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प्रिंट-टीवी...

हिंदी मीडिया में सन्नाटा है, खबरों में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है (पार्ट दो)

Sumant Bhattacharya मैं बहस से भागा नहीं..आप सभी को ध्यान से पढ़ रहा था और स्थितियों के विविध आयामों को समझने की कोशिश कर रहा था..मैं ये सवाल सिर्फ इसलिए उठाया था कि क्या हिंदी पत्रकारिता जिस मुकाम पर है, वहां से आगे नीतियों की पत्रकारिता के रास्ते बढ़ कर नए आयाम, नई चुनौतियां हासिल और स्वीकार कर सकती है…आप सभी के विचारों से मेरी कई धारणाएं और मजबूत हो रही हैं और यकीनन तमाम युवा साथियों को भी इस बहस से अंतरदृष्टि मिल रही है। और ये भी देख रहा हूं कि कॉफी होम के तमाम दिग्गज इस मुद्दे से कतरा कर निकल गए हैं। उनकी आपराधिक खामोशी को भी ध्यान में रखिए…ये ही आज की मीडिया हरावल के नियामक और सार्थवाह हैं…

Sumant Bhattacharya मैं बहस से भागा नहीं..आप सभी को ध्यान से पढ़ रहा था और स्थितियों के विविध आयामों को समझने की कोशिश कर रहा था..मैं ये सवाल सिर्फ इसलिए उठाया था कि क्या हिंदी पत्रकारिता जिस मुकाम पर है, वहां से आगे नीतियों की पत्रकारिता के रास्ते बढ़ कर नए आयाम, नई चुनौतियां हासिल और स्वीकार कर सकती है…आप सभी के विचारों से मेरी कई धारणाएं और मजबूत हो रही हैं और यकीनन तमाम युवा साथियों को भी इस बहस से अंतरदृष्टि मिल रही है। और ये भी देख रहा हूं कि कॉफी होम के तमाम दिग्गज इस मुद्दे से कतरा कर निकल गए हैं। उनकी आपराधिक खामोशी को भी ध्यान में रखिए…ये ही आज की मीडिया हरावल के नियामक और सार्थवाह हैं…

        Virendra Nath Bhatt सेकुलर कोम्मुनल के मुद्दे को जो बात करेगा बहस भटकेगी . विनाय्कांत के बारे में जो RSS का जिक्र मैंने किया वो हल्का मजाक था लेकिन विनाय्कांत जी के वामपंथी संस्कार भड़क गये मेरा मकसद उनको RSS के पाले में धकेलना नहीं था और जहाँ तक RSS के लोग कितने घटिया होते हैं पिछले २० वर्ष से ज्यादा हो गए देखते . विनय कान्त और ताहिरा हसन का तो केवल Ideological मामला है इनको अन्दर की बात तो मालूम ही नहीं है, जिसको यहाँ लिखा नहीं जा सकता . संदीप वर्मा ने हल्का सा इशरा किया था लेकिन चुप हो गये
        
        Sandeep Verma अब डिनर ब्रेक में दिख रहे हैं ,,चलिए बढ़िया .कुछ लिख कर रखिये लौट कर हम भी सोचेंगे . वैसे खामोशी दिख रही है मगर कोशिश भी साथ में है , बहस बहुत डिरेल हो रही है , कुछ बिंदु चिन्हित करिगे तो बेहतर चर्चा होगी ..
        
        Tahira Hasan oh good now i am going you take are …but do not expect much from corporate media now they present the news in way that suits their corporate bosses…this is the way most mass media operate now days
         
        Sandeep Verma भट्ट जि अब नंगे को क्या नंगा कहना ,अभी टालिए . बहुत मौके आयेंगे ,खास समय पर बम मारेंगे
         
        Tahira Hasan ok sumant tea break now you take care….
         
        Virendra Nath Bhatt Belgium के लेखक जो Catholic Christian है और संघ का घनघोर समर्थक ने कहा है की RSS is reluctant fascist hai
         
        Alok Joshi भाइयों बहस की शुरुआत में ही मैंने साफ कर दिया कि मैं इसमें क्यों फिट नहीं हो पा रहा हूं।. लेकिन विनय जी एक गंभीर शिकायत है… सुमंत ने एक गंभीर सवाल उठाया.. भट्ट जी ने भी कुछ विषयों का जिक्र किया कि ये क्यों और कैसे उठ रहे हैं…मगर आप बात को फिर वहीं ले गए जहां हम कई दिनों से थे.. आप द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के ध्वजवाहक हैं इसमें कोई बुराई नहीं है.. मगर हर वक्त हर प्लैटफॉर्म पर हर चर्चा में एक ही सवाल एक ही अंदाज में उठाना उचित नहीं है.. बात की रौ में मैं भी बह गया .. कुछ देर बात भी की.. कुछ देर उठा और कुछ काम करने लगा .. लौट कर देख रहा हूं कि पूरी बहस ही बह गई.. अब क्या कहा जाए?
         
