाओ।
सभी तरह की किताबों से एक ही जगह मिलने के लिए पुस्तक मेला व पुस्तकालय की तामीर हुई थी। मेला में अपनी पसंद की किताब तलाश करना एक जिज्ञासु काम कहा जा सकता है। लेकिन आयोजक मेले में आने वालों को पुस्तकों से जुड़ी बहुत सी बातों से भी रूबरु करा देता है। अब का पुस्तक मेला एक सकारात्मक सांस्कृतिक मूवमेंट का रुप ले चुका है। पत्रकारिता-रंगमंच-टेलीविजन-सिनेमा के जरिए किताबें हमसे बहुत करीब हो चुकी हैं।
दोस्तों तर्क़-ए-मुहब्बत की नसीहत है फुजुल
और ना मानो तो दिल-ए-ज़ार को समझा देखो…
समाज-देश के हित में एक विमर्श हमेशा से जरूरी रहा है। जिस व्यक्ति ने पुस्तक नहीं पढ़ी हो उसे भी धारा का साझेदार बनाने में मेला सफल रहा है। किसी सुपरिचित लेखक से संवाद करने का अवसर रोज नहीं हुआ करता। मेले का शहर-दर-शहर आयोजन कर नेशनल बुक ट्रस्ट सरीखा संस्थान करीब-करीब यह कर सका है। पुस्तक मेले को केवल पब्लिसिटी का पैरोकार नहीं मानना चाहिए क्योंकि यह महज बाहरी आवरण है। वो सृजन-संवाद-रचनात्मकता का सारथी है। पुस्तक मेला किताबों को उसके पाठक तक पहुंचाने का एक दिलचस्प नेटवर्क हैं।
लेखक सैयद एस. तौहीद से संपर्क [email protected] पर किया जा सकता है।