फेसबुक पर जनसत्ता नामक एक ग्रुप बना है. इस ग्रुप में देश के ढेर सारे वरिष्ठ कनिष्ठ संपादक और पत्रकार हैं. गंभीर मुद्दों पर चर्चा के लिए गंभीर लोगों द्वारा बनाए गए इस गंभीर ग्रुप की खासियत ये है कि यह पब्लिक के लिए आम नहीं है. यह क्लोज्ड ग्रुप है. यानि जो इसके सदस्य हैं, वही लिख देख पढ़ पाएंगे. बाकी लोगों को भनक तक नहीं लग सकेगी कि गंभीर लोग किस गंभीर मुद्दे पर गंभीर विमर्श में क्या क्या कह लिख रहे हैं. कुछ सदस्य इस बात से भी दुखी हैं कि इस क्लोज्ड ग्रुप की बहस की बातें भड़ास तक पहुंच जा रही हैं. इस फोरम में हिंदी मीडिया को लेकर एक लंबी बहस हुई है, जिसे यहां पेश किया जा रहा है. -एडिटर, भड़ास4मीडिया
(आलोक जी, इस मुद्दे को बहस में रखना चाहता हूं…यदि आपको ठीक लगे तो आगे बढ़ा दीजिए….सादर) मुझे इजाजत मिल चुकी है कि अपनी जिज्ञासा इस चौपाल पर रखूं…सप्ताह भर से पत्रकारिता पर बहस जारी है और मैं लगातार एक सवाल उठा रहा हूं कि अब इस मुकाम से हिंदी पत्रकारिता किधर बढ़े..इस पर गौर किया जाना चाहिए, बहस होनी चाहिए। बीते दो दशकों में हिंदी पट्टी में साक्षरता बढ़ी है साथ ही मीडिया इंडस्ट्री में उछाल देखने को मिल रहा है, लेकिन मीडिया से वो सूचना गायब है जो हमारी और आपकी जिंदगी को प्रभावित करती है..इस पर मेरी अपनी सोच है कि नियो लिबरल इकॉनमी में सरकार की नीतियों को समझना बेहद जरूरी है और हिंदी पत्रकारिता इस दायित्व को उठाने को तैयार नहीं है, या फिर इस काबिल नहीं है। मनरेगा..फूड सिक्योरिटी…लैंड एक्विजेशन बिल, रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटलमेंट बिल या फिर व्हिसिल ब्लोअर बिल का मुद्दा हो..हिंदी मीडिया में सन्नाटा है, खबरों में कोई अंतरदृष्टि नहीं है। संक्षेप में कहूं- क्या हिंदी मीडिया राजनीति की दलीय पत्रकारिता से इतर व्यवस्था की समझ से लैस होता दिखाई दे रहा है, क्या हिंदी मीडिया के दिग्गज हिंदी पट्टी को दो कदम आगे ले जाने में सक्षम या काबिल हैं….यदि हां तो वो कौन हैं,,और नहीं तो क्यों नहीं.. Sumant Bhattacharya
Ashish Awasthi सहमत
Ashish Awasthi आजमगढ़ /संजर पुर की रिपोर्टिंग ने तो सारी सीमाएं तोड़ के रख दी ….. FRA 2005 जैसे सुब्जेक्ट पे बहुत सतही रिपोर्टिंग ….. दरअसल पत्रकारिता जब क्लास से पढ़ के निकली ..उसने भी बहुत कुछ असर डाला |
Ashish Awasthi कल शाम एक सहाफी मित्र के यहाँ भोजन पे थे … दो चार और सहाफी थे … FRA पे बात चली … तो एक का कहना था की forest dwellers के पक्के माकन लखनऊ में है और इंसेंटिव के लिए सुरमा में एक झोपडी दाल राखी है …. काफी सेनिओर थे वोह …….. तो दुसरे ने फोरेस्ट विलेज और रेवेनुए विलेज पे आग्यानता दिखाई ….. मुआफ कीजियेगा इससे गलत अर्थो या पूरी जम्मत की बात न मानियेगा ….. सिर्फ दस्तखत दे रहा हूँ किसी पे तंज नहीं .. सादर
Alok Joshi मैं इस मामले में माफी चाहता हूं.. जो काम मैं खुद कर रहा हूं.. उसे आप लोग पत्रकारिता मानते नहीं.. हालांकि मैं मानता हूं.. दूसरे … हिंदी के अखबारों से काफी हद तक कटा हुआ हूं मुंबई में रहने के कारण.. इसलिए अधिकारपूर्वक टिप्पणी करना मुश्किल है.. करूंगा तो था, थे थी टाइप हो जाएगा… इसिलए कुछ वक्त बाद शायद …..
