पी. कुमार मंगलम का यह लेख मेक्सिको में चुनावों और प्रायोजित आंदोलनों तथा दलों के जरिए फासीवादी, जनविरोधी उभारों और जन संघर्षों को दबाने के साम्राज्यवादी प्रयोगों की रोशनी में भारत में पिछले कुछ समय से चल रही लहरों की (पहले ‘आप’ की लहर और अब मोदी की) पड़ताल करता है।
नरेंद्र मोदी या फिर अरविंद केजरीवाल/राहुल गांधी (यहाँ कभी अगर क्रमों की अदला-बदली होती है, तो वह आखिरकार मीडिया कुबेरों के स्वार्थोँ से ही तय होती है)? आजकल अगर आप दोस्तों-रिश्तेदारों, लोकतंत्र के अपने अनुभवों का रोना रोते बुजुर्गों और अतिउत्साहित ‘नये’ वोटरों को सुनें, तो बात यहीं शुरु और खत्म हुआ करती है। जब 2014 के लोकसभा चुनावों का दौर शुरू हो चुका है, तब सभी संभावित राजनीतिक विकल्पों की गहरी पड़ताल के बजाए पूरी बात का सिर्फ़ इन चेहरों पर टंग जाना क्या स्वाभाविक है। आदि-समाजवाद से लेकर ‘ग्लोबलाईज़्ड’ समय के बीच की खिचड़ी सच्चाइयों से निकलते अनेकों जनसंघर्षों के इस दौर में सिर्फ़ ‘परिवार’, ‘संघ-परिवार’ और “अपनी ईमानदारी” की ‘उपलब्धि’ लिए घूमते इन चेहरों का यूं छाया रहना तो और भी अचरज भरा है! हालांकि, अगर इन दिनों चारों ओर से आ रही 'पल-पल की खबरों' पर गौर करें, तो चुनावों के मीडियाई नियंत्रण की कड़ियाँ अपने-आप खुलने लगती हैं। साथ ही, दुनिया के ‘सबसे बड़े’ भारतीय लोकतंत्र का खोखलापन भी नजर आता है। वैसे, बात सिर्फ भारत की ही नहीं है। ‘विकासशील’ या फिर ‘तीसरी दुनिया’ का ठप्पा झेलते देशों में ‘जनता का शासन’ अक्सर न दिखने वाले या फिर दिखने में लुभाऊ लगने वाले ऐसे ही फंदों से जकड़ा है। यहाँ हम लातीनी अमरीकी देश मेक्सिको में जनतंत्र के पिछले कुछ दशकों के अनुभवों की चर्चा करते हुए अपनी बात स्पष्ट करेंगे।
मेक्सिको: हड़प लिए गए लोकतंत्र की त्रासदी
हम शायद ही कभी यह सोचते हैँ कि सिर्फ एक देश संयुक्त राज्य अमरीका का आम प्रयोग (हिदी में और ज्यादा) में अमरीका कहा जाना एक शब्द के गलत प्रयोग से कहीं ज्यादा है। जैसाकि समकालीन लातीनी अमरीकी लेखक एदुआर्दो गालेआनो का कहना है, यह इस एक देश (अब से आगे यू.एस.) के द्वारा अपनी दक्षिणी सीमा के बाद शुरू होते लातीनी अमरीका का भूगोल, इतिहास, संस्कृति और राजनीति हथियाकर इस पुरे क्षेत्र को “एक दोयम अमरीका” में बदल देने की पूरी दास्तान है। यहाँ हम इस भयावह सच के पूरे ताने-बाने और अभी तक चल रहे सिलसिले की बात तो नहीँ कर सकते, लेकिन मेक्सिको की बात करते हुए इसके कई पहलू खुलेँगे।
