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हिंदी मीडिया में सन्नाटा है, खबरों में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है (पार्ट तीन)

Amalendu Upadhyaya सुमंत जी, मुझे लगता है कि आपने जो प्रश्न उठाये हैं उनके उत्तर सही मायनों में क्या हैं लगभग सभी को मालूम हैं लेकिन अहम् सवाल ये है कि क्या हम इस बात की स्वीकारोक्ति करने को तैयार हैं? और मेरी धारणा इस मामले में एकदम साफ़ है कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने का दावा नितांत खोखला है…… मीडिया की आज़ादी के नाम पर मालिकों को आज़ादी चाहिए……. कौन सा दिन ऐसा है जब लोकतंत्र के छठे खम्भे के दफ्तरों में श्रम कानूनों, न्यूनतम वेतनमान और श्रमजीवी पत्रकारों के अधिकारों का हनन नहीं होता……………और इस शोषण के सूत्रधार कौन होते हैं, जाहिर है हमारे बीच से ही निकले हुए लोग…… अपनी पोस्ट में आपने जो महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि -"क्या हिंदी मीडिया के दिग्गज हिंदी पट्टी को दो कदम आगे ले जाने में सक्षम या काबिल हैं….यदि हां तो वो कौन हैं,,और नहीं तो क्यों नहीं." तो इतना ही कहना ही उचित होगा कि हमारे दिग्गज सक्षम भी हैं और काबिल भी…………लेकिन वो ऐसा करेंगे इसमें संदेह है………………."वो कौन हैं" का उत्तर शायद व्यक्तिगत अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है इस पर राय देना उचित नहीं…

Amalendu Upadhyaya सुमंत जी, मुझे लगता है कि आपने जो प्रश्न उठाये हैं उनके उत्तर सही मायनों में क्या हैं लगभग सभी को मालूम हैं लेकिन अहम् सवाल ये है कि क्या हम इस बात की स्वीकारोक्ति करने को तैयार हैं? और मेरी धारणा इस मामले में एकदम साफ़ है कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने का दावा नितांत खोखला है…… मीडिया की आज़ादी के नाम पर मालिकों को आज़ादी चाहिए……. कौन सा दिन ऐसा है जब लोकतंत्र के छठे खम्भे के दफ्तरों में श्रम कानूनों, न्यूनतम वेतनमान और श्रमजीवी पत्रकारों के अधिकारों का हनन नहीं होता……………और इस शोषण के सूत्रधार कौन होते हैं, जाहिर है हमारे बीच से ही निकले हुए लोग…… अपनी पोस्ट में आपने जो महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि -"क्या हिंदी मीडिया के दिग्गज हिंदी पट्टी को दो कदम आगे ले जाने में सक्षम या काबिल हैं….यदि हां तो वो कौन हैं,,और नहीं तो क्यों नहीं." तो इतना ही कहना ही उचित होगा कि हमारे दिग्गज सक्षम भी हैं और काबिल भी…………लेकिन वो ऐसा करेंगे इसमें संदेह है………………."वो कौन हैं" का उत्तर शायद व्यक्तिगत अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है इस पर राय देना उचित नहीं…

        Sumant Bhattacharya शुक्रिया..बस इसी बात को मैं देखना चाहता था..यदि बेबसी है तो उसे भी सार्वजनिक तौर पर साझा किया जाना चाहिए और इस बेबसी के खिलाफ उठ रही दलीलों को नैतिक आधार भी मिलना चाहिए….सारी कवायद बस इसीलिए है…वरना ये छद्म पत्रकार अपना वायरस मीडिया स्कूलों से लेकर सार्वजनिक मंचों तक बेखौफ फैलाते रहेंगे..और हम बैठे कीर्तन करेंगे..
         
        Sandeep Verma मीडीया के नाम पर मालिकों को आजादी चाहिए …..बिलकुल सही कहा आपने ..एक ही लाइन काफी हो जाती है पूरी चर्चा पर
         
        Sandeep Verma ‎'इस बेबसी को सार्वजानिक तौर पर साझा करना चाहिए '…..
         