Sandeep Verma इन् मुद्दों पर तो हिंदी मिडिया में कोई उलेखनीय चर्चा नहीं दिखती ..आधार कार्ड आपके उलेख से छूट ही गया है . कोई जानता भी है की आधार कार्ड को क्यों और कैसे ठन्डे बस्ते में डाला जा रहा हैं . मंत्री जी के वक्तव्य के बाद तो समाचार पत्र पूरा ही हो जाता है . फ़ूड सिकुरिटी पर तो शरद पवार का वक्तब्य ही काफी होता है . ..मुझे लगता है की चंचल जी का अन्न दोष ही नहीं और भी कुछ जिम्मेदार है .पाठक को मंत्री के आने जाने की खबर देने तक मीडिया नें खुद को सिमित कर लिया है .
किरण बेदी का किराया कांड तो ऐसा फुलाया गया जैसे बोफोर्स की अकाउंट डिटेल्स मिल गयी हों ..दो दिन पहले एक मंत्री जी नें केजरीवाल की भी पोल खोल दी.
हमको तो बस ऐसी ही चासनी लगी टाफियां टिकाई जाती हैं .
हम लोग अखबार पढ़ पढ़ कर थोड़ी बहुत चेतना वाले हुवे हैं . अगर थोड़ा सा भी चिंतन पुरानी पीढ़ी में कहीं है तो उसमे समाचार पत्र की खाद-पानी है . आजकल तो दिमाग में मटठा डालने का काम हो रहा है . .
जनवाद या मार्क्सवाद तो छोडिये …अब तो ये संघी भी नहीं पैदा कर पा रहें . .
Virendra Nath Bhatt मीडिया से वो सूचना गायब है जो हमारी और आपकी जिंदगी को प्रभावित करती है.. ऐसा इसलिए है की आज as P Sainath had said “ the journalist are nothing more then the stenographers to their masters. सरकार की नीतियों को सब लोग ठीक से समझते है लेकिन न जाने क्यों उस जोरदार तरीके से नहीं बोलते जैसे रोज भाग्यफल बताते हैं.
Sandeep Verma भट्ट जी तय हो गया है की ये अन्न दोष है .
Virendra Nath Bhatt अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ
Sandeep Verma भट्ट जी , चंचल जी नें दो दिन पहले एक पोस्ट लगायी थी ,जो फिलहाल उनकी वाल पर है .महाभारत काल की एक कथा . इस पेज पर यह शब्द सभी कुछ कह देता है .इसलिए मैं और कुछ लोग यह शब्द प्रयोग कर रहें हैं ..अगर पोस्ट ना मिले तो मैं आपको लिंक प्रेरित करता हूँ .
Virendra Nath Bhatt Pl do
Sandeep Verma मेरी वाल पर शायद आ गया है ..आ जाए टॉप बताइए ..
Vinay Kant Mishra हिन्दी मीडिया में अख़बार बेचने वाला हाकर आज खबरची बना हुआ बैठा है. चौराहों पर चाय बेचने वाला दूकानदार भी सूचनाओं का संवाहक है. विज्ञापन दिलाने वाले अपराधियों, तस्करों और माफियाओं की हिन्दी पत्रकारिता में घुसपैठ बढ़ी है. सियासत की तरह हिन्दी मीडिया में बिचौलिए बढे हैं. अधिकांश मामले को मैनेज करता हुआ पत्रकार मैनेजर और कमाऊ पूत बनकर उभरा है. ब्लैक मेल कर जबरिया विज्ञापन वसूलते हुए हिन्दी पट्टी के पत्रकारों की छवि समाज में एक दबंग और माफिया के रूप में बनती जा रही है. विचारधारात्मक रूप से दरिद्र खबरची को ख़बर की पक्षधरता की बुनियादी समझ ही नहीं है. वह 8 फेल है. 10 पास और 12 पास जिला संवाददाता हैं. कैसे सुधरेगी यह हिन्दी पत्रकारिता! वैचारिक रूप से दरिद्र अखबारों के सम्पादक रिपोर्टर बनाने से पहले लिखावट की शिनाख्त क्यों नहीं करते!
Alok Joshi पत्रकारिता की शुरुआत ही उन लोगों ने की जो अपना अखबार खुद ही बेचा करते थे.. ये मिशनरी पत्रकारिता है.. और व्यावसायिक या प्रोफेशनल पत्रकारिता में हॉकर का एक महत्वपूर्ण स्थान है….इसे गाली देने के अंदाज में प्रयोग न करें.. मुझे सख्त एतराज है… बाकी सवालों पर बात हो सकती है.. वैचारिकता का अभाव दूर करने का एक ही रास्ता है.. विचारों पर जोर औऱ विचारों में जोर.. बात होगी तो असर करेगी..असर करेगी तो पकड़ेगी भी औऱ खींचेगी भी..
Vinay Kant Mishra आलोक सर! वह जमाना दूसरा था. आप देखिए एक पनेड़ी और एक हाकर जब पत्रकार कहलाने लगेगा तब काहे की विचारधारा? सर! बदलते हुए दौर में सभी की अलग अलग जिम्मेदारियां तय हैं. अखबारों की सर्कुलेशन यूनिट अलग है तो इन्हीं अखबारों के पक्ष में हाकरों की लामबंदी अलग. आज अखबार बेचने वाल हाकर प्रति अख़बार 1 रूपया कमीशन पाता है. फिर क्यों एक हाकर को पत्रकार बना दिया जाता है!