भूगोल के हिसाब से उत्तरी अमरीका मेँ होने और यू.एस. से बिल्कुल सटे होने के बावजूद मेक्सिको स्पानी भाषा और स्पानी औपनिवेशिक इतिहास के साथ सीधे-सीधे दक्षिणी अमरीका का हिस्सा है। इस जुड़ाव की सबसे अहम बात यह है कि 1810-25 के बीच स्पानी हुकूमत से बाहर निकले मेक्सिको, मध्य और दक्षिणी अमरीका के देशों (इन तीनों को मिलाकर बना क्षेत्र ही लातीनी अमरीका कहलाता है) में बोई गई सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी, धनिकोँ के राजनीतिक वर्चस्व और यू.एस. की दादागिरी की नर्सरी भी यही देश रहा है। बात चाहे इस ‘आज़ादी’ के बाद भी स्पेनवंशी क्रियोल और मिली-जुली नस्ल के स्थानीय पूँजीपतियों के पूरे देश के संसाधन, संस्कृति और सत्ता पर कब्जे की हो या 1844-48 में यू.एस द्धारा मेक्सिको की आधी जमीन लील लिये जाने की हो, मेक्सिको कल और आज के लातीनी अमरीका की कई झाँकिया दिखलाता है।
‘आज़ाद’ मेक्सिको की लगातार भयावह होती गैरबराबरियों के खिलाफ वहां के भूमिहीन किसानों और खान मजदूरोँ का गुस्सा 1910 की मेक्सिको क्रांति बनकर फूटा। हालांकि, बहुत जल्द ही ब्रिटिश, फ्रांसीसी और आगे चलकर यू.एस. के बाज़ार और पैसे पर पलते क्रियोल वर्ग ने बदलाव के संघर्षों को बर्बरता से कुचल डाला था। 1930 के दशक मेँ उत्तर के पांचो विया और दक्षिण मेँ चियापास क्षेत्र के एमिलियानो सापाता जैसे क्रांतिकारी नेताओं की हत्या कर बड़ी पूँजी और सामाजिक भेदभाव की शक्तियों ने पूरे राज्य तंत्र पर कब्जा कर लिया था। 1929 में राष्ट्रपति रहे प्लूतार्को कायेस ने पीआरआई (पार्तिदो दे ला रेवोलुसियोन इंस्तितुसियोनाल-व्यवस्थागत क्रांति का दल) बनाकर इन शक्तियों को संगठन और वैचारिक मुखौटा दिया। जैसाकि नाम से ही जाहिर है, यह पार्टी क्रांति के दौर में जोर-शोर से उठी समानता और न्याय की मांगों[1] को एक अत्यधिक केंद्रीकृत राष्ट्रपति प्रणाली वाली व्यवस्था में दफनाने की शुरुआत थी।
प्लुतार्को कायेस के बाद आए सभी राष्ट्रपतियों ने जनआकांक्षाओं का गला घोंटने वाली इस व्यवस्था को मजबूत किया। मजेदार बात यह कि यह सब लगातार जनता के नाम पर, लोकप्रिय नायकों की मूर्तियां वगैरह बनवाकर तथा लोकगीतों-लोककथाओं के कानफोड़ू सरकारी प्रचार के साथ-साथ किया गया! यह भी बताते चलें कि मूलवासियों सहित अन्य वंचित तबकों की कीमत पर विदेशी पूंजी का रास्ता बुहारती पीआरआई सरकारें यू. एस. शासन-व्यवस्था की सबसे करीबी सहयोगी बन गईं थी। आश्चर्य नहीं कि जब 1950 के दशक में हालीवुड में "कम्युनिस्ट" कहकर चार्ली चैपलिन जैसे कलाकारों को निशाना बनाया जा रहा था, तब वहां के सरकारी फिल्मकारों ने मेक्सिको क्रांति के नायकों को खलनायक दिखा कई फिल्में ही बना डाली! 1953 में आई एलिया काज़ान की ऐसी ही एक फिल्म में चियापास के भुमिहीन किसानों के योद्धा रहे एमिलियानो सापाता को बातूनी और छुटभैया गुंडा बना दिया गया था!