        Amalendu Upadhyaya ‎Alok Joshi ji, मुझे लगता है इस बहस के डिरेल होने में सुमंत जी के प्रश्न का उत्तर मौजूद है……………..
       
        Sumant Bhattacharya नहीं..मेरी धारणा और प्रबल हुई है..
        
        Amalendu Upadhyaya ‎Sumant Bhattacharya ji, mera ishara bhee wahi hai….
        
        Ambrish Kumar सुमंत आप भी वही कर रहे है जो नीलाक्षी बूढा आदि कहकर कह चुकी है ,कट्टा लेकर कमेन्ट नहीं कराया जा सकता .मै एक बहुत खूबसूरत फिल्म देख रहा हूँ .घर पर पर .फिल्म हाल में अंतिम फिल्म इसी लखनऊ के मेफेयर हाल में अपनी एक सीनियर के साथ अस्सी के दशक में देखी थी उसके बाद फिर कभी हाल में नहीं गया .इसलिए अपन को माफ़ करे .कल लिखूंगा
       
        Sumant Bhattacharya अंबरीश जी..मैं किसी से कमेंट की अपेक्षा नहीं रखता…हां जो कर रहे हैं उनका शुक्रगुजार हूं..वैसे भी ये सवाल सिर्फ सुमंत से जुड़ा हुआ है नहीं..आपसे हमसे..हम सभी से जुड़ा सवाल है..आज नहीं तो कल ये सवाल विकराल रूप से हम सबके सामने खड़ा होगा..
        
        Nilakshi Singh मैं इस पूरी बहस से इसलिए भी अनुपस्थित हूँ क्योंकि मीडिया के बारे में मेरी कोई खास जानकारी नहीं है. हाँ, इतना जरूर कहूँगी कि बचपन से लेकर, 19 फरवरी तक जब इंदौर आई, लगातार न्यूजपेपर पढ़ती रही हूँ. कोई शायद यकीन न करे लेकिन 19 फरवरी से आज तक लगभग डेढ़ महीने हो गए और मैने कोई न्यूजपेपर नहीं पढ़ा. हाँ, इंटरनेट पर जरूर खबरें पढ़ती रही हूँ. टीवी न्यूज चैनल तो देखने की आदत छूटे सालों हो गए हैं. कभी-कभी कोई महत्वपूर्ण घटना होती है तो जरूर देख लेती हूँ. लगभग डेढ़ महीने हो गए न्यूजपेपर की शक्ल देखे और अब मुझे कहीं से नहीं लग रहा है कि मैं समाचारों से कटी हूँ. इसे मेरी तरफ से मुख्यधारा की मीडिया के लिए तारीफ भी माना जा सकता है ! बाकी क्या लिखूं, आप लोग खुद समझदार हैं. (पुराने जमाने की चिठ्ठियों की तरह समापन).
         
        Nilakshi Singh इस पूरी बहस का निचोड़ मुझे अमलेंदु उपाध्याय जी की इसी बात में दिख रहा है:
        "मुझे लगता है इस बहस के डिरेल होने में सुमंत जी के प्रश्न का उत्तर मौजूद है."
         
        Sandeep Verma बहस हुई ,यह भी महत्त्व पूर्ण है ,डीरेल होना कोई दुर्घटना नहीं है ,डीरेल मानना भी बड़ी बात है . बहस आगे भी चलेगी ,चिंता है ,पता चलता है .रोग की उपस्थित पहचानना भी बड़ी बात है .आज नहीं तो कल रोग को पहचान भी लिया जाएगा ,निवारण की भी उम्मीद तभी बनती है .
        
        Vinay Kant Mishra यह मुद्दा है-
        आज भी मुद्दा है गरीब और अमीर का, मुद्दा है सामंत और बंटाईदार का, मुद्दा है मिल मालिक और मजदूरों का, मुद्दा है मालिक और नौकर का, मुद्दा है नौकरशाही और आम जनता का और मुद्दा अख़बार मालिक और रिपोर्टर्स के द्वंदात्मक संबंधों का भी है. वाद, विवाद और संवाद के दौर से गुजरते हुए नई सम्भावनाओं और विकल्प की तलाश जरुरी है.
        
        Nilakshi Singh बहस हुई तभी तो डीरेल हुई. डीरेल होने में ही अगर सुमंत जी के प्रश्नों का उत्तर मुझे भी दिख रहा है तो यह भी एक निष्कर्ष ही है.
         