Alok Joshi घालमेल एक अलग विषय है.. पत्रकार मैनेजर बन जाता है. मालिक संपादक, मैनेजर – ब्रांड मैनेजर या संपादक का मॉनिटर, इसी तरह सर्कुलेशन के दबाव, विज्ञापन के दबाव जिसे आप हॉकर पत्रकार कह रहे हैं… मगर समाज के अलग अलग तबकों के अलग अलग हितों की बात करने के साथ और उसके बावजूद अगर हम हॉकर, पनेड़ी, बैक बेंचर जैसे शब्दों को जैसे इस्तेमाल कर रहे हैं वैसे करेंगे तो मुझे एतराज है।
Vinay Kant Mishra तब निर्णय आप ही दें सर! और यह भी बताएं कि यदि आप को किसी आदमी को पत्रकार बनाना हो तो कौन से प्रतिमान तय करेंगे? मानक बताने की कृपा करें!
Virendra Nath Bhatt अभी हाल में देश के सर्वाधिक बिकने वाले अखबार के लखनऊ संस्करण में एक लम्बी खबर छापी के लखनऊ में काकपिट ओवेर्फ्लो कर रहे हैं . यह खबर कई बार छापी लेकिन रिपोर्टर को कोई यह बताने वाला नहीं है की यह सोक पित है काक पित नहीं वो तो वायुयान में होता है . उसी अखबार में जहाज़ के उड़ने को टेक आन लिखा गया .
Vinay Kant Mishra विचारधारा से लैस और आन्दोलनों से निकले हुए लोग यदि इस फील्ड में आएंगे तभी सच्ची पत्रकारिता संभव है.
Alok Joshi पत्रकार बनाने के लिए जिस पद पर आदमी या औरत को रखना है उसकी योग्यता के कुछ प्रतिमान होंगे.. उनपर खरे उतरने वाले लोगों को रखना ही सबसे सही तरीका है.. अगर आप अपने सामाजिक दायित्वों को भी मद्देनजर रखना चाहते हैं तो प्रयास करें कि इन खरे उतरनेवाले लोगों में से जो कमजोर तबकों से आते हों, पिछड़े वर्गों से आते हों उन्हें थोड़ी रियायत दी जाए आगे की प्रक्रिया में.. मगर ये देखना मेरे ख्याल से सही नहीं होगा कि वो हॉकर, पनेड़ी, या कुछ औऱ हैं क्या? हां सर्कुलेशन के दबाव में किसी हॉकर को बिना योग्यता पत्रकार बना देना गलत है।… विचारधारा औऱ आंदोलनों से निकले लोगों ने कितनी गंद फैलाई है पत्रकारिता में उसपर अलग से चर्चा हो सकती है.. मैं ये सार्वजनिक टिप्पणी ऐसे सभी लोगों के बारे में नहीं कर रहा हूं.. मगर ये गारंटी नहीं है अच्छे पत्रकार तलाशने की..
Virendra Nath Bhatt क्या सत्य की खोज के लिए पत्रिकारिता एक माध्यम हो सकता है. हाँ पत्रिकारिता के माध्यम से Paid सत्य के खोज जरूर हो सकती है.
Alok Joshi वो आपके नजरिए पर निर्भर है.. फैसला करने वाले के
Vinay Kant Mishra आलोक सर! पिछड़े वर्ग की बात जाति आधारित है अथवा वर्ग और तर्क आधारित!
Seema Rana यहाँ पर चर्चा करते हुए मैंने कहीं एक कोट सुना था याद आया की " media is a business but journalism is not "
यहाँ पर क्या paid news,PR agencies, मीडिया का सेंसेक्स में इन्वेस्ट करना , paid news की वजह से advertisement cost का न बढ़ना आदि के बारे में बात नहीं करनी चाहेये … यहाँ शायद यह कहना गलत नहीं होगा " there is a mass media disconnects with mass reality "
Vinay Kant Mishra आलोक सर! नजरिया तो मुनाफा ही तय करता है न! कृपया गुस्साईएगा मत बहस के दौरान!
Virendra Nath Bhatt आज से कुछ वर्ष पहले देश के दो प्रमुख English अखबार और दो इंग्लिश टीवी channels में जोरदार बहस चली . एक अखबार और एक चैनल ने कहा की बुखार के लिखे खासकर बच्चों के लिए सबसे बढ़िया drug PARACETMOL है जबकी अन्य English अखबार और टीवी चैनल का कहना था के Numaslide सबसे बढ़िया drug है. दोनों अख़बारों ने editorial लिखे लेख छापे . टीवी channelsमें बड़े बड़े एक्सपर्ट बुलाये गए और उन लोगों ने Paracetmol और Numaslide के पक्ष और विपक्ष में जोरदार तर्क दिए . भारत सरकार के संबंधीत मंत्रालय ने इस विषय पर बोलने के जरुरत नहीं समझी .आज भी बुखार खासकर बच्चों के लिए बाज़ार में दो साल्ट Paracetmol या Numaslide ही बिक रहे है. यह मेरे लिए आज भी रहस्य है के आखिरकार टीवी और दो अख़बारों में यह बहस क्यों हुयी थी.