‘आज़ाद’ मेक्सिको के आर्थिक-राजनीतिक हालातों की कुछ बारीकियाँ 1947 के बाद के भारत को समझने में मदद करती हैं। मसलन, जहां मेक्सिको में औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, सत्ता और समाज में हावी रहे क्रियोल वर्ग ने नए निज़ाम पर जबरन कब्जा किया, वहीं भारत में अंग्रेजी राज से उपजे सवर्ण जमींदार 1947 के बाद “देशभक्ति” और खादी ओढ़कर पूरी व्यवस्था पर पसर गए! फिर, जहां मेक्सिको में शासक वर्गों ने पीआरआई का लुभावना सरकारी मुखौटा तैयार किया, वहीं ‘आज़ाद’ भारत की कांग्रेस ब्राह्मणवादी सामंतों के हाथों कैद होकर रह गई थी। यह जरूर है कि मेक्सिको में चियापास के मूलवासियों सहित भूमिहीनों-छोटे किसानों पर खुलेआम चली राजकीय हिंसा (जिसकी जड़ें अत्यधिक हिंसक औपनिवेशिक इतिहास में हैं) के बरअक्स भारत में यह हिंसा ‘लोकतंत्र’, ‘विकास’ और ‘राष्ट्रवाद’ के दावे से दबा दी जाती रही है। स्वरूप जो भी रहा हो, पूरी व्यवस्था पर गिनती के शोषक वर्गों के कब्जे ने दोनों ही देशों की बड़ी आबादी को अपनी ही जमीन पर तिल-तिल कर खत्म होने को मजबूर किया। इस पूरी प्रक्रिया में अपनी जीविका, भाषाओं और संस्कृतियों पर रोज ‘विकास’ के हमले झेलते भारत और मेक्सिको के मूलवासी बहुल क्षेत्र "सत्ता-केंद्र से पूरी योजना के साथ थोपे गये पिछड़ेपन" की जीती-जागती मिसाल बने (विलियम्स 2002)। वैसे,1991 के बाद से ‘जनहित’ के नाम पर बड़ी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुलकर किसानों-मजदूरों की जमीन और रोजगार छिनते भारतीय लोकतंत्र का ‘मानवीय’ मुखौटा अपने-आप उतर गया है। इस पूरे दौर की एक खास बात यह रही है कि बड़े मीडिया समुह नव-उदारवादी नीतियों के सबसे बड़े पैरोकार बन पूरे देश में इन्हें लागू करने वाले दलों को एकमात्र राजनीतिक विकल्प बना कर पेश कर रहे हैं। ‘ग्लोबल’ कहकर खुद पर इठलाती कारपोरेट मीडिया के इस गोरखधंधे को समझने के लिये भी मेक्सिको एक अच्छा उदाहरण है, जो वैश्वीकरण की उलटबासियाँ काफी पहले से झेल रहा है।
मेक्सिको: वैश्वीकरण और मीडियाक्रेसी का मकड़जाल
यू. एस. से सटे होने के कारण मेक्सिको और फिर मध्य अमरीकी देश वैश्वीकरण के पहले शिकारों में रहे हैं। ‘उदारीकरण’ ‘आर्थिक सुधार’ आदि का लुभावना चेहरा देकर वैश्वीकरण की जो नीतियां आज पूरी दुनिया में लागू की जा रही हैं, मेक्सिको काफी पहले से उन सबकी प्रयोगशाला रहा है (शायद यहीं से यह कहावत भी निकलती है: मेक्सिको, भगवान से इतना दूर और यू.एस. के इतना करीब!)। एक और खास बात यह कि लातीनी अमरीका के ज्यादातर देशों के उलट, जहां नव-उदारवादी नीतियां भयानक तानाशाहियों के द्धारा थोपी गईं [2], मेक्सिको में देश बेचने का काम छ्ह साला चुनावों के साथ और संसाधनों की लूट का हिस्सा मध्यवर्ग में बांटकर किया गया। हालांकि, 1980 के बीतते-बीतते शोषित तबकों को हथियार और कभी-कभी ‘भागीदारी’ के सरकारी झुनझुने तथा मध्यवर्ग को ‘राष्ट्रवाद’ और ‘विकास’ के दावे से साधते रहने की पीआरआई की रणनीति चूक गई थी। तब, जहां महंगाई और मेक्सिकन मुद्रा पेसो की कीमत में भारी गिरावट से कंगाल हुए उच्च और मध्य वर्ग सरकार को नकारा घोषित कर रहे थे, वहीं सालों की लूट और अनदेखी से बरबाद आबादी का बड़ा हिस्सा अपने आंदोलन खड़ा कर रहा था।