        Amitaabh Srivastava Ashish Awasthi दरअसल हम सब पत्रकारिता में ही सब जवाव्ब सवाल खोजने लगे है … इस अत्ममुधता से भी बहार आना चाहिए … यह सिर्फ एक हिस्सा है .. लोगो को लग सकता है पर सब कुछ अखबार से नहीं होता … ये एक बेहद महत्वपूर्ण टिपण्णी है. इस पर ध्यान दें और चर्चा को आगे ले जाएँ तो बेहतर होगा
         
        Sandeep Verma मगर मेरी चिंता इसके आगे शुरू होती है सुमंत …मेरी चेतना अगर वोह कुछ भी हिया तो वोह मिडिया की दें है ,मैं तो विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ .अगली पीढ़ी को हम क्या हैरी पोटर से पढायेंगे ……….आज मैं दुखी हूँ सुमंत ..
         
        Sandeep Verma उपश्थिति दर्ज कराने के लिए शुक्रिया अमिताभ
         
        Sumant Bhattacharya चौकीदार को सलाह दी जा रही है कि अपनी ड्यूटी ना बजाए…बात पूरे मीडिया, खासतौर पर हिंदी मीडिया पर हो रही है। सुविधाओं और विशेषाधिकार की लूट में सबसे आगे रहने वाले पत्रकार के लिए कोई दायित्वों की बात ना करे…पॉवर विदआउट रिसपॉंसबिलिटी एंड अकाउंटबिलिटी। आओ मित्रों लौट चलें एक बार फिर सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के दौर में…
         
        Alok Joshi सत्य है..बेबसी को सार्वजनिक तौर पर साझा करना चाहिए– बशर्ते आप बेबस हो चुके हों, या खुद को मान चुके हों.. मैं दो बार बता चुका हूं कि मैं इस बहस में क्यों फिट नहीं होता हूं.. फिर भी इतना साफ करना जरूरी हैकि मैं खुद को बेबस नहीं मानता।.. जिस दिन मान लूंगा उस दिन किसी से भी क्या बात करनी?? आप अगर मानते हैं और फिर भी चर्चा जारी रखते हैं, तो क्या किसी मसीहा का इंतजार है? बात, बहस, आरोपों और आत्मनिरीक्षण से कोई इनकार नहीं है.. मगर विधवा विलाप में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है… क्षमा कीजिएगा बात बुरी लग सकती है.. लेकिन सच है.. और सुमंत आप जिन स्वनामधन्य लोगों से कुछ सुनना चाहते हैं उनका या तो नाम लीजिए या उम्मीद त्याग दीजिए.. मुझे न जाने क्यों बार बार लगता है कि मुझे भी इशारा कर रहे हैं…
         
        Sumant Bhattacharya दायित्वों को आत्ममुग्धता का विशेषण दिया जा रहा है..Nilakshi Singh अपनी बात को दोबारा स्पष्ट कीजिए..वरना सत्ता के पैरोकार आपकी गीता को खून दिया दिल भी देंगे में बदल देंगे।
         
        Sumant Bhattacharya Alok Joshi जी, मेरी तो गुजारिश है..आपका और अंबरीश जी का ये फोरम एक नई सतर तोड़ता दिखाई दे रहा है..जो हम लिखते हैं ..बोलते हैं..टैग किया जाए और बड़ी बड़ी बातों की छोटी छोटी बातों पर चर्चा की जाए…छोड़िए किसने क्या पढ़ा और क्या गुना…क्यों ना किए धरे पर बात हो..
         
        Sumant Bhattacharya सतर हो सतह पढ़ें.
         
        Alok Joshi दुख अच्छी चीज है संदीप.. मगर ऐसा दुख किसी काम का नहीं जिसके आगे रास्ता दिखना बंद हो जाए.. … हो गया हो तो दुख से उबरें।. पिछले हफ्ते भर में हैरी पॉटर का नाम कई बार आ चुका है.. आप वादा भी कर चुके हैं कि उसपर आगे कुछ.. चंदामामा पर भी पूछा था मैंने .. उस पर भी मौन है… यूं तो आप गरम कढ़ाई पकड़ लेते हैं.. मगर इस सवाल का साफ और समझ में आनेवाला जवाब क्यों नहीं देते कि हैरी पॉटर बच्चों का दुश्मन क्यों है? औऱ जिन लोगों ने पढ़ी हो, मैं उनके भी विचार चाहता हूं।
         
        Sandeep Verma नहीं आलोक नाम से कुछ नहीं .यह बात मात्र एक ब्यक्ति की नहीं है ,समूचे समाज की है और आत्मविश्लेषण पर चर्चा की है ,एक या दो ब्यक्तियों को फ़ासी पर चढा .कर क्रांति नहीं आणि है . एक जाएगा दूसरा आज्येगा
         
        Ashish Awasthi ‎Sandeep Verma bhai saab aap se sahmat … maamla maashre ka hai
         
        Sandeep Verma आलोक चौदह साल का तब मेरा पहला और आज तक का एकमात्र लेख स्वतंत्र भारत में छापा था .इसलिए इन्तजार किजिये मैं भुला नहीं .विषय भी ऐसा ही था तब .
         
        Alok Joshi इंतजार तो चल ही रहा है संदीप लेकिन …बीच बीच में फुलझड़ियां देखता हूं तो याद आ जाता है..
         
        Sandeep Verma आपने भी अभी लिखा है की नवभारत टाइम्स मंगाता तो हूँ मगर पुराने नव भारत टाइम्स की याद आती है . .विषय वाही है चिंता वाही है सन्दर्भ बड़ा लग रहा है .
         
        Sumant Bhattacharya Ambrish Kumar जी ने सवाल उठाया कि नॉलेज कैंपस में पढा़ने के बाद सारे सांचे तोड़ दिए गए…दरअसल वो फिर मुद्दे को भटकाना चाह रहे हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि नॉलेज कैंपस की परिभाषा क्या होती है…आप हमारे वरिष्ठ हैं और मैं आपसे सरल शब्दों में जानना चाहूंगा कि नॉलेज कैंपस की जब हम बात करते हैं तो उसका आशय क्या है…यूनिवर्सिटी का मतलब क्या होता है…
         
        Alok Joshi वो जहां लिखा है.. वहीं उसपर चर्चा भी हो तो बेहतर होगा… संदर्भ तो कुल मिलाकर एक ही है… पत्रकारिता… यहां ज्यादा इसलिए नहीं कि सुमंत कह रहे हैं अपने किए धरे पर चर्चा हो जाए…मैंने ऊपर ही साफ किया था कि किए धरे की चर्चा में मैं फिट नहीं हो रहा हूं.. कारण भी बताए थे.. मगर बहस की सुविधा के लिए आप चाहते हैं तो अब मैं साफ लिख देता हूं… मैंने इस दिशा में करीब करीब कुछ नहीं किया.. जो किया उसे तलाशने की कोशिश करता हूं.. थोड़ा अनऑर्गनाइज्ड हो गया हूं.. मिला तो आप ही फैसला करेंगे कि काम का था या नहीं।..
         
        Ambrish Kumar मेरा सिर्फ यह कहना है की ज्ञान ,परिसर और बुद्धी इलाहबाद के बाहर भी होती है
         
        Sandeep Verma आलोक पैसे कमाने के लिहाज से मैं फेल हूँ ,मगर फिर भी मेरी चेतना मुझे बहुत से लोगों से ज्यादा खुस रखती है ,संतोष रहता है .आज मैं अपनी चेतना का प्रयोग मात्र अगली पीढ़ी के लिए कर रहा हूँ . मैं अपने ही नहीं सभी के बेटों बेटियों के लिए एक सुन्दर संसार छोडना चाहता हूँ और मैं इसके लिए मैं अपने भगवान से भी लडूंगा .
         
        Sandeep Verma अम्बरीश जी ,आलोक जी को आज के नभाटा में भी नहीं मिल रही है .
         
        Sandeep Verma वो पुराना मजा, आनद ,विचार ,
         
        Sandeep Verma आलोक जी ,IIPM पर एक लेख कैरवान नें छापी थी ,कोर्ट से स्टे लिया गया है .वैसी एक भी रपट कही और नहीं दिखती . यह सारे सरोकार वही जाते हैं .
         
        Alok Joshi बहुत मोटे विज्ञापन देता है IIPM फिर भी कैरवान आपने पढ़ लिया… टाइम्स ग्रुप की उसके साथ सैकड़ों करोड़ की मुकदमेबाजी नहीं पढ़ी।
         
        Sumant Bhattacharya Ambrish Kumar जी, मेरी नज़र में नॉलेज कैंपस के तीन आधार हैं…ज्ञान का सृजन..ज्ञान का प्रसार और समाज को नेतृत्व। हर व्यक्ति को अपने नॉलेज कैंपस पर फख्र करने का लोकतांत्रिक अधिकार है, बस उसमें अहमन्यता नहीं होनी चाहिए। मैंने इसीलिए अपने दूसरे पोस्ट में हिंदी पट्टी के पांच नॉलेज कैंपस का जिक्र किया और आप ही बताइए कि क्या इन तीन भूमिकाओं में इमारत के तौर पर खड़े ये नॉलेज कैंपस खरे उतर पा रहे हैं..
         