Vinay Kant Mishra आलोक सर! पत्रकार का मैनेजर के रूप में तब्दील हो जाना ही संकट का कारण है.
Alok Joshi नजरिया मुनाफा कतई तय नहीं करता है.. मुनाफा सिर्फ ये तय करता है कि लियाकत के एक खास स्तर से कम लायक लोगों को आप काम पर नहीं लगाएंगे.. अब उन लायक लोगों में चुनाव तो आपके हाथ है… ये जरूर है कि काम आसान नहीं है.. काफी गहरे पानी पैठने वाला मामला है.. इसीलिए मजबूरी भी सामने आ जाती है.. मगर मैं उदाहरण देख चुका हूं.. इसी व्यवस्था में शुद्ध व्यावसायिक पत्रकारिता करते हुए भी अपना नजरिया इस्तेमाल करने के..यहां नाम लेना उचित नहीं है इसलिए पूछिएगा भी मत.. और गुस्साने का तो सवाल ही नहीं है.. होगा तो बता दूंगा.. जितना अधिकार आपको है उतना मुझे भी
Alok Joshi भट्ट जी रहस्य तो आपके लिए नहीं है.. हां आप विनम्रता का परिचय दे रहे हैं।
Vinay Kant Mishra पूंजीपतियों को प्रत्येक स्तर पर लाभ चाहिए. अख़बार मालिक सम्पादक को टाईट करता है और सम्पादक रिपोर्टर्स को……चाहे जहाँ से नकबजनी करके विज्ञापन लाओ. नहीं दोगे तो अगली पांत के लोग लाइन में सम्पादक बनने के लिए खड़े हैं.एक अखबार की कीमत 12 से लेकर 15 रूपये लागत के रूप में आती है. बाज़ार में 4 रूपये में अखबार बिकता है. यह जो मूल्य का अंतर है उसे पाटने के लिए बिचौलिए की भूमिका से सम्पादक को गुजरना ही पड़ता है सर!
Pramod Joshi हमारे देश में पूँजी केवल पूँजीपतियों के पास है। पश्चिम में मध्य वर्ग भी कॉरपोरेट सेक्टर में निवेश कर रहा है। कॉरपोरेट डेमोक्रेसी जिस हद तक है, जनता का पढ़ा-लिखा वर्ग उसमें शामिल है। हमारे देश में भी पढ़ा-लिखा वर्ग बढ़ रहा है। यह वर्ग क्या पढ़ना चाहता है? इस वक्त हमारा मीडिया एक दौर से गुजर रहा है जिसमें विज्ञापनदाता की भूमिका सूचना के ग्राहक से बड़ी है। अनेक उत्पाद अपने मजेदार विज्ञापनों के सहारे लोकप्रिय हो रहे हैं। काफी विज्ञापनों में सुन्दर हास्य होता है। यह हास्य अच्छा लगता है, पर हमें सामाजिक प्रश्नों की संजीदगी से दूर ले जाता है। मुझे पूरा यकीन है कि आज भी संजीदगी से लैस और समाज के बड़े तबके के जीवन से जुड़े सवालों पर केन्द्रित अखबार निकल सकता है। इसका व्यावसायिक मॉडल लेकर कोई आया नहीं है। पर यह सम्भव नहीं है ऐसा मान नहीं लेना चाहिए। इन दिनों भास्कर और जागरण अपने गुणात्मक सुधार की कोशिश में लगे हैं। अलबत्ता मीडिया मालिकों की राजनीतिक अंतर्दृष्टि को भी समझना होगा। हिन्दी के अधिकतर अखबार स्थानीय राजनेताओं के हितों की रक्षा करते हुए आगे बढ़े हैं।
Alok Joshi माफ करें विनय जी, लेकिन जिन अखबारों की बात आप कर रहे हैं उनसे मेरा साबका न तो पड़ा है.. न हीं पड़ने की आशंका है.. और प्रमोद जी एक बहुत गंभीर विषय ले आए हैं.. रास्ता तो है.. मगर क्या चलने की इच्छा और लगन है?
Alok Joshi और जहां तक मुनाफे का सवाल है.. मेरे अनुभवों में … अगर उससे तय होना है कि कौन रहेगा कौन जाएगा.. तो ये अमूमन वही व्यक्ति होता है जिसके पास ये तय करने का अधिकार है कि किन लोगों को रखा जाएगा और क्या नजरिया अपनाया जाएगा.. इसके आगे मुनाफे को कुछ करना नहीं होता है.. तो अगर आप वहां पहुंच गए हैं तो आपका नजरिया चल सकता है.. और अगर पहुंच ही नहीं पा रहे हैं तो फिर फर्क क्या पड़ता है?