1988 के राष्ट्रपति चुनावों में वंचित तबकों के जमीन और जीवन की मांगों को साथ लेकर तेउआनतेपेक कार्देनास पीआरडी (पार्तिदो दे ला रेवोलुसियोन देमोक्रातिका-लोकतांत्रिक क्रांति का दल) के झंडे के साथ पीआरआई उम्मीदवार कार्लोस सालिनास गोर्तारी के खिलाफ़ लड़े। व्यापक जनसमर्थन और जबरदस्त लोकप्रियता, कार्देनास के पिता पूर्व समाजवादी राष्ट्रपति लासारो कार्देनास थे, के बावजूद वे चुनाव हार गए। जीत और हार का बहुत कम फासला किसी राजनीतिक उलटफेर से नहीं, बल्कि सोची-समझी सरकारी साजिश से तय हुआ था। इलेक्ट्रॉनिक मतों की गिनती में कार्देनास शुरू से आग चल रहे थे कि ठीक आधी रात को मशीनें ‘अचानक’ खराब हो गईं। और जब उन्हें ‘ठीकठाक’ कर अगली सुबह नतीजों का एलान किया गया, तो कार्देनास राष्ट्रपति के बजाय राष्ट्रपति के भूतपूर्व उम्मीदवार बन चुके थे! लोकतंत्र के खुल्लम-खुल्ला अपहरण में इस बार सरकारी भोंपू बने बड़े मीडिया ने 1994 के चुनावों में अपनी भूमिका निर्णायक रूप से बढ़ा ली थी। तब, पहले से ज्यादा संगठित पीआरडी की चुनौती को एक-दूसरे का पर्याय बने पीआरआई और राज्यसत्ता (जैसे अपने यहां कांग्रेस/बीजेपी/संस्थागत ‘वाम’ और सरकार) तथा सबसे बड़े मीडिया समूह तेलेवीसा ने मिलकर खत्म कर डाला था। श्रम ‘सुधार’ और ‘उदार’ कर-व्यवस्था के नाम पर पूरी तरह से यू.एस. का हुक्म बजाते नाफ्टा [3] करार पर पीआरआई की बलैयाँ लेने वाली तेलेवीसा ने अपने कारनामों से जनमत सरकार के पक्ष में या ठीक-ठीक कहें तो पीआरडी के खिलाफ़ मोड़ दिया था।
सबसे पहले, तेलेवीसा ने अपने बड़े नेटवर्क और उसपर आम लोगों के भरोसे को भंजाते हुए पीआरआई उम्मीदवार एर्नेस्तो सेदियो को अन्य उम्मीदवारों के मुकाबले 10 गुना ज्यादा प्रचार दिया। फिर, पीआरआई विरोधी मतों को बांटने के लिए 1980 में खड़ी हुई कट्टर कैथोलिक रुझानों वाली पार्टी पीएएन (पार्तिदो दे ला आक्सियोन नासियोनाल- राष्ट्रीय कारवाई का दल) को पीआरडी से ज्यादा तवज्जो देकर ‘विपक्ष’ बनाया गया। इतना ही नहीं, पीआरडी की राजनीतिक चुनौती को कुंद करने के लिए बिल्कुल उसी के सुर में मजदूर-किसान हित और व्यवस्था परिवर्तन की बात करने वाली पीटी (पार्तिदो दे लोस त्राबाखादोरेस-मजदूर दल) को रातों-रात सनसनीखेज तरीके से देश का ‘हीरो’ बना दिया गया! यह और बात है कि इस पार्टी का न तो पहले कभी नाम सुना गया था और न ही देश में इसका कोई संगठन था! यह सब करते हुए बाकी खबरें (हां, कहने के लिए तो वे खबरें ही थी!) भी पीआरआई की जीत के हिसाब से तय हो रहीं थी। मसलन, चुनाव से ठीक पहले सर्बिया-बोस्निया