        Sumant Bhattacharya आलोक जी..आईआईपीएम ने पहला मुकदमा कारवां पर नहीं किया..पहला मुकदमा कैरियर्स 360 पर किया और आईआईपीएम हर मुकदमा गुवाहाटी हाईकोर्ट में ही करता है। ऐसा क्यों..ये भी एक पड़ताल का मुद्दा है।
         
        Sumant Bhattacharya Nilakshi Singh , क्या बहस का मुद्दा बदल चुका है…
         
        Sumant Bhattacharya दरअसल, इस पूरी बहस में Alok Joshi ने सच्चाई के साथ स्वीकार किया कि उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया…उनके इस नैतिक साहस पर मैं उन्हें बधाई देता हूं..और मेरी नज़र में उनका सम्मान भी बढ़ गया है। हालांकि कभी उनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई है…और शायद मेरे अकेले के सम्मान से उनका कुछ बनने या बिगड़ने भी नहीं जा रहा है…
         
        Sandeep Verma बात अकेले IIPM की नहीं है ,एक उदहारण है ,शिछा में लुट पर कोई चर्चा ही नहीं है ,क्यों लुट है .. क्यों की मीडिया में विचार गायब हैं . यह तो शिक्षित लोगों के साथ का षड्यंत्र है ,गरीब आदिवासी अनपढ़ के साथ कौन खडा होगा .
         
        Sumant Bhattacharya संदीप भाई ये सवाल तो मैं उठा चुका हूं कि भूख और शिक्षा यही दो बुनियादी मुद्दे हैं..जिन पर बात होनी चाहिे..
         
        Amalendu Upadhyaya सुमंत जी, आलोक जी के सम्मान में मैं भी आपके साथ हूँ… यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने बहुत साफगोई के साथ क़ुबूल किया कि वे शायद अभी कुछ कर नहीं पाए. इससे पहले भी उन्होंने एक कमेन्ट किया था कि कभी कभी आदमी को पता ही नहीं चलता कि वो कब सिस्टम का हिस्सा बन गया…..मुझे लगता है अगर ये साफगोई हम सभी में आ जाए तो 90 फीसदी सनास्याओं के हल तो खुद-ब-खुद निकल जाएँ
         
        Sumant Bhattacharya Ambrish Kumar नीलाक्षी की उदासीनता पर भी मूल सवाल से आप हट रहे हैं अंबरीश जी…कृपया बहस से आत्मा का लोप तो मत कीजिए
         
        Sandeep Verma दोनों ही जगह लूट मचाई हुवी है …और नालेज कैम्पस चुप हैं …और एक महापुरुष तो सीधे फंडिंग ही मांगने लगते है .लखनऊ विश्विद्यालय में मैंने बिना किसी मिडिया समर्थन के मात्र बीस रुपैये में और दो लोगों के दम पर अध्यछ का चुनाव लड़ाया था . दो सौ वोट मिले थे ….कोई छात्र भारती साथ नहीं आई थी ,मात्र मूकदर्शक थे हमारे साथी ….जिन्हें साँस लेने के लिए भी फंडिंग चाहिए .
         
        Sumant Bhattacharya Amalendu Upadhyaya जी…अब मुझे इस परAmbrish Kumar जी की टिप्पणी का इंतजार है। हालांकि एक अहम मुद्दे को बासी करार देकर उन्होंने नीलाक्षी के संदर्भ में राजेंद्र जी,,प्रभाषजी और राहुल बारपुते की बुतपरस्ती का सवाल खड़ा कर दिया है। विचारों और मूल्यों के संघर्ष की बजाय अंबरीश भाई अब बुतों की अराधना करते दिखाई दे रहे हैं।।उनकी चिंता गुरुओं की ख्याति स्थापना में ज्यादा है बल्कि मूल्य स्थापना के। अंबरीश जी कहीं इस सवाल से कतरा रहे हैं कि लाखों में बिकने वाला जनसत्ता कुछ हजार में कैसे और क्यों सिमट गया। क्या सिर्फ मैनेजमेंट की मार की वजह से या फिर अख़बार से अंतरआत्मा के लोप की वजह से
         
        Sandeep Verma सुमंत मुझे लगता है की अखबारों के रंगीन पन्ने भी अब अपनी चमक खो चुके हैं ,ये अलग बात है की बाजार वादी ताकतों के लिए यह भ्रम बनाना जरुरी है ..जनसत्ता जिस भी दिन आवाम को पहचान लेगा ,उसकी आवाज बनेगा ,