Vinay Kant Mishra सत्य बात. सर! मैं किसी को व्यक्तिगत थोड़े ही कह रहा हूँ. प्रमोद सर और आप दोनों लोग विषय को खींचकर दूर तक न ले जाएँ…….मुझे यह बताने की कृपा करें…….कि यह जो अखबारों के छपने और बिकने के मूल्य का अंतर है उसे सम्पादकगण कैसे मैनेज करते हैं! क्या हमारे टेस्ट को नहीं बदला जा रहा है? क्या विज्ञापन दाता हमारी मनोवृत्तियों को भूकम्पायमान नहीं कर रहा है!
Vinay Kant Mishra बीड़ी और सिगरेट के विज्ञापन से कौन सा चमत्कार संभव है!
Virendra Nath Bhatt १९९१-९२ में हर्षद मेहता के कुशल नेत्रत्व में शेयर घोटाला हुआ था , कोई कहता था के घोटाला ४०,००० करोड़ का था कोई इससे भी अधिक बताता था , खैर, इस घोटाले को एक्सपोस करने में इंडियन एक्सप्रेस बॉम्बे के सुचेता दलाल की अहम् भूमिका थी . सुचेता दलाल और उनके पति ने इस विषय पर एक किताब भी लिखी थी जो काफी चर्चित हुयी थी .कुछ वर्ष इंडियन एक्सप्रेस ने अपना लोगो बदला जिसका नाम था Journalism with courage या साहस की पत्रकरिता . .मार्केट रेफोर्म्स के बाद और सेबी (Security exchange board of India) से जुड़े अनेक विवादस्पद मामलों को भी सुचेता दलाल ने एक्स्पोसे किया. २००० के पहले उन्होंने एक्सप्रेस के नौकरी छोड़ थी और एक्सप्रेस में Column लिखने लगी . कुछ हे दिनों बाद एक्सप्रेस ने उनका c olumn छापने से मना कर दिया. सुचेता दलाल ने एक प्रमुख बिज़नस टीवी चंनले में एक इंटरव्यू में कहा के Journalism with courage वाले अखबार ने उनका column छापना बंद कर दिया है और यह सब क्यों हुआ और कैसे हुआ सब इतिहास है और अलोक जी आपको पता है.
Alok Joshi भट्ट जी कभी आप गंभीर मुद्दे उठाते हैं तो कभी एक से दूसरी डाल पर कुलांचे भरते हैं.. सुचेता के बारे में मैं यहां कुछ नहीं लिख सकता .. सिर्फ इतना कह सकता हूं कि जो दिखता है सब वैसा ही नहीं है.. लेकिन आप तो बात दवा कंपनियो की कर रहे थे.. अभी उसपर लौटें.. सिक्यूरिटी घोटाले पर बात कर लेंगे.. परहेज़ नहीं है।
Vinay Kant Mishra अब आप दोनों वरिष्ठजन वाद, विवाद और संवाद के दौर से गुजरें, मैं चला!
Alok Joshi और विनय जी मैं विनम्रता के साथ ये बताना चाहता हूं कि मैंने ऐसे किसी अखबार में कभी काम नहीं किया जहां रिपोर्टर से विज्ञापन लाने को कहा जा रहा हो.. करता भी नहीं.. Sumant के शब्दों में नॉलेज कैंपस ने और आप जैसे मित्रों की संगत ने इस लायक तो बना ही दिया था कि ये न करता तो कुछ और करता..लेकिन वो नहीं करता जिसकी ओर आप इशारा कर रहे हैं।
Virendra Nath Bhatt विनय कान्त कहाँ बीडी सिगरेटे में फंसे है . महान देश के महान अखबार बहुत आगे जा चुके हैं . एक बड़ा अखबार जिसके १०० के आसपास कुल संस्करण हैं वह एक Power generation company कंपनी भी चलता है और Mining में भी उसकी बहुत stakes हैं . यह अखबार डंके की चोट पर अपने commercial हित के लिए अखबार का इस्तेमाल कर रहा है और एक प्रदेश के हाई कोर्ट में एक Petition में एस बात की शिकायत भी के गयी थी . और मज़े की बात इस काफी हाउस के एक सदस्य उस अखबार के Resident editor भी रह चुके हैं,.
Alok Joshi मुझे मेरी नौकरी के दौरान कभी … आज भी… अखबार या चैनल के अर्थशास्त्र को मैनेज करने की जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई है.. सो ये गणित संपादक गण कैसे मैनेज करते हैं ये वही बता पाएंगे जो करते हैं।।
Virendra Nath Bhatt This forum is getting more and more anti establishment and Alok is perhaps being targeted.
Alok Joshi पता नहीं भट्ट जी आप मुझे एस्टैबलिशमेंट क्यों मान रहे हैं?
Vinay Kant Mishra आलोक सर! विज्ञापन माँगने में जमीर बिकती हुई नजर आती है. मैं आप का मित्र नहीं बल्कि सोच और तर्कों का कायल हूँ. सर! ख़बर चाहे जिस विषय पर मिल जाए तो उस पर बेहतर ढंग से लिख सकता हूँ.