गृहयुद्ध और दूसरे देशों के अंदरूनी झगड़ों को बार-बार बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया। इशारा साफ था, अगर मेक्सिको को टूटने या कमजोर होने से बचाना है, तो देशवासियों को ‘अनुभवी’ और ‘सबको साथ लेकर चलने वाली’ पीआरआई का साथ देना ही चाहिए! यहां पीआरडी, जिसके हजारों कार्यकर्ता सरकारी हिंसा का शिकार हुए, और चियापास में भूमिहीन मूलवासियों के हथियारबंद सापातिस्ता आंदोलन को बतौर ‘खलनायक’ पेश किया गया।
तेलेवीसा की अगुआई में बड़ी मीडिया की इन सब कलाबाजियों का नतीजा पीआरडी की एक और हार तथा पीआरआई की ‘जीत’ के रूप में सामने आया। पहले से ही विदेशी पूंजी पर टिके और नाफ्टा में प्रस्तावित कर ‘सुधार’ आदि से अपनी कमाई कई गुना बढ़ाने को आतुर बड़ी मीडिया ने इस जीत को को तुरत-फुरत ‘ऐतिहासिक’ भी बता दिया था! वैसे इस जीत का असली खिलाड़ी तो सिर्फ रेफरी होने का ढोंग कर रहा यही मीडिया था, जिसने अपनी और अन्य धनकुबेरों की बेशुमार दौलत की खातिर मुनाफे की एक और सरकार बनवा दी थी। यहां बताते चलें कि पीआरआई के लिए चंदे की खातिर रखे गए सिर्फ़ एक रात्रि-भोज के दौरान 750 मिलियन डालर (करीब 45 सौ करोड़ रु.) जुटाए गए, जिसमें 70 मिलियन डालर (करीब 4 सौ 27 करोड़ रू.) तो तेलेवीसा के मालिक एमीलीयो इसकारागा ने ही दिए थे!
लैटिन अमेरिका इन क्राइसिस (संकटग्रस्त लातीनी अमरीका) के लेखक जान डब्ल्यू शेरमान ने मेक्सिको में बडी मीडिया के द्वारा रचे गए ‘लोकतंत्र’ के इस नाटक को ‘मीडियाक्रेसी’ कहा है। इस ‘मीडियाक्रेसी’ में आबादी के बड़े हिस्से की सोच पर हावी एक या एक से अधिक कॉरपोरेट मीडिया, जैसे मेक्सिको में तेलेवीसा, अपने फायदे की सरकार बनाते-गिराते रहते हैं। यहां इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता में कौन सी पार्टी आ रही है, बस इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि जो भी आए इस मीडिया के काम आए! अपने मतलब के लिए सत्तासीन पार्टियों की अदला-बदली तो यहां की खास रवायत है। साल 2000 आते-आते मेक्सिको यह सब कुछ देख चुका था, जब राष्ट्रपति चुनावों में जीत का सेहरा पीआरआई के बजाय पीएएन के सिर बांधा गया। धार्मिक कट्टरता के अपने सभी दावों को बड़ी चालाकी से छुपा पीएएन अब बाजार की सबसे बड़ी हिमायती पार्टी बन गई थी और देश को नए राष्ट्रपति के रूप में कोका-कोला (मेक्सिको) के मुखिया रहे विसेंते फाक्स का ब्रांडेड तोहफा दिया था।
निष्कर्ष: भारत और मीडियाक्रेसी की ‘लहरें’
