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आगामी चुनाव दो कुंवारों की अग्नि परीक्षा से कम नहीं है

बदलती राजनीति, बदलते लोग और उनके बदलते मिजाज ने राजनीति को एक ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जिसमें नेताओं की अस्मिता ही खतरे में पड़ती जा रही है। सालों साल तक देश की राजनीति को अपने इशारे पर नचाने वाले और जनता को धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने वाले नेता अब यकीन के साथ यह नहीं कह सकते कि जनता उन पर विश्वास कर लेगी और उन पर सब कुछ न्योछावर कर देगी। यह राजनीतिक बदलाव का ऐसा संक्रमण काल है कि बड़े सुरमा भी जनता और उनकी अपेक्षा के सामने पस्त होकर घिघियाते नतर आ रहे है।

बदलती राजनीति, बदलते लोग और उनके बदलते मिजाज ने राजनीति को एक ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जिसमें नेताओं की अस्मिता ही खतरे में पड़ती जा रही है। सालों साल तक देश की राजनीति को अपने इशारे पर नचाने वाले और जनता को धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने वाले नेता अब यकीन के साथ यह नहीं कह सकते कि जनता उन पर विश्वास कर लेगी और उन पर सब कुछ न्योछावर कर देगी। यह राजनीतिक बदलाव का ऐसा संक्रमण काल है कि बड़े सुरमा भी जनता और उनकी अपेक्षा के सामने पस्त होकर घिघियाते नतर आ रहे है।

ऐसे में मोदी के विरोध में खड़े कांग्रेस के राहुल गांधी के सामने चुनौती कुछ ज्यादा ही है। पिछले एक दशक की कांग्रेस की राजनीति और सत्ता शासन से आजीज आ चुकी जनता क्या कांग्रेस के समर्थन में फिर खड़ी होगी और क्या वह राहुल गांधी में विश्वास करेगी कहना मुश्किल है। थक चुकी कांग्रेस में राहुल कितना उर्जा दे पाऐंगे कहना मुश्किल है। जिस कांग्रेस का मनोबल ही टूट गया हो, जिस कांग्रेस के तमाम नेता राहुल के सहारे की राजनीति कर रहे हो भला मोदी के आक्रमण के सामने क्या कर पाऐंगे कहना मुश्किल है। जिस मोदी के पीछे पूरी भाजपा और संघ खड़े हो वहीं अकेला रण में खड़ा राहुल कांग्रेस को कितना बचा पाऐंगे, यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता। थक चुकी कांग्रेस का अकेला योद्धा राहुल की राजनीति पर हम और विस्तार से चर्चा करेंगे लेकिन उससे पहले मोदी बनाम राहुल की राजनीति पर एक नजर।
 
विश्व के इतिहास में ऐसा बहुत कम हुआ है कि किसी बड़े लोकतंत्र में दो कुंवारे नेताओं के बीच देश की लीडरशिप के लिए जंग हो। लेकिन भारत में ऐसा ही हो रहा है। आगामी लोकसभा चुनाव में दो बड़ी पार्टी कांग्रेस और भाजपा के दो बड़े चेहरे राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी आमने सामने खड़े दिख रहे है। दोनों नेताओं की अपनी अपनी कहानी है, अपने अपने राग रंग है और अपने अपने पैंतरें। दोनों की अपनी विरासत भी है। एक संघ की उपज हैं तो दूसरे नेहरू वंशवाद के प्रतीक। दोनों की अपनी अपनी कलाएं भी हैं और अपने अनोखें अंदाज भी। एक सशक्त भारत की बात करता है तो दूसरा सबके लिए भारत निर्माण की कहानी रचता है। एक को संघ की राजनीति में यकीन है तो दूसरे को सेकुलर राजनीति में विश्वास है। एक अपने गर्वीले भाषण से जनता की लहू को गर्म कर जाता है तो दूसरा अपने भाषण के जरिए राजनीतिक बहस शुरू कर देता है।

तालियां दोनों के बजती है लेकिन एक पर दूसरा भारी प्रतीत होता है और यही प्रतीति आगे की राजनीति में कुछ कहने के लिए स्पेस छोड़ जाती है। 2014 लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम का उम्मीदवार घोषित किया गया है और कांग्रेस में राहुल गांधी को पीएम बनाने की बात चलते चलते रूक जाती है। फिलहाल, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों ही कुंवारे हैं इसलिए 2014 के चुनाव को दो कुंवारों के बीच युद्ध की संज्ञा दी जा सकती हैं। लेकिन ऐसा अमेरिका जैसे देश में नहीं है। यह बात और है कि पिछले 20 सालों में हमने अमेरिका के तमाम तामझाम को अपनाने में कोई कमी नहीं की है लेकिन उच्च पदो के लिए होने वाले चुनाव के मामले में भारत और अमेरिका में बड़ा अंतर है।

