खबर करीब महीने भर पुरानी है. बीते नवरात्र के आसपास की. ये खबर भड़ास के मेलबाक्स में पड़ी रह गई थी, ढेर सारी मेल के बीच में दब-छिप कर. पर आज जब इस पर नजर पड़ी तो लगा कि इसे पाठकों के समक्ष लाया जाना चाहिए. आखिर महिला पत्रकार से ऐसा कहने की हिम्मत भला कैसे कर सकता है कोई डीपीआरओ. पर इससे बड़ी बात ये कि अपने घरों के मामले में घनघोर चुप्पी साधे रखने वाले मीडिया हाउसेज दूसरों के घरों में चलने वाले मामलों को कितने चटखारे लेकर छापते हैं, वो भी इस खबर से आप समझ सकते हैं. -एडिटर, भड़ास4मीडिया
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