मीडिया आज जो तमाम दावे पेश कर रहा है, जो वो दिखा रहा है क्या वही सत्य है? मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन मीडिया का लोकतंत्र तब कहां चला जाता है जब किसी अनुभवी और योग्य दलित व्यक्ति को अपने वजूद को बचाने के लिए हर मुद्दे पर समझौता करना पड़ता हैं। उसे उन अयोग्य व्यक्तियों के नीचे काम करना पड़ता है जो मीडिया की सही परिभाषा तक नहीं जानते हैं? मैं स्वयं कई सालों से मीडिया में काम कर रहा हूं लेकिन वक्त और तजुर्बे के हिसाब से जो स्थान या उचित प्रतिनिधत्व मिलना चाहिए था, वो मुझे नहीं मिला है।
मैने अक्सर देखा है कि जब आप मीडिया संस्थानों में काम मांगने जाते है तो सामने वाला आपके सरनेम से यह जान लेता है कि यह तो मेरे ग्रुप का नहीं है, तो ऐसे व्यक्ति को वहीं रिजेक्ट कर दिया जाता है। या फिर अभी जगह नहीं है या वैंकसी होने पर आपको बता दिया जाएगा जैसी बातें कह कर टरका दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर अगर आपको नौकरी मिल गई तो आपको आपकी योग्यता के हिसाब से वो काम नहीं दिया जाएगा जिसके आप हकदार हैं।
हम मीडिया मे रहकर देश और समाज को बदलने की बात करते हैं, लेकिन क्या उन लोगों ने कभी सोंचा भी है कि आज के समय में जाति को एक तरफ कर व्यक्ति को काम उसकी योग्यता के हिसाब से देना चाहिए। मैं अपने बारे में और कई दलित पत्रकारों के लिए कह सकता हूं कि अगर उन्हें सही काम का माहौल मिले तो वो उन सवर्ण मानसिकता के पत्रकारों से बेहतर काम कर सकते हैं, जिनका वो हमेशा बखान करते है। मैं यह बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि दलित समुदाय का व्यक्ति आज मीडिया में अपने वजूद और उचित प्रतिनिधत्व के लिए भरसक प्रयास कर रहा है। ऐसे में सभी को चाहिए कि उनका साथ दें, समर्थन करें।
लेखक महेश वर्मा से संपर्क उनके ईमेल [email protected] द्वारा किया जा सकता है।