अमेरिका में राष्ट्रपति शादीशुदा है या नहीं, वहां के वोटर्स के लिए यह बात बहुत मायने रखती है। अमेरिकी नागरिकों को अपने देश के सर्वोच्च पद के लिए एक ठोस पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार की दरकार होती है। लोग चुनाव प्रचार अभियान के दौरान राष्ट्रपति चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार की बीवियों को मुस्कुराते और हाथ हिलाते सपोर्टिव रोल में देखना पसंद करते हैं। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। स्वतंत्रता के बाद भारत में नेताओं में वंशवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति देखी गई। इससे तंग आकर भारतीय जनता उन लोगों को सत्ता की डोर थमाती रही हैं, जिनका कोई परिवार नहीं। लोगों ने ऐसे कुंवारे नेताओं पर यकीन किया जिन्होंने सत्ता के शीर्ष पर रहते हुए लंबी पारी खेली और कुछ राज्यों में अभी भी उनका राज है। लेकिन इस बार की लड़ाई कुछ कम नहीं है। सत्ता शीर्ष के लिए दो पार्टी के दो कुंवारे एक दूसरे को मात देने के लिए मैदान में खड़े है और कोशिश सिर्फ यह हो रही है कि इन दो कुंवारों में से किसके पक्ष में जनता जाने वाली है। कौन किस पर भारी पड़ने वाला है। आप कह सकते हैं कि आगामी चुनाव दो कुंवारों की अग्नि परीक्षा से कम नहीं।
             
पहले मोदी की चर्चा। मोदी पर संघ ने दांव खेला है। और यकीनन संघ का यह अंतिम दांव भी हो सकता है। संघ के इस अंतिम दांव पर भाजपा की पूरी राजनीति एकमत है। दांव चल गया तो भाजपा की राजनीति चल गई और दांव फेल हो गया तो मोदी की राजनीति चली जाएगी। राजनीति यह है कि इस चुनाव के बाद भाजपा में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में कई योद्धा सामने आने वाले है और यह भी सही है कि योद्धाओं की उस लडाई में भाजपा के भीतर बिखराव की भी संभावना है। खैर भाजपा की राजनीति चाहे जो भी हो लेकिन मोदी की राजनीति साफ है। लेकिन यह यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि मोदी कुंवारे भी है। सच तो यह है कि मोदी की शादी जशोदा बेन से हुई और उसके साथ मोदी 3 माह रहे भी।

जशोदा बेन मोदी के बड़नगर वाले गांव में करीब चार साल तक रही और फिर अपने मायके चली गई और वहीं पढ़ लिखकर शिक्षिका की नौकरी कर ली। अब जशोदा बेन का नौकरी से अवकाश हो गया है। इस बीच मोदी ने अपनी पत्नी से तलाक लेने की भी कोशिश की थी लेकिन धर्मपरायन जशोदा बेन ने इसे स्वीकार नहीं किया और दोनो अलग अलग रहने लगे। जशोदा बेन ने कभी भी मोदी के सामने आने की कोशिश नहीं की। फिर भी मोदी कुंवारे है। देश के लोग उन्हें कुंवारा ही जानते है और मोदी इस पर खुश भी होते है।

राजनीति में नरेंद्र मोदी बीजेपी के बहुत सफल मुख्यमंत्री रहे हैं। वह गुजरात में तीन बार लगातार बीजेपी को चुनाव में जीत दिला चुके हैं। वह कांग्रेस की वंशवादी राजनीति का मजाक उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ते और वाजपेयी की तरह अपने वोटर्स को बताते रहते हैं कि उनके पास कोई परिवार नहीं है इसलिए उनकी सरकार में वंशवाद के लिए कोई जगह नहीं। कई बातों को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना होती है लेकिन कई लोगों का ऐसा भी मानना है कि उन्होंने अपनी मेहनत से गुजरात को बदल दिया है। बीजेपी ने उनको पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। भाजपा में मोदी को जीताने की होड़ लगी हुई है। मोदी के एक झूठ को प्रमाणित करने के लिए भाजपा के लोग और सौ झूठ बोलने से बाज नहीं आते। भाजपा का लक्ष्य मोदी  निर्धारित है। भाजपा में चुनाव जीतने वाले लोगों की लंबी सूची है और वे मोदी को प्रचारित कर अपनी ताकत को और बढाने में लगे हैं लेकिन कांग्रेस में ऐसा कुछ भी नहीं है।
           