Tahira Hasan great sumant you raised very very genuine problem very true land acquisition that grabbed poor kissan,s livelihood and kissan suicide yes food security bill these are very important issues are not touched by media . actually very less is written by hindi media about economic policies in regime of free market administered by people who are blissfully ignorant of the fate of civilization
Tahira Hasan sumant i think media should be made accountable to general public including those with out any political voice to speak…this is also true there can be never be complete certainty or unanimity on what public interest is actually….
Vinay Kant Mishra स्वाभिमान गिराकर पत्रकारिता संभव नहीं है आलोक सर! हिन्दी में मात्र एक जनसत्ता ही ऐसा अख़बार है जिसके रिपोर्टर्स विज्ञापनी सदमें में नहीं जीते.
Sandeep Verma भट्ट जी के लिए …निमुसेलाइड बारह साल से कम बच्चों के लिए नहीं है .यह लीवर को नुक्सान पहुचा सकता है .और यह प्रेग्नेंट औरतों के लिए भी नहीं है ..यह दो सुचनाये निमुसेलाईड और शुरू से ही लिख कर आती रहि हें ..यह अलग बात है की इस साल्ट का सिरप यानी छोटे बच्चों के लिए भी पैकिंग आती है .
एक दूसरी सूचना ..WHO के अनुसार मात्र बीस साल्ट काफी हैं सामान्य बीमारियों को ठीक करने के लिए . हालाँकि काफी पुरानी रिपोर्ट है .मगर है .कोई जानता नहीं ये अलग बात है ..इसी तरह और भी काफी महत्त्व पूर्ण तथ्य हैं .
Virendra Nath Bhatt स्वाभिमान के रक्षा तो केवल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा में ही हो सकती है. पत्रकरिता में स्वाभिमान तो Negotiable Instrument है.
Tahira Hasan vinay ji i have said this earlier also that now corporate controls media journalist so you can not expect them to raise issue of kissan mazdoor now they believe in corporate loot not ethics….it is very important to understand this …i am happy sumant raised very good issue….
Vinay Kant Mishra भट्ट सर! आप तर्क सम्मत बातें नहीं करते. आप की यही त्रासदी है. क्षमा.
Ambrish Kumar भट्ट जी ने कल कहा था -राजेंद्र माथुर का लिखा मुझे सलिए बहुत पसंद था क्योकि राष्ट्रीय स्तर पर वे ही राष्ट्रवादी लेखन करते थे .हालाँकि मेरा मानना है कि उस दौर में प्रभाष जोशी ने भी जमकर और बहुत ही आक्रामक ढंग से यह काम किया उनके लेखन का दूसरा दौर बाबरी ध्वंस के बाद का है .जिसका कोई मुकाबला नहीं था और उनके लेखन में बदलाव भी आया .
Tahira Hasan virender bhatt ji rss is anti people organization …..
Virendra Nath Bhatt Your comment has borne out of your religious faith. You much substantiate the charge.
Virendra Nath Bhatt विनय कान्त जी आपका हर तर्क सर आखों पर. लेकिन एक अनुरोध है की स्वाभिमान की सर्व मान्य परिभाषा क्या है.
Virendra Nath Bhatt ताहिरा जी कांच के घर में रहने वाले दूसरों पर पत्थर नहीं मारते
Ambrish Kumar ताहिरा जी का घर क्या शापिंग माल जैसा है जो शीशे का बना हुआ है ,ऐसे में नीलाक्षी याद आती है आज पता नहीं कहाँ है
Sandeep Verma आर एस एस में मेरे कुछ पडोसी रहे हैं .एक काफी पुराने अनुभवी संघी के शब्द जो मुझे कहते हुवे भी अजीब लगता है ,खराब लगता है यदि साथी लोग /भट्ट जी कहें तो कह सकता हूँ .हालाँकि विषयान्तर हो जाएगा . फिलहाल ताहिरा जी की बात का समर्थन है .
Tahira Hasan bhatt ji agar aap rss ko pro people organization maante hai to bas mai aap se koe argument nahi kar saktee sorry
Tahira Hasan Amberish ji dekhe kya se kya ho gaya hai…..ab rss pro people organization bhi ho gayee hai
Ambrish Kumar भट्ट जी के पास यह जानकारी है कि संघ की शाखाओं में शामिल नौजवानों की संख्या में पिछले बीस साल में कितनी कमी आई है और यह कमी क्यों आई है
Virendra Nath Bhatt ताहिरा जी को यह नहीं भूलना चाहिए की इसी RSS के साथ CPM/CPI ने भी १९८९ में VP Singh के सरकार को समर्थन दिया था.इससे बीजेपी को इतनी ताकत मिली की वोह अगले १० साल में केंद्र में सत्ता में आ गयी .RSS/BJP क्या १९८९ में anti people नहीं था.
Vinay Kant Mishra स्वाभिमान के ठेकेदार संघी कब से हो गए भट्ट सर! जरा अंग्रेजी साम्राज्यवाद और संघ की भूमिका पर नजर दौड़ाईए. स्वाभिमान की सर्वमान्य परिभाषा जानना हो तो नेहरू की "डिस्कवरी आफ इण्डिया" पढ़िए.