चुनावों से ठीक पहले ज्यादातर टी.वी. और अखबार मोदी तथा उनके मनपसंद प्रचार-हथकंडों, जैसे गुजरात में ‘विकास’ की विडंबनाओं पर घुन्ना चुप्पी और आतंकवाद (मतलब आई. एम. मतलब मुसलमान!) की तोतारटंत, से सज गए हैं। पूरी दुनिया का ‘सच’ "सबसे पहले" बताने-दिखाने का दावा करने वाली बड़ी मीडिया भला "हर-हर मोदी" के उन्माद में बौड़ाए संघी लगुओं-भगुओं-सा व्यवहार क्यों कर रही है। वैसे, कल तक यही मीडिया अस्सी-नब्बे के दशक से नेहरुवादी समाजवाद का अपना ही बुना भ्रमजाल (जिसमें चलती स्थानीय जमींदारों-पूंजीपतियों की ही थी) तोड़कर बाजार के ‘मनमोहनी’ छ्लावे बेचती कांग्रेस पर फिदा था। हो भी क्यों न, ‘खबर’ बेचने के अपने कारोबार में ठेका-प्रथा और अधिकतम काम के लिए कम-से-कम पगार जैसे उदारीकरण के ‘वरदानोँ’ का सबसे ज्यादा फायदा भी तो इसी मीडिया ने उठाया है! और आज जब शोषण और लूट की इन्हीं सब नीतियों के लिए मनमोहन सिंह “अंडरएचीवर” बन चुके हैं, तब यह मीडिया पूरी पेशेवर सफाई और ‘निष्पक्षता’ से कारपोरेट पूंजी के नए, ‘सख्त’, ‘कठोर’ आदि, आदि…सेवक बने नरेंद्र मोदी के साथ हो लिया है।
यहां मेक्सिको के जिन अनुभवों को रखा गया है, उनकी नजर से देखें तो कांग्रेस से बड़ी मीडिया का इस तरह किनारा कर लेना ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। मसलन, मेक्सिको के पीआरआई की तरह कांग्रेस भी जहाँ सत्ता के सभी खुले-छुपे हिस्सों पर वर्षों की अपनी पकड़ के बावजूद (या शायद इसी वजह से) वंचित तबकों के बुनियादी मुद्दे हल नहीं कर सकी, वहीं लोकप्रिय दिखने की चुनावी मजबूरियों के चलते वह आज कॉरपोरेट मुनाफे को खुली छूट भी नहीं दे सकती। इस तरह, ‘विकास’ और ‘सबका साथ’ के दावों के अपने ही अंतर्विरोधों में टूटी-फूटी यह पार्टी सिर्फ मुनाफे के लिए ‘प्रतिबद्ध’ बड़ी पूंजी की पहली पसंद नहीं रह गई है। वहीं, एकमुश्तिया वोट बटोरने के अपने हिंदू सांप्रदायिक एजेंडे को कारपोरेटी विकास की चकमक चाशनी में पेश करते मोदी बड़ी मीडिया के लिए ज्यादा जिताऊ-बिकाऊ खिलाड़ी (जैसे मेक्सिको में पीएएन) बन चुके हैं!
आजकल (या कम से कम मोदी को सीधे-सीधे चुनौती देने तक) बड़ी मीडिया की लाडली बनी आम आदमी पार्टी के हो-हल्ले के पीछे झांके, तो लोकतंत्र पर भारी पड़ते पूँजी का खेल यहाँ भी दिख जाता है। सबसे पहले, सिर्फ़ पैसों के हेरफेर को भ्रष्टाचार समझने के चलताऊ नजरिए से लैस ‘आप’ ने भ्रष्टाचार की टी.वी. पर नहीं दिखने वाली, लेकिन हमारी पूरी व्यवस्था की जड़ में बैठी सच्चाइयों (आबादी का बड़ा हिस्सा भूमिहीनों का है, जिसमें ज्यादातर दलित हैं) से लोगों का ध्यान हटा दिया है। फिर, इतिहास की कई नाइंसाफियों की उपज ऐसी सच्चाइयों को ‘सामान्य’ समझने-समझाने वाले हमारे समाज के बड़े हिस्से को बिना कोई जनांदोलन खड़ा किए ‘ईमानदार’ होने और व्यवस्था ‘बदलने’ का फास्टफुडिया इल्हाम भी दे दिया गया है! यह तब जब दलितों-मुसलमानों-स्त्रियों सहित व्यवस्था के सभी शिकारों पर ‘आम आदमी’ के इस पार्टी का रवैया बिल्कुल सतही और आखिरकार शोषक सत्ताओं और विचारों को ही आगे बढ़ाने वाला है। मसलन, औरतों के सवालों को उनकी पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक गहराई में उठाने की बजाय यहाँ इन सवालों का निशाना रही पुरुषसत्ता को ही “महिलाओं की कमांडो फोर्स” का नया हथियार दे दिया