और कांग्रेस के राहुल गांधी के पास क्या है? कांग्रेस की विरासत वाली राजनीति के अलावा राहुल पास कुछ नहीं है। इमानदार, युवा, कुंवारा  और उर्जावान होने के बावजूद उनके पीछे कांग्रेस की वह राजनीति और नेता नहीं है जो दावे के साथ कह रहें हों कि कांग्रेस के इतने नेता अपने दम पर चुनाव जीतने का मादा रखते हों। भाजपा के चुनावी रणनीतिकार और कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार को गौर से देखा जाए तो साफ हो जाता है कि कुछ मुट्ठी भर लोगों को छोड़ दिया जाए तो बाकी के लोग राहुल की राजनीति और उसके संभावित करिश्में की बाट जोह रहे है। अधिकतर कांग्रेसी राहुल के भरोसे बैठ गए है। पार्टी के लिए नीति क्या बनेगी यह राहुल तय करेंगे। मीडिया प्रबंधन कैसे होगा यह राहुल तय करेंगे।

सरकार कैसे चलेगी और कौन सी योजना बेहतर होगी यह राहुल तय करेंगे। पार्टी का चुनावी एजेंडा क्या होगा और चुनावी घोषणापत्र में क्या लिखा जाएगा यह राहुल तय करेंगे। टीम में कौन शामिल होगा और किस राज्य में कौन राजनीति करेगा यह भी राहुल ही तय करेंगे। कहा जा सकता है कि भाजपा में जहां मोदी को जीताने के लिए सभी नेताओं में होड़ लगी हुई है, वहीं कांग्रेस में राहुल के सहारे जीतने वालों की होड़ लगी हुई है। राहुल पर वंशवादी राजनीति का भी टैग लगा हुआ है। इसके अलावा तमाम तरह की जन नीतियों और योजनाओं के बावजूद भ्रष्टाचार और महंगाई ने राहुल के कदम को रोक रखा है। राहुल अपनी  मां सोनिया गांधी के साथ पार्टी की हर गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी दे रहे हैं और मीडिया से भी मुखातिब हो रहे हैं लेकिन मोदी का तोड़ उन्हें नहीं मिल रहा है। कांग्रेस में उनको पीएम पद का स्वभाविक उम्मीदवार के तौर पर देखा जाता है। हलांकि अभी तक इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है।
          
आगामी
लोकसभा चुनाव में मोदी और राहुल के बीच राष्ट्रीय स्तर पर पहला मुकाबला होगा। यह बात और है कि पांच राज्यों के पहले राउंड के मुकाबले में जहां टीम मोदी ने राहुल को नाकआउट कर दी वहीं अब  कांग्रेस उपाध्यक्ष के सामने चुनौती मोदी की लहर रोकने की है। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित होने के बाद नरेंद्र मोदी फिलहाल राजनीति के केंद्र में हैं। पांच राज्यों के चुनाव परिणाम ने मोदी की हैसियत को और बढ़ा दिया है। यह बात और है कि पांच राज्यों में से चार राज्यों में कांग्रेस की हार के पीछे के कारण कुछ और ही रहे हो लेकिन उपर से देखने में मोदी की बादशाहत ही झलकती है। इन राज्यों में भाजपा की यही जीत मोदी की राजनीति को और युगम और सरल बनाती जा रही है।

वहीं, राहुल गांधी पहली बार अपने जीवन की सबसे कठिन चुनौती से जूझ रहे हैं। कांग्रेस में औपचारिक रूप से राहुल का कद बढ़ने के बाद यह दूसरा  चुनाव हैं। इस दफा संगठन की कमान से लेकर टिकटों के वितरण तक में पूरी तरह न सिर्फ राहुल का दखल है। ऐसे में सियासत अब मोदी बनाम राहुल ही है। इसके बावजूद चूंकि मोदी और राहुल पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर कसौटी पर इन्हीं नतीजों से कसे जाएंगे। चैतरफा आ रही खबरों और चुनाव सर्वेक्षणों से परेशान कांग्रेस और सरकार के नेता आक्रामक रुख अपनाकर अपने कार्यकर्ताओं का उत्साह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मगर अंदर से सभी हिले हुए हैं। लड़ाई से पहले कांग्रेस और सरकार में मतभेद सतह पर है। कांग्रेस के भीतर भी पुराने बनाम नए नेताओं का द्वंद्व चरम पर है। इन हालात में यदि कांग्रेस का प्रदर्शन दयनीय रहा तो पार्टी के भीतर न सिर्फ भ्रम बढ़ेगा, बल्कि जानकार मान रहे हैं कि राहुल गांधी भी इस दफा गंभीर सवालों के घेरे में होंगे। फिलहाल, कांग्रेस ऐसी किसी स्थिति के लिए तैयार नहीं है, लेकिन यह तय है कि नतीजे यदि कांग्रेस के विपरीत गए तो राहुल की आगे की राजनीतिक राह कठिन होगी।

 

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अखिलेश अखिल। संपर्कः [email protected]

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