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इस देश में कौन सांप्रदायिक नहीं है?

संसद औऱ सड़क पर “सांप्रदायिक” शब्द बार-बार उछाला जाता रहा है। जब भी यह आवाज उठती है, चर्चा-ऐ-आम हो उठती है और आबोहवा के गर्म हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो बसपा हो या राजद, सभी ने इस शब्द का इस्तेमाल अवश्य किया है। सियासी चालों मे इसका प्रयोग किया जाना भले ही सियासत के लिये मजबुरी हो लेकिन रियाया के स्वास्थ्य के लिये खतरनाक वायरस ही साबित हुआ है। धर्म व सम्प्रदाय की राजनीति नहीं करने का दावा देश के सभी राजनैतिक दल करते हैं। इस दावे के आधार पर ऐसा कोई भी राजनीतिक दल नहीं है जो सेक्यूलर न हो। इन सब दावों के बावजूद हिन्दूस्तान मे धर्म और सम्प्रदाय की सियासत बढ़ती ही जा रही है।

संसद औऱ सड़क पर “सांप्रदायिक” शब्द बार-बार उछाला जाता रहा है। जब भी यह आवाज उठती है, चर्चा-ऐ-आम हो उठती है और आबोहवा के गर्म हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो बसपा हो या राजद, सभी ने इस शब्द का इस्तेमाल अवश्य किया है। सियासी चालों मे इसका प्रयोग किया जाना भले ही सियासत के लिये मजबुरी हो लेकिन रियाया के स्वास्थ्य के लिये खतरनाक वायरस ही साबित हुआ है। धर्म व सम्प्रदाय की राजनीति नहीं करने का दावा देश के सभी राजनैतिक दल करते हैं। इस दावे के आधार पर ऐसा कोई भी राजनीतिक दल नहीं है जो सेक्यूलर न हो। इन सब दावों के बावजूद हिन्दूस्तान मे धर्म और सम्प्रदाय की सियासत बढ़ती ही जा रही है।

स्थिति अब यहां तक आ पहुंची है कि लगभग हर राजनैतिक दल खुलेआम एक दुसरे पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाने लगा हैं। शायद यही कारण है कि हर धर्म के सम्प्रदाय में बहुत से स्वयंभू धार्मिक ठेकेदार पैदा हो चले हैं और पैदा होते जा रहे हैं। लगभग हर सरकार इन्हें लिफ्ट देती आई है। तथाकथित धर्म के ठेकेदार न केवल राजनैतिक दल को वोट के मायाजाल से प्रभावित कर अपना उल्लू सीधा करते हैं बल्कि भोली भाली जनता में से दिगभ्रमित लोगों को बहका कर उन्माद फैलाने से भी गुरेज नहीं करते, क्योंकि कोई भी स्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति उन्माद का पक्षधर नहीं होता। ऐसे में यह सवाल उठना अब लाजिमी है कि “सांप्रदायिक” है कौन? सांप्रदायिकता के जिस बीज को अंग्रेजों ने बोया, जवाहर-जिन्ना ने हवा पानी दिया उसकी फसल आज सब काट रहे हैं

हिन्दू को हिन्दु, मुसलमान को मुसलमान तथा ईसाई को ईसाई होने का बोध कराया जाना ही सांप्रदायिकता है। एक क्षेत्र, एक देश मे निवास करने वाले लोग बन्धुत्व भावना के साथ-साथ अच्छे पड़ोसी के रूप मे मानवीय दृष्टिकोण के साथ-साथ रह कर अनेकता में एकता का प्रदर्शन करते हुए जीवन यापन करते हैं। समाजिकता की इस भावना को तोड़ना, एक को पाकिस्तानी मूल का और दूसरे को हिन्दुस्तानी मूल के होने का ऐहसास कराया जाना ही सांप्रदायिकता है। निहित स्वार्थों ने तो इस देश मे कई बार तोड़ा है। यह अखण्ड भारत चार हजार वषों तक गुलामी मे जिया। द्रविड, आर्य, मुगल, व अंग्रेज इन सभी ने अपने-अपने प्रभाव काल में इस देश पर शासन किया। यहां जाजिया कर भी लगा व बलात धर्म परिर्वतन भी हुए फिर भी धार्मिक उन्माद संक्रामक स्तर तक न पहुँच सका। आज जब सत्ता के लिए कुछ भी करने को आतुर राजनैतिक दल भावनाओं से खेल रहें हैं तो यह सवाल सभी के ज़ेहन में कौंध रहा है आखिर “साम्प्रदायिक” है कौन?

काश कि इस देश को सत्ता का हस्तांतरण लोकतांत्रिक तरीके से मिल बैठ कर किया गया होता। हिन्दुस्तान ने महात्मा गांधी पर विश्वास किया और महात्मा गांधी ने जवाहर लाल नेहरू पर। लौहपुरूष सरदार गोविन्द वल्लभ भाई पटेल स्वराज मंत्री बने और 368 रियासतों का अखण्ड हिन्दुस्तान बनाया परन्तु प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने काश्मीर को राष्ट्रसंघ में पहुँचा दिया। हिन्दुस्तान व पाकिस्तान का भवनात्मक झगड़ा बस यहीं से शुरू हो गया। काश्मीर को पाकिस्तान बनाने की हर संभव कोशिश मे पाकिस्तानी सियासतदानों के एजेन्टों ने भारतीय मुसलमानो के बीच धार्मिक ध्रुवीकरण व नफरत का बीज बो दिया। हिन्दुस्तान मे बसे पाकिस्तानी मानसिकता के लोगों को नफरत फैलाने का सुनहरा मौका जा मिला और दोनो तरफ ध्रुवीकरण होता रहा। दो सगे भाईयों मे भी लडाई झगडा व खुनी संघर्ष कभी-कभार हो सकता है तो हिन्दुस्तानी जमीन पर सह अस्तीत्व मे रह रहे हिन्दू मुसलमान पड़ोसीयों मे इस तरह के झगडों को अस्वभाविक कैसे कहा जा सकता है। हां, शर्त यह कि हर हिन्दुस्तानी भाई पडोसी व अपने को हिन्दुस्तानी मान ले। सियासतदान भाई-भाई के आपसी झगड़े को कोई और रंग देने में दिलचस्पी दिखाते हैं, इसका कारण सत्ता सुख।

एफडीआई, 2जी घोटाला अथवा न्युकीलियर डील जैसे जनहित के मुददे लोकसभा मे भले ही उठे हों सियासतदानों के लिये ये मुददे कभी देश हित के नहीं रहे। संसद मे अविश्वास प्रस्तावों पर भले ही बहसें मुखर हुई हों परन्तु मतदान तो सियासती आधार पर ही हुए हैं। सियासी चालों की आड़ भी ‘सांप्रदायिकता’ही हर बार बनी। आरएसएस विचारधारा से ओतप्रोत भारतीय जनता पार्टी को न सिर्फ बसपा बल्कि सपा ने भी सांप्रदायिक करार दिया है। यह ठीक है कि बसपा सरकार मे दंगें न हो सके परन्तु कथित इसी सांप्रदायिक पार्टी के साथ बसपा सरकार चला चुकी है। अपने कार्यकाल मे कई दंगे झेल चुकी सपा भी तो भाजपा के साथ सरकार चला चुकी है। सपा सरकार में हुए दंगे क्या सपा को सांप्रदायिक नहीं दिखाते। कांग्रेस जब यह कहती है कि “भाजपा मुसलमानो को टिकट नहीं देती” तो यह कह कर क्या कांग्रेस अपने सम्प्रदायिक होने का प्रमाण नही दे रही होती।

सांप्रदायिक उन्माद का जो बीज अंग्रेजों ने बोया और जवाहर तथा जिन्ना ने जिसे हवा-पानी दिया उसकी लहलहाती फसल को हिन्दुस्तान और पाकिस्तान मे आज धड़ल्ले से काटा जा रहा है। आजादी मिलने की पृष्ठभूमि मे सनसीन हो जाने की ललक ने हिन्दू मुसलमानो मे इतनी नफरत भर दी गई कि खून से लथपथ अपनो की लाशों के बीच से निकलते हुए अपनी इच्छित देशभूमि को जाने को मजबुर रहे। अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान व अधिकांश हिन्दु हिन्दुस्तान आ गये परन्तु कुछ ऐसे भी लोग थे जो न पाकिस्तान गये न हिन्दुस्तान आये। वो वहीं के बन कर रह गये जहां पहले आबाद थे व वहां की आबोहवा ने उन्हे वहीं रहने को मजबुर कर दिया। आज ऐसे लोगौं के बीच भी नफरत फैल रही है आखिर क्यों? आजादी के 6 दशक बाद भी ऐसे हालात क्यों? सियासतदान इस लोकतांत्रिक सियासत मे भी “सांप्रदायिक सांप्रदायिक” खेल धड़ल्ले से खेल रहे है और अवाम इस नफ़रत की आग से झुलस रही है। आज़ादी के 6 दशक तक वोट बैंक बन कर रहने वाली कौम के हालत इस सियासी सांप्रदायिक खेल के महज़ बानगी भर है। काश देशवासी यह समझने लगें कि सांप्रदायिकता के बयान केवल सियासी और चुनावी दांव-पेंच भर होते हैं।

 

लेखक अब्दुल रशीद, सिंगरौली, मध्य प्रदेश में रहते हैं। संपर्कः [email protected]

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