गया है! वहीं, धार्मिकता, पूरी राजनीतिक व्यवस्था और पुलिस आदि के जरिए वार करती सांप्रदायिकता पर सीधी बहस न खड़ी कर इसे सिर्फ़ मोदी विरोध और मुसलमानों को बेहतर शिक्षा और रोजगार के अभी तक चल रहे सरकारी छलावे के चुनावी तोतारटंत के भरोसे छोड दिया गया है। लोकतंत्र के तमाम दावों के बावजूद आप का अंदरूनी ढाँचा (जिसमें चलती सिर्फ़ पोस्टर ब्वाय अरविंद केजरीवाल और उन्हीं के चुने कुछ टेक्नोक्रेट लोगों की ही है) और स्वराज का इसका मंत्र (जहां सर्वशक्तिशाली लोकपाल न तो जनता द्वारा चुना जाएगा और न ही उसकी कोई जन-जवाबदेही होगी) भी भागीदारी और जनवाद के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं देते।
इस तरह, सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण तथा पूँजीपतियों के ही हित साधने वाली मौजूदा आर्थिक नीतियों पर पूरी सहमति (याद करें केजरीवाल के “अच्छे” उद्योगपतियों के ‘बिजनेस’ में दखल न देने की वह चारों तरफ छापी गई टिप्पणी!) के साथ ‘आप’ ‘मुख्यधारा’ की राजनीति के लिए कोई खतरा नहीं है। बल्कि, आज कॉरपोरेट व्यवस्था के लिए भी चंद नामों पर चलती और और देश के अलग-अलग हिस्सों से रोजाना उठ रही प्रतिरोध की अनगिनत आवाजों से कोई भी गहरा जुड़ाव न रखने वाली यह पार्टी एक वफादार और ‘ईमानदार’ ‘विरोधी’ बन रही है।आश्चर्य नहीं कि इसी व्यवस्था की जय-जयकार करती बड़ी मीडिया, जो जनांदोलनों को “अराजक”, “माओवादी” आदि बताकर खबरों से गायब कर दिया करती है, शुरू से ही ‘आप’ को चमका-दमका कर खड़ा करती आई है (बहुत-कुछ मेक्सिको के पीटी की तरह)! यह जरूर है कि जबर्दस्त संगठन और हिंदुत्व के वोटखींचू ताकत की वजह से लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा इस मीडिया से ’आप’ से ज्यादा तरजीह पा रही है, लेकिन आने वाले दिनों में जब मोदी का खूनी चेहरा रोज नए ग्राहक ढूँढ़ती बड़ी पूँजी के काम का नहीं रहेगा, तब ‘साफ-सुथरी’ ‘आप’ को दुबारा हीरो बनते देर नहीं लगेगी।
कुल मिलाकर, चौबीसो घंटे की प्राईम टाईम खबर बने मोदी (जिनकी रैलियों और वहां जुटाई गई भीड़ को कई-कई कैमरों से बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है), फिलहाल सिर्फ़ विज्ञापनों की तरह बीच-बीच में दिखाए जाते केजरीवाल और छोटू बना दिए गए कांग्रेस और अन्य दलों के साथ बड़ी मीडिया लोकतंत्र का एक और “महापर्व” रचने मॆ जुट गई है। हालांकि, इस महापर्व को रचने-बेचने के लिए महाभारत और दबंग के नायकों (सभी मर्द और सवर्ण!) की आदि हो चुकी जनता को मुट्ठी बाँधे, लड़ने को तैयार मोदी और केजरीवाल/राहुल दिखाकर इनके “सीधे मुकाबले” का भुलावा भी दिया जा रहा है! और, मेक्सिको की ही तरह यहाँ भी ‘भविष्य’ के इन चेहरोँ की नूराकूश्ती मेँ हमारे जल-जंगल-जमीन को डकारते बडी पूँजी के खतरे पर कहीँ कोई बात नहीँ होती।
लेखक पी. कुमार मंगलम का यह लेख रियाज़-उल-हक़ द्वारा ब्लॉग 'हाशिया' पर पोस्ट किया गया था।.