        Sumant Bhattacharya मेरा संशय था कि हिंदी मीडिया क्या अपनी जड़ता को नीतियों की पत्रकारिता से तोड़ सकता है,,,क्या हिंदी पट्टी का मानस इसकी आवश्यकता समझता है..क्या हिंदी का मौजूदा नेतृत्व इस मुद्दे पर सक्षम दिखाई देता है..
         
        Vinay Kant Mishra यह बहस एक अंतहीन यात्रा है.
         
        Sandeep Verma बिलकुल सनत ,यह थोड़े समय का भटकाव मात्र है ,जो जड़ता दिख रही है वोह मात्र एक संक्रमणकाल है . हिंदी की ताकत उसका जन से जुड़े होना है .अगर भत्ता परसौल या भूमि अधिग्रहण पर सही रिपोर्टिंग नहीं करेगा तो जैसी भी उसकी सफलता है खो देगा .नीतियों से जुडना उसकी मज़बूरी भी है ..बाजार की ताकतों से हिंदी भासी का नुक्सान और अंग्रेजी भाषी का फायदा हवा है .इसलिए हिंदी भासी को तो नीतियों के मामले में लीड लेनी ही पड़ेगी …जो नहीं लेगा ,उसे हटना पडेगा . नया अखबार/मिडिया उसकी जगह लेने को तैयार होगा .
         
        Sandeep Verma नहीं विनय ,यह बहस अंतहीन नहीं ,इसका निश्चित पड़ाव है ,वह पड़ाव कब और कौन पहुचेगा बस यही प्रतिद्वंदिता है .
         
        Nilakshi Singh सनत सर निश्चय ही बड़ी गंभीरता से बहस को पटरी पर बनाए रखने की कोशिश करते रहे लेकिन बहस क्यों डीरेल हुई इसका जवाब ही मेरे खयाल से उपरोक्त सवालों का जवाब है.
        
        Sanat Singh पर सुमंत भाई छोटे छोटे मसलों पर नीतियां आइसोलेशन में नही बल्कि किन्ही खास वैचारिक और वस्तुगत परिप्रेक्ष्य का ही हिस्सा होतीं हैं…जैसे एक बड़ी योजना में छोटे छोटे प्रोजेक्ट्स शामिल होते हैं या बीस साला पर्सपेक्टिव प्लान में ही पञ्च वर्षीय या सालाना योजनाये समाहित होती हैं…सो किसी खास क़ानून पर चिंता संवैधानिक मुद्दों की दरकार को प्रतिस्थापित नही कर सकती…हो सकता है कि बेसिक्स पर बात करते करते आप पहले ही ऊब चुके हों पर उनकी ज़रूरत दिशा देने के लिए अभी भी है…आगे भी रहेगी…
         
        Sandeep Verma कभी सोंचा था की चौबीस घंटे का न्यूस चनेल हो सकता है ….फिर कभी यूपी का अपना न्यूस चनेल हो सकता है …..
         
        Sumant Bhattacharya सनत भाई..मैं आपकी बातों को समझ नहीं पाया..
         
        Sanat Singh मेरा मतलब नीतियां भी वर्गीय हितों से परिचालित होती हैं…हालांकि वर्ग संघर्ष बहुत पुराणी धारणा लगती है…!जिसे हमने पढाई के दिनों में पढ़ा लड़ा और समझकर कर आगे बढ़ गए…
         
        Sandeep Verma नहीं सनत ,जब हम बड़े बड़े मुद्दों की बात कर रहें हैं ,तो हमारी बदमाश दिख रही होती है , विकास के नाम पर जमींन् हडपना और फिर बिल्डर को देना साफ़ साफ डकैती है ..अगर नया शहर बसना जरुरी ही है तो को-ओपरेतिव भी एक तरीका हो सकता है .देश में ये माडल अपनाए भी गए हैं .
         
        Sandeep Verma सनत जी साफ़ बोलिए ,मामला यहाँ पर वर्ग संघर्ष का नहीं है ,यह सत्ता के साथ मिल कर लूट का है .
         
        Nilakshi Singh हर मुख्यमंत्री को वर्गशत्रु तो नहीं न घोषित कर सकते हैं विनय कांत जी !
         
        Vinay Kant Mishra सनत भाई! मसला ही यही है कि यह नीतियाँ ऊपर से वर्गीय हित का भ्रम रचती हैं. असल में यह नीतियाँ अभिजात्य के हित से संचालित होती हैं.
         
        Sanat Singh बिलकुल डकैती है…पर यह सारा कुछ विकास के किस माडल की उपज है???
        उस पर चर्चा करेंगे तो फिर वहीं पहुँच जायेंगे…कम से कम आलोचनात्मक दृष्टि में… हल निकालने पर मतभेद अभी भी संभव हैं…
         
        Sumant Bhattacharya चलिए सनत भाई..आपकी बात को समझने के लिए एक जिंदा उदाहरण रखता हूं…मनरेगा के साथ हमें महेंद्रा ट्रैक्टर के उत्पाद मे तेजी दिखाई देती है..मेरा सवाल इससे भी आगे जाता है..क्या मनरेगा से गांवों में बदलते सोशियो इकोनॉमिक इंपैक्ट की स्टडी हुई है..क्या मनरेगा के कृषि उत्पाद पर पड़ते असर की कोई स्टडी या रिपोर्टिंग आपको हिदी मीडिया में नजर आई है..
   
        Sandeep Verma स्टडी तो माइंस और नक्सल के सम्बन्ध में भी नहीं हुवी है ,जो की जग जाहिर है .
    
        Sumant Bhattacharya विनय भाई..सनत जी के बारे में की गई अपनी वो कमेंट हटा दीजिए..प्लीज..लफ्फाजी नहीं..ये उनकी अपनी सोच है और वो हमसे साझा कर रहे हैं
     
        Sandeep Verma जहाँ तक विकास के मोडल की बात है ,बिना उद्योग के कैसा विकास ,और उद्योग लगाने नहीं हैं ,विकास की बात करना तो धोखा देना हवा ना
      
        Sanat Singh आप बहुत गहराई की अपेक्षा कर रहे हैं सुमंत भाई..क्या आज सब लोग या बहुमत इस बात पर सहमत है कि कमजोर की कमजोरी, वंचित की वंचना उसकी अपनी गलती नहीं है..यह एक खास व्यवस्था की उपज है..और उससे निपटने के लिए ऊपर से कोई नही आने वाला… वंचित और शोषित को खुद अपने भविष्य का निर्माण करना पड़ेगा…
       
        Vinay Kant Mishra बिलकुल है नीलाक्षी जी! प्रत्येक मुख्यमंत्री वर्ग शत्रु है. इतना ही नहीं नेहरू और लाल बहदुर शास्त्री को छोड़कर देश का प्रत्येक प्रधानमंत्री भी वर्ग शत्रु साबित हुआ!
        
        Sumant Bhattacharya लीड कौन करेगा…अवसरों को छीन लेने को आप वंचितों की अपनी कमजोरी के तौर पर आप देखते हैं सनत भाई..
         
        Sanat Singh आज से पचीस साल पहले अमीर अमीरी छुपाता था डरता था अपराध बोध में रहता था..क्यों??अब खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन किया जाता है…आप कल्पना कीजिये, क्या २५ साल पहले विजय माल्लाया ऐसे ही वैभव का प्रदर्शन कर सकते थे???क्या मुकेश अम्बानी का एन्तिला २५ साल पहले संभव था????
         
        Sumant Bhattacharya अब मैं इजाजत चाहूंगा ..कल दिन में यदि व्यवस्थापकों ने समय दिया तो अपनी बात रखना चाहूंगा..सुबह चार बजे उठना होता है मुझे..माफी चाहूंगा..कल अंबरीश जी से भी कुछ कमेंट की उम्मीद है..आज वो फिल्म देख रहे हैं
         
        Tahira Hasan All policies not only MNEREGA .widow pansion lal rashan card all are disgusting joke with poor people of this country
 
        Nilakshi Singh विनय कांत जी, आपकी बात ही आपका जवाब दे रही है.
       प्रत्येक मुख्यमंत्री वर्ग शत्रु है. इतना ही नहीं नेहरू और लाल बहदुर शास्त्री को छोड़कर देश का प्रत्येक प्रधानमंत्री भी वर्ग शत्रु साबित हुआ.

        नेहरू और शास्त्री को क्यों छोड़ दिया आपने?
 
        Sanat Singh क्या भूमि अधिग्रहण का मसला, दवा कंपनियों द्वारा प्रतिबंधित दवाए खपाने का मसला या जल जंगल और जमीन पर हक का मसला ऊपर कही चीज़ों से बावस्ता नही है???
 
        Sumant Bhattacharya एंतिला तो बच्चा है सनत भाई..राजप्रसाद हुआ करते थे…वैभव का फूहड़ प्रदर्शन सत्ता की लाठी है..
   
        Sanat Singh आप दुसरे विश्व युद्ध से पहले वाली दुनिया की बात कर रहे है सुमंत भाई…खासकर अक्टूबर १९१७ से पहले की…..
    
        Sumant Bhattacharya ताहिरा जी..मुद्दा अभी सिर्फ इतना है कि हिदी मीडिया की मानसिक निर्धनता, हिंदी मीडिया के नेतृत्व का बौद्धिक दीवालियापन क्या हिंदी पट्टी के गंभीर दायित्वों को निभाने सक्षम है..
     
        Vinay Kant Mishra संविधान अवसरों की समानता की बात करके भ्रम रचता है. सनत भाई! आप सर्वहारा समाज से जीने का अधिकार नहीं छीन ले रहे है! 1985 तक देश में लगभग समान शिक्षा नीति थी. अब सरकारी शिक्षा बड़ी संख्या में कामगार एवं मजदूर पैदा कर रही है.अर्थात सर्वहारा समाज!
      
        Sumant Bhattacharya सनत भाई….शायद हम फिर मूल मुद्दे से हट रहे हैं..मुद्दा सिर्फ इतना है कि हिंदी मीडिया कब अपनी आत्मविवेचना करेगा…
       
        Sandeep Verma इसी चिंतन की कमी है की कैसे बाजार वाद नें हमे एक ब्यक्ति के रूप में ,एक परिवार के रूप में ,एक समाज के रूप में तोड़ दिया है ..हमें लगता है हम आगे बढ़ रहें हैं ,मगर सामूहिक रूप से जर्जर हो चुके हैं ..यह समाँज शाश्त्रियों के शोध का विषय है .
        
        Tahira Hasan steel companies are our land and natural resources all they want huge profit cheap labour …but neither corporate media nor civil society even trying to understand what poor kissan fishermen tribals are going through…
         
        Sumant Bhattacharya Tahira Hasan ताहिरा जी..मुद्दा अभी सिर्फ इतना है कि हिदी मीडिया की मानसिक निर्धनता, हिंदी मीडिया के नेतृत्व का बौद्धिक दीवालियापन क्या हिंदी पट्टी के गंभीर दायित्वों को निभाने सक्षम है.
         
        Tahira Hasan free market undermine democracy as disparity between rich and poor increases corporatize the crop we grow water we drink air we breath
         
        Sumant Bhattacharya दोस्तों अब कल मिलता हं..मुझे इजाजत दीजिए..ताहिरा जी टी ब्रेक से आ चुकी हैं सभी मित्र फॉर्म में हैं….बहस जारी रखिए..ये कोई मेरा सवाल नहीं..हिंदी पट्टी का सवाल है और मैं खुद हिंदी पट्टी और हिंदी मीडिया से संबंध रखता हूं..
         
        Sandeep Verma ताहिरा जी चर्चा बहुत जल्ल्दी ही आत्मविश्लेषण से अलग होने लगती है ..
         
        Vinay Kant Mishra नीलाक्षी जी ! अब बातचीत और सवाल जवाब कल.शुभ रात्रि!
         
        Tahira Hasan i agree withyousandeep ji sumant jaldi chale gaaye bhai
         
        Vinay Kant Mishra ‎1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बाद देश का सर्वहारा समाज मजदूरों के रूप में जन्म लेने और मरने के लिए भी अभिशप्त हो गया!
         
        Sandeep Verma अगर कुछ गंभीर विषय लगने लगते हैं तो उन पर चर्चा आराम से ही करना बेहतर होगा .आखिर कुछ होमवर्क भी करना होता है और विचारों को क्रम भी देना होता है .इस मंच पर यह चर्चा बहुत बड़े अर्थ रखती है …
         
        Sandeep Verma विनय जी कल मुझे खोज कर बताइए की क्या अमेरिका में पेट्रोल और अन्य खनिज कितने पाए जाते हैं और वोह उनका कितना उपभोग करता है . यह जानकारी एक नयी हमें एक नयी द्रस्टी देगी .
        जहाँ तक मजदूरी की बात है अगर वोह भी सम्मान के साथ मिले तो समस्या नही है. समस्या इसके आगे की है .
         
        Sanat Singh और यह भी कि इस बात का हमारी खनन नीति या भूमि अधिग्रहण नीति से कोई सम्बन्ध नही है..जैसे w.t.o. का हमारी दवा नीति से नही है..? 🙂
         
        Vinay Kant Mishra संदीप जी! मुझे खोजने की जरुरत नहीं पड़ती. मैं जो खबर या लेख अथवा कमेन्ट लिखता हूँ वे मेरी अंतर्दृष्टि की निर्मिति होती हैं. यह वर्षों पहले सड़कों पर 'जे एन यू एस यू मार्च आन………' कहते हुए बन चुकी है.
         