Ambrish Kumar वैसे यह कमी वामपंथी संगठनों में भी जमकर आई है
Tahira Hasan ji vampanth kabhi bhi rss to samarthan nahi de sakthi vo vp singh ji ke leadership mai ek movemrnt khada huva tha ….rss have in writing been frank in their admiration for hitler
Ambrish Kumar कृपया पढने पढ़ने का निर्देश नहीं सुझाव दे और यह भी न माने की भट्ट जी ने वह नही पढ़ा है
Tahira Hasan bhatt ji but one difference in india we do not have one hitler but the hydra heded many armed sangh parivar bhai…. bjp rss vhp bajrang dal…..
Virendra Nath Bhatt ताहिरा जी का यह notice की मैं RSS को वही मानु जो वो चाहती हैं यह लोकतान्त्रिक मयार से मेल नहीं रखता . RSS क्या है इसको तय करना काम देश की सरकार का है और कानून का है में यह फतवा कैसे दे सकता हूँ के RSS क्या है क्या नहीं hai
Sandeep Verma कृपया विषयान्तर से बचे ,, इस समय आर एस एस पर चर्चा नहीं हैं
Tahira Hasan bhatt ji bilkul sahi you put your point of view and let me put mine …..
Tahira Hasan very true sandeep ji i agree with you come on right track
Virendra Nath Bhatt Discovery of India is a third rate book which has long been rejected
Vinay Kant Mishra भट्ट सर! एनरान, संघ और 13 दिन की भाजपा सरकार के बारे में आप का क्या ख़याल है?
Ambrish Kumar अब लगता है एक बहस संघ के 'राष्ट्रवाद' पर भी हो जानी चाहिए .आजादी की लड़ाई से अबतक की
Sandeep Verma अम्बरीश जी आपको तो बहस को लाइन पर लाना चाहिए …नीलाक्षी तो छुट्टी पर हैं
Tahira Hasan bilkul Amberish ji maiaap se sahmat
Ambrish Kumar अब भट्ट जी आप फ़तवा वाले अंदाज में 'डिस्कवरी आफ इंडिया ' को ख़ारिज कर रहे है .यह उचित नहीं है वह भी इतिहास का पन्ना है .
Tahira Hasan sandeep ji aap hi le aaye
Sandeep Verma मैं चर्चा में अभी अभी आया हूँ पूरा देख भी नहीं पाया .देख रहा हूँ
Tahira Hasan history to chage karne mai yeh maheer hai…sumant kaha hai bhai?
Sandeep Verma सुमंत जी शायद बहस के डीरेल होने से दुखी हैं .
Ambrish Kumar बहस छोड़ कर भाग जाएंगे तो यही होगा
Tahira Hasan sahmat amberish ji aap se…
Virendra Nath Bhatt RSS और वामपंथ में यही समानता है एक तो गांधीजी को गाली देने में और दुसरे हर बात में इतिहास का हवाला की हिटलर कौन था गोडसे कौन था . RSS के जरुरत इस देश के आम आदमी को नहीं है केवल दो लोगों को हैं जिनको अपने existance ko justify karne के लिए hate symbol — पहला दारुल उलूम देवबंद को और दुसरा communist को. जहाँ तक हिंसा के बात है तो तहिराजी को सिंगुर और नंदीग्राम तो याद होगा.
Vinay Kant Mishra आज 1 अप्रैल भी है! सो लीजिए इस गंभीर बहस का आनंद. वैसे सुमंत सर अभी रास्ते में हैं.
Ambrish Kumar मैडम भी रविवार माना रही है यहाँ, संघ से लेकर वामपंथ सब निकला जा रहा है
Sanat Singh भट्ट सर, ताहिरा जी यहाँ न मुद्दा पैरासीटामोल और निम्स्युलाइड के फर्क का है न ही भास्कर, जागरण, उजाला या वीर अर्जुन जैसे किसी खास ब्रांड के अखबार का..मुझे लगता है कि इस बहस के तीन सूत्र हैं-
१.प्रबंधन और सम्पादकीय विभागों के रिश्ते और पहले के अर्थशास्त्रीय दबावों और हस्तक्षेप के बरक्स दूसरे विभाग की स्वायत्तता की क्या स्थिति है,
२.सीमित या पर्याप्त मात्रा में जितनी भी स्वायत्तता उपलब्ध है उसमे पत्रकारों की अपनी प्रतिबद्धता या पक्षधरता के चलते भूमिका क्या है और
३.किस स्तर के या किसी समझ और दक्षता के लोग पत्रकार बन रहे हैं या बनाए जा रहे है…
बाकी आप लोगों की राय…
Sandeep Verma मुद्दा ये है की आज के समाचार पत्रों में बौधिकता की कमी हो गयी है या खराब नियत से जनता के मुद्दों से समाचार पत्र दूर हैं .
Sandeep Verma सनत जी ,शायद सही ही है ,वैसे फिलहाल इतना भी काफी है .
Ambrish Kumar आज मार्केटिंग वालों का दावा है आप अख़बार का पन्ना खाली छोड़ दे वे बेच कर dikha denge
Sandeep Verma ये आई ना दमदार बात …
Vinay Kant Mishra सनत जी! मैं शुरू से ही उक्त विषयों पर केन्द्रित हूँ.आप अवलोकन करें. साथ में यह बहस के सहायक विषय हैं.
Tahira Hasan bhattji i condemn strongly nandigram and singur …bullent coming from right wing or left wing bullet is bullet vampanthi are not hypocrite we accept that cpm was wrong there .we are not sanghi to protect killing name of protecting culture dharm …humanity is soul of all dharm
Ambrish Kumar और जो बिक जाए वह 'अख़बार ' कहलाता है बाकी तो रुदन क्रंदन …यह आज की सोच है
Sandeep Verma सहांयक विषयो पर ज्यादा समय जा रहा है
Sandeep Verma अम्बरीश जी ने लगता है पाला बदल दिया है .
Ambrish Kumar मैडम एडमिन को इसे देखना चाहिए ,कुछ कोड़ा भी फटकार देना चाहिए
Tahira Hasan TRP at expense… of honest reportage of the event and issue of people….bhatt ji ab to the point boole
Vinay Kant Mishra अम्बरीश सर ने बहस को केंद्रीकृत कर वाजिब एवम तर्कपूर्ण जवाब दिया.आमीन.
Sandeep Verma मैडम एडमिन आज सन्डे होलीडे पर हैं शून्यकाल घोषित करके
Virendra Nath Bhatt यह बहस दो दशक पुरानी सेकुलर कोम्मुनल पोलिटिक्स के frame में चली गयी. मुलायम सिंह यादव आज भी संप्रादियक ताकतों को रोकने के लिए केंद्र में UPA को बिन फेरे हम तेरे की शैली में समर्थन दे रहे हैं . आज मुद्दा केवल बाजारवादी राजनीती है. UPA ने पिछले पांच वर्षों में Corporate houses को २५ लाख करोड़ की करों में रियायत दी लेकिन यह देश की राजनीती में मुद्दा नहीं बनता,. यह रियायत देश में Inflation का सबसे बड़ा कारन है. हाँ यह भी सुच है की लोक सभा और राज्य सभा में केवल वामपंथी दलों ने ही इस मुद्दे को उताहया है
Sanat Singh संघ और वाम की कमियों पर कभी अलग से चर्चा हो सकती हैजिसमे जूतम पैजार की पर्याप्त गुंजाइश रहेगी..पर अभीअभी नीतिगत मसलों को अखबार में मिल रही जगह और संवाददाताओं की उन मुद्दों पर समझ पर फोकस करना ठीक रहेगा…
Vinay Kant Mishra भट्ट सर पराजय वाले मुद्रा में कतई नहीं दिख रहे! कहाँ हार मानने वाले हैं वे!
Sanat Singh वे अभी हारे हैं भी नही…
Sanat Singh हार जीत महज़ काफ़ीहाउस से नहीं तय हो सकती…..:)
Ambrish Kumar प्रसार में हमारा अख़बार ,इंडियन एक्सप्रेस राजनैतिक दलों की भाषा में 'भाकपा माले ' जैसा जनाधार वाला है .वैसे प्रसार का रिकार्ड तोड़ने वाले संपादक प्रभाष जोशी ने अपनी अंतिम बैठक जो हम लोगों के साथ लखनऊ के एक्सप्रेस दफ्तर में की थी उसमे बताया था कि गाँधी का हरिजन भी कोई लाइन लगाकर नहीं ख़रीदा जाता था
Sandeep Verma भट्ट जी , हार नहीं सकते ,उनके तर्क वजनदार हैं ,मात्र उन्हें याद दिलाना है की बहस का विषय क्या है .
Virendra Nath Bhatt यह जंग का मैदान तो है लेकिन ना तो कुरुक्षेत्र है और ना ही कर्बला है , तो जय या पराजय का सवाल क्यों
Sandeep Verma भट्ट जी सिर्फ आज के मुदद्दे पर सभी को लाइए ..
Tahira Hasan kya baat hai Amberish ji aap kaam shabdo mai bahut kucha kah gaye janab
Sanat Singh सर हम लोग बचपनिया अन्ताक्षरी के मोड में चले जाते हैं कभी कभी…
"हरा दिया न हा हा हा हः बड़े बहादुर बनते थे…"
Ambrish Kumar अब चला जाए ,वक्त हो गया है .
Vinay Kant Mishra भट्ट सर! बिना कर्बला और कुरुक्षेत्र के मैदान के हम अपनी बात नहीं कह सकते……..दोनों जगह धर्मयुद्ध हुआ था न!
Tahira Hasan mai bhi …i will join after hour
Vinay Kant Mishra डिनर के लिए एक घंटे का ब्रेक.
Tahira Hasan vinay ji tea break
फेसबुक से साभार… इसके बाद का पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें-