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क्या वोट डालने भर से हमें बेहतर जिंदगी, वास्तविक आजादी मिल जायेगी?

16वीं लोकसभा के चुनावों की घोषणा हो चुकी है। सभी पार्टियां अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में उतर गयी है। चुनाव आयोग ने भी अपनी कमर कास ली है "आदर्श" आचार संहिता के नाम पर। जनता को वोट डालने के लिए समझाया जा रहा है ताकि "महान" लोकतंत्र की गरिमा को बचाया जा सके। जनता को बताया जा रहा है कि कैसे उनका एक वोट देश कि तस्वीर बदल सकती है? कैसे उनका एक वोट उनके पसंद का नेता चुन सकती है? कैसे उनका एक वोट उसके सरे समस्याओं का हल कर सकती है? और जनता को ये भी समझाया जा रहा है कि कैसे उनके वोट नहीं डालने से इस "महान" लोकतंत्र पर दाग लग सकता है और दुनिया के सबसे "बड़े" लोकतंत्र की बेइज्जती हो सकती है?

16वीं लोकसभा के चुनावों की घोषणा हो चुकी है। सभी पार्टियां अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में उतर गयी है। चुनाव आयोग ने भी अपनी कमर कास ली है "आदर्श" आचार संहिता के नाम पर। जनता को वोट डालने के लिए समझाया जा रहा है ताकि "महान" लोकतंत्र की गरिमा को बचाया जा सके। जनता को बताया जा रहा है कि कैसे उनका एक वोट देश कि तस्वीर बदल सकती है? कैसे उनका एक वोट उनके पसंद का नेता चुन सकती है? कैसे उनका एक वोट उसके सरे समस्याओं का हल कर सकती है? और जनता को ये भी समझाया जा रहा है कि कैसे उनके वोट नहीं डालने से इस "महान" लोकतंत्र पर दाग लग सकता है और दुनिया के सबसे "बड़े" लोकतंत्र की बेइज्जती हो सकती है?

जनता को ये भी समझाया जा रहा है कि उनके वोट नहीं डालने के कारण ही देश में इतनी सारी समस्याएं है यानि कि वोट नहीं डालने वाले ही देश के "विकास" में सबसे बड़ी बाधा है और वोट का बहिष्कार करनेवाले तो देश के "आतंरिक" सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा है। 15वीं लोकसभा चुनाव में भी मात्र 59% लोगों ने ही मतदान किया था, इस बात को ध्यान में रखते हुए इस बार चुनाव आयोग कह रहा है कि इस बार अगर कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं हैं तो "नोटा" पर वोट कीजिये, अब ये बात तो सबको मालूम हो चूका है कि "नोटा विकल्प" एक "थोथा विकल्प" है, ये विकल्प सिर्फ वोट के बहिष्कार करनेवाले लोगों के गुस्सा को शांत करके "महान" लोकतंत्र के "महापर्व" में हिस्सेदार बनाने के लिए है।

अब जब चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है तो सभी पार्टियों ने अपने एजेण्डे तय कर लिए हैं, दुनिया के सबसे अधिक अशिक्षित, सबसे अधिक बेरोजगार और सबसे अधिक कुपोषण का दंश झेल रहे देश में ये प्रमुख एजेंडे सभी पार्टियों ने सिरे से गायब कर दिया हैं। 10 साल से सरकार चला रही कांग्रेस अपने कार्यकाल में किये गए कार्यों के लिए वोट मांग रही है तो वहीँ भाजपा सभी समस्याओं का हल "नरभक्षी " नरेंद्र मोदी को सत्ता में बैठने को बता रही है। अगर कांग्रेस के 10 साल के कार्यकाल को देखा जाये तो जितने घोटाले यूपीए 2 की सरकार में हुए, उतने घोटाले 62 साल में नहीं हुए होंगे। ऐतिहासिक घोटालों की सरकार ने बड़े पूंजीपतियों के लिए लूट के द्वार पूरी तरह से खोल दिए हैं।

उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की नीतियों ने अमीर को और अमीर बनाया तो वहीँ गरीब को और गरीब। बेतहाशा बढ़ती मंहगाई ने आम लोगो के थाली से अनाज गायब कर दिया है। एक तरफ मंहगाई लगातार बढ़ रही है तो वही दूसरी तरफ किसानों के अनाज की कीमतें घट रही है, किसानों को अपने अनाज का समुचित मूल्य नहीं मिल पाता, जिस कारण किसानों की दर्द विदारक आत्महत्या की ख़बरें दिल को को दहला रही है। अपने 10 साल के शासनकाल में कांग्रेस ने अपनी ही जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है, पुरे मध्य भारत में, बिहार झारखण्ड और जिस भी राज्य के जंगलों में खनिज पदार्थ की बहुलता है, उसे पूंजीपतियों को औने-पौने दाम में सौंपने के लिए आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन के अधिकार से वंचित करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी है।

इसका विरोध करने वालों के खिलाफ कभी सलवा-जुडूम तो कभी ऑपरेशन ग्रीन हंट तो कभी सेंदरा जैसे अभियान चलाकर आदिवासियों को अपने में ही लड़ने की घृणित चल चल रही है। इन जन विरोधी अभियानों के जरिये सैकड़ों घरों को जलाया गया, हजारों आंदोलनकारियों को गोलियों से भून डाला गया लेकिन फिर भी आंदोलन की आग लगातार बढ़ती ही जा रही है। अब सरकार ने देश की सुरक्षा के लिए इसे सबसे बड़ा खतरा करार दिया। जिन सरकार के शासनकाल के दौरान किये गए "कुकर्मों" की फेहरिस्त इतनी लम्बी हो, आखिर उसे फिर जनता के सामने अपने चेहरे को ले जाने में शर्म नहीं आती? जो भाजपा, मोदी का नाम लेकर चुनाव की बैतरणी पर करना चाहती है और वो जिस गुजरात मॉडल की बात करता है, आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि इसे मोदी के नेतृतव में 2002 में हजारों मुसलमानों को मौत के घट उतार दिया गया था? हम कैसे भूल सकते हैं कि देश में सबसे अधिक कुपोषण अगर कहीं हैं तो वो गुजरात में है? हम कैसे भूल सकते हैं कि ये मोदी उसी "संघ" के दुलारे हैं, जिनकी अघोषित निति देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने का है? क्या हम एक फासिस्ट, दंगाई और अल्पसंख्यकों के दुश्मन के हाथ में देश कि सत्ता सौंपेंगे?

इन दोनों से अलग होने का दावा करनेवाली केजरीवाल की पार्टी "आप" ने भी अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है। इस पार्टी की अपनी कोई विचारधारा नहीं है, इनकी अपनी कोई निति भी नहीं है, मतलब कि ये महाशय इसी व्यवस्था में अपनी "ईमानदारी" के बदौलत सुधार करेंगे। लेकिन इनकी पार्टी की ईमानदारी उसी समय तार-तार हो गयी, जब इनके साथियों ने चुनाव में टिकट ना मिलने के कारण अपने में ही सर फुटौवल चालू कर दिया और केजरीवाल की सभी दावों की पोल खोल कर रख दी। अब तो ये भी सामने आ गया कि कैसे इसने एक न्यूज चैनल को पैसे देकर सारी कहानियां लिखवाई और उस अनुसार ही अपने कदम चुनाव के मैदान में बढ़ाया। हाँ, एक बात इस पार्टी ने जरुर अच्छा किया कि वामपंथ और प्रगतिशीलता का नकाब ओढ़ें बुद्धिजीवियों का नकाब नोचकर फेंक डाला और बड़ी ही बेहूदगी और बेहयाई के साथ सुवरबाड़े में जाने के लिए ललचाये वामपंथियों ने, आंदोलन के नाम पर वसूली करनेवाले लोगों ने और एनजीओ का पैसा लेकर गरीबों का हमदर्द बनाने वाले नौटंकीबाजों ने "आप" का दमन थम लिया और सुवरबाड़े में जाने कि कसरत में लगे हुए  ,हैं।

वहीं फिर, इस बार तीसरा मोर्चा टांय -टांय फिस्स हो गया है। कुनबा बनने से पहले ही बिखरने लगा है। तीसरा मोर्चा में शामिल सभी दलों के मुखिया अपने आप को प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में ही देख रहे है। इस मोर्चे की सबसे बड़ी मुसीबत ये है की ये सभी किसी ना किसी राज्य में मजबूत है और वहाँ इसके प्रतिद्वंदी भी क्षेत्रीय दल ही है और वो आपसी विरोध के कारण एक मंच पर नहीं आ सकती है।

इस चुनाव में सबसे बुरी स्थिति संसदीय वामदलों की है, सुवरबाड़े के रास्ते क्रांति का सपना देखनेवाले ये लोग भी कहीं से भी अन्य शासकवर्गीय पार्टियों से अलग नहीं है। आज जिस दल को लेकर इन लोगों ने तीसरा मोर्चा बनाया है, वे सभी दल कभी ना कभी एनडीए या यूपीए का हिस्सा रहा है और नव संशोधनवादी पार्टी भाकपा माले लिबरेशन की स्थिति तो सबसे ख़राब है। इसे ना तो वाम मोर्चा "वाम" मानता है और नहीं दक्षिणपंथी पार्टियां अपने लायक मानती है, इसलिए ये "एकला चलो रे" की राह पर चलने को अभिशप्त है।

इस चुनाव में फ़िल्मी हीरो, हीरोइनों, गायकों, खिलाडियों, भ्रष्ट आंदोलनकारियों, देह प्रदर्शन करनेवाली मॉडलों और जंग खाये हुए नौकरशाहों की भी भरमार है यानि कि कोई भी ये मौका चूकना नहीं चाहता है और ये महान "नेतागण" सभी पार्टियों में बराबर की शोभा बढ़ा रहे हैं।

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अब जबकि जगह-जगह चमकते होर्डिंगों और बैनरों ने ये साफ कर दिया है कि इस बार का चुनाव सबसे खर्चील चुनाव होने जा रहा है, तो आखिर इस देश की 80% जनता क्या करे? वो जनता क्या करे, जो हर साल सिर्फ सी उम्मीद से वोट करता है कि इस बार तो कुछ अच्छा होगा? वो जनता क्या करे, जिसको वोट डालने के नाम पर शराब और कुछ पैसे मिल जाते हैं ताकि उस पैसे से कुछ दिन उसके घर का खर्च चल सके और शराब का आनन्द भी ले सके?

आज जब ये बात साफ हो गयी है कि हमारे देश में 67 सालो से निजाम के सिर्फ चेहरे बदल रहें हैं ना कि उनकी नीतिया और हमारे देश में लोकतंत्र नहीं लूटतंत्र चल रहा है। गणतंत्र अब "गनतंत्र" में तब्दील हो चूका है। इस व्यस्था की सारी खामियां अब साफ-साफ दिखने लगी हैं। क्या इस चुनाव में वोट डालने से अर्ध औपनिवेशिक और अर्ध सामंती समाज का खत्म हो जायेगा? क्या इस चुनाव में वोट डालने से हमें एक बेहतर जिंदगी मिल पायेगी? क्या इस चुनाव में वोट डालने से हमें वास्तविक आजादी मिल जायेगी? अगर नहीं, तो फिर इस सड़ी और बदबूदार व्यवस्था का हिस्सा बनने से क्या फायदा? आज जरुरत है की हम खुले शब्दों में बोल दें कि "जेहन कि लूट को, इस खुले झूठ को मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।"

 

लेखक रूपेश कुमार सिंह से [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।

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