        Vinay Kant Mishra सदन में मर्यादित आचरण करें-
        कभी कभार दरवाजा खटखटाने वाले मित्रों से विनम्र अनुरोध है कि आप सभी लेटेस्ट चल रहे मुद्दे पर ही ज्ञान दें. पूरी बहस को संजीदगी के साथ पढ़ें फिर ज्ञानी दिखने की कोशिश करें. बिना एडमिन की अनुमति के कोइ भी एक लाइना पोस्ट मत डालें. यह वह काफी हाउस है जहाँ अत्यधिक बीयर पीकर उबकाई की छूट नहीं है. एडमिन गण से निवेदन है कि जो ग्रुप के नियमों की अवहेलना करे उसे काफी हाउस से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाए. आखिर व्यवस्था बनाने के लिए कड़े कदम उठाने ही पड़ते हैं. मित्रगण! कृपया ध्यान दें यह बहुत अलग किस्म का ग्रुप है. यहाँ जनतांत्रिक तरीके से बहुत ही तर्कसंगत बहस होती है. यदि आप नए जुड़े हैं तो आप कमेन्ट के रूप में अपनी प्रतिभा का परिचय दें. आप की प्रत्येक बात की यहाँ नोटिस ली जाती है. बस यह ध्यान रखना जरुरी कि आप को शालीन प्रतिरोध की छूट है, अराजक लोकतंत्र की नहीं. इस ग्रुप में बनें रहने की कोशिश कीजिए: बहुत सीखने को मिलेगा. यहाँ प्रमोद जोशी सर, आलोक जोशी सर, अम्बरीश कुमार सर, सुमंत भट्टाचार्य सर और अमलेंदु उपाध्याय सर पत्रकारिता विषय पर एक वर्चुअल-आभासी क्लास चलाते हैं. भट्ट सर, सनत सर, नीलाक्षी जी, ताहिरा मैम और संदीप वर्मा जी बहस को गरम कर निष्कर्षों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं. विश्वविद्यालयों की तरह यहाँ भी सीमित सीट है.दाखिला बहुत मुश्किल है. यदि आप को शुरू में ही प्रवेश मिल चुका है तो संयम बरतें. सदन के नियमों का पालन करें.
         
        Sandeep Verma सुमंत अभी चंचल जी से बात हो रही थी ,बर्मा की इतनी बड़ी खबर और हिंदी मीडिया सो रहा है …
         
        Sandeep Verma अपने दिल्ली की पढ़ी गाँधी के क़दमों पर चल कर इस लडकी के संघर्ष की कहानी ही यहाँ का हिंदी मीडिया नहीं जानता
         
        Sandeep Verma हमारे लिए तो अब आन सां ह्यू क्यी हमारे लिए सिर्फ मिसाल ही नहीं होनी चाहिए थी बल्कि हमें तो उसके कदम से कदम मिला कर चलना चाहिए था . मीडिया को ये सब क्यों नहीं दिखता ..
         
        Sandeep Verma हमारी नयी एडमिन का रविवार यदि समाप्त हो गया हो तो अपनी उपस्थित दर्ज करें
         
        Ashish Awasthi और भी ग़म है ज़माने में मोहब्बत के सिवा … अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे …..Sandeep Verma ji
         
        Sumant Bhattacharya मुझे लगता है कि अंबरीश जी मुद्दे को भटकाने की कोशिश कर रहे हैं और हिंदी पत्रकारिता के कई स्वनामधन्य तो खामोशी ही में बेहतरी देख रहे हैं…मुझे नहीं लगता है कि यहां दिख रही बेचैनी एक ईमानदारी है…
         
        Sumant Bhattacharya क्या सदन अंबरीश जी के उठाए व्यक्तिपरक कमेंट पर बहस की स्वीकृति देता है..क्या अंबरीश जी खुद इससे सहमत हैं…इस पर मित्रों की राय चाहिए..
         
        Sumant Bhattacharya Sanat Singh जी ने कई मौजू सवाल उठाए,..यहां पर मैं रामचंद्र गुहा को कोट करने की जुर्रत करूंगा, गुहा का कहना है- आज दुनिया में कोलंबस या वास्कोडिगामा की जरूरत नहीं है..समूची दुनिया खोजी जा चुकी है…अब उपनिवेशों का दौर नहीं रहा, लिहाजा सरकारें ही अपने अपने मुल्क के संसाधनों को लूट रही हैं। इसीलिए मैं नीतियों का प्रश्न उठा रहा हूं और ये जानने की कोशिश कर रहा हूं कि क्या सियासी दलों की राजनीतिक रिपोर्टिंग के छद्म दायरों से आगे निकल कर हिंदी पत्रकारितां नीतियों के बरक्स सरकारों और सियासी दलों को तौलने और असलियत सामने लाने की कोशिश करेगी। या फिर ढोल ताशे के साथ इस लूट में अपना हिस्सा बटोरने की जुगत में जुटी रहेगी और जनता बड़े सवालों से इतर सामाजिक न्याय और जाति उन्मेष की मायावी दुनिया में भटकती फिरेगी…या फिर हिंदी पत्रकारिता के पुरोधाओं में यह काबलियत ही नहीं है..
         
        Sandeep Verma आशीष जी बर्मा की आन सां स्यु क्यी पर अगर कुछ लिखते तो दिल खुश हो जाता .
         
        Ashish Awasthi aap ka comment padh raha tha abhi chanchal ji ki walll pe …@ Sandeep Verma ji ….. aang sang suu ki pe baat to honi chahiye par shayad alag se aap ek sangathit post kare .. meri bhi iksha hai
         
        Sumant Bhattacharya हिंदी पत्रकारिता पर जब सवाल उठा रहा हूं तो मेरे सामने दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं , जिन पर हिंदी पत्रकारिता अपराधिक रूप से खामोश है। भूख और शिक्षा। मेरी नज़र में भूख वो है जो एक इंसान को जिंदा रहने की मोहलत देती है…और शिक्षा के बारे में मेरा मानना है कि शिक्षा वो है जो इंसान को अवसरों को समझने और मौजूदा संसाधनों को बेहतर इस्तेमाल से जीने की सलाहियत देती है। यकीनन, मैं उस शिक्षा का प्रश्न नहीं उठा रहा हूं जो अंग्रेजी स्कूलों या निजी संस्थानों में दी जा रही है। जानकारी के लिए बता दूं कि आज निजी संस्थानों दी जा रही शिक्षा भी खारिज होती जा रही है। पिछले साल अंग्रेजी आउटलुक ने एक सर्वे कराया था, जिसमें नतीजा निकला कि इंडस्ट्री को मौजूदा बी स्कूलों से वास्तविक नेतृत्व नहीं मिल पा रहा है। क्योंकि इन बी-स्कूलों से निकले छात्रों के भीतर अपने ही मुल्क को समझने और फैसला करने की क्षमता खत्म हो चुकी है। अपनी ज़मीन..अपनी संस्कृति..अपने सामाजिक मूल्य..अपनी भाषा से कटे इन बी-स्कूलों के छात्रों को इंडस्ट्री की जरूरत नहीं रह गई है।
 
        Ashish Awasthi gazam form mein hai Sumant Bhattacharya dada
 
        Sumant Bhattacharya आशीष भाई समझा नहीं..
   
        Ashish Awasthi दरअसल हम सब पत्रकारिता में ही सब जवाव्ब सवाल खोजने लगे है … इस अत्ममुधता से भी बहार आना चाहिए … यह सिर्फ एक हिस्सा है .. लोगो को लग सकता है पर सब कुछ अखबार से नहीं होता …
    
        Sandeep Verma सुमंत इसी बात पर परसों आलोक जी से भी चर्चा हुवी थी ,उन्होंने कई खास बातें कहीं हैं .
     
        Sumant Bhattacharya मुझे हैरानी होती है..जब बहस हमारी और आपकी जिम्मेदारियों की होती है तो सारी बकैती धरी रह जाती है…हां, बात प्रेमचंद पर करनी हो..दास्तोवेस्की या मायोवेस्की पर करनी हो..या फिर दांते या मार्क्स पर करनी हो तो फिर देखिए हमारे मित्रों का जलवा..बस बात इनकी ना की जाए..इसीलिए मैं हिंदी पत्रकारिता को नपुंसक और दलाली मानने लगा हूं..मुझे हैरानी होती है कि कैसे कोई पत्रकार सालों से एक ही मीडिया प्रतिष्ठान में चाकरी कर लेता है..क्या उसका कोई वैचारिक विरोध नहीं होता..क्या उसे नए क्षितिज बनते नहीं दिखते…कुछ तो है इस में झोल…
      
        Nilakshi Singh ‎@Ashish Awasthi
        दरअसल हम सब पत्रकारिता में ही सब जवाव्ब सवाल खोजने लगे है … इस अत्ममुधता से भी बहार आना चाहिए … यह सिर्फ एक हिस्सा है ..लोगो को लग सकता है पर सब कुछ अखबार से नहीं होता …

        सच तो यही है !
 
        Ashish Awasthi प्रिय मित्र, टीईटी परीक्षा के नौजवान लखनऊ में आमरण अनशन और धरने पर बैठे हैं. अपनी मांगों को मनवाने के लिये नौ लोग अस्पताल जा चुके हैं. उन्नीस अभी भी धरना-स्थल पर आमरण अनशन पर बैठे हैं और दस और लोगों ने अनशन करने के लिये अपने नाम दिया है. धरना-स्थल पर डटे हुए लगभग तीन हज़ार आंदोलनकर्मियों को ना तो मीडिया ही कोई कवरेज दे रहा है और ना ही मुख्यमन्त्री उनकी बात सुन रहे हैं. उलटे पुलिस नेतृत्वकारी लोगों को हड़का रही है. यह है युवा मुख्यमंत्री का युवकों के साथ आचरण! मेरा निवेदन है कि इस आन्दोलन की मदद में आप जो भी कर सकते हैं, अवश्य करें.
        ek mitra ne yeh bheja inbox mein … kuch likhte kyon nahi
   
        Sumant Bhattacharya Nilakshi Singh बात पत्रकारिता की नहीं..बतौर मीडिया कर्मी दायित्वों और बौद्धिक दिवालिएपन की हो रही है….समाज को नेतृत्व देने वाला खुद कितना विपन्न है..परजीवी है…कायर है..काफी कुछ इस बहस से साफ हो चला है। फिर किस बात का चौथा खंभा…काहे को लोकतंत्र के पहरुए बनते फिरते हो….
   
        Ashish Awasthi दादा खूब भालो ….
    
        Nilakshi Singh सुमंत जी, मैं तो एक पोस्ट शुरू ही करने वाली थी आपकी इसी बात से लेकिन तब तक आपकी पोस्ट आ गई थी इसलिए नहीं की.
     
        Sumant Bhattacharya आशीष भाई..मुद्दे पर बोलिए…मैं तो जहां जाता हूं यही बात बोलता हूं…ग्वालियर गया था बोलने तो वहां छात्रों से मेरी बात हुई… छात्रों की स्टडी सर्कल शुरू करा दी है..दरअसल छद्म पत्रकारों और पत्रकारिता की कलई चौराहों पर खोलने की कवायद मैंने शुरू कर दी है…नीलाक्षी ..आप पोस्ट डालिए..अब इस मुद्दे पर बातचीत रोक देते हैं..वरना व्यवस्थापकों और मीडिया दिग्गजों को परेशानी हो रही है।।हालांकि मैं चाहता था कि अब बहस इस पर हो कि किसने क्या लिखा..किसने क्या बोला….ताकि इस पब्लिक स्पेस से नैतिक दबाव बनाया जा सके..और छद्म पत्रकारिता के चेहरे भी उजागर हों… आमीन.
     
        Sandeep Verma नीलाक्षी ,तुम आज एडमिन हो ,अपने अधिकार का प्रयोग करो .पहले अनावश्यक पोस्ट यहाँ से हटायो ,,किसी भी नाम से डरने की जरुरत नहीं , हर गलत काम पर तुम्हारी जिम्मेदारी मानी जायेगी
      
        Sumant Bhattacharya Nilakshi Singh मैं संदीप की बात से सहमत हूं..निष्क्रिय प्रतिरोध की बजाय सक्रिय प्रतिरोध दिखाओ…
       
        Nilakshi Singh मुझे जो गलत लगा उसे हटा चुकी हूँ और एक कविता वाली पोस्ट भी हटाने जा रही हूँ.
        
        Sandeep Verma नीलाक्षी एक दिन के सुलतान नें चमड़े के सिक्के चलाकर इतिहास में अपना नाम दर्ज करा लिया था , अपनी ताकत को कम ना आंको .
         
        Ashish Awasthi कल देर रात तक देवी प्रसाद त्रिपाठी डपट के राज्यसभा भेजे जाने और उनके सम्मान में हुयी एक भोज का हिस्सा मैं था .. छोटी सी गैतेरिंग कुछ पत्रकार भी थे … देवी प्रसाद जी के किस्से और कुछ लोगो का आचरण ख़ास चर्चा का विषय रहा …. भाई डाक . रमेश दीक्षित काज़मी साब पुराने साथी रामचंद्र प्रधान (सत्ता जाने के बाद पहली बार मिला ) प्रदीप कपूर साब सुरेन्द्र राजपूत …ने किस्से कहानियों का वोह सफ़र शुरू किया जिसकी बात अलसुबह सुमंत दादा कह रहे है ….. चलिए देखाजाता है … एक तो इसलिए आये थे की किसी तरह आनंद सिंह भदोरिया से मुलाकात की गोत फिट हो जाये ताकि डालीबाग वाला काम बन जाये …       

फेसबुक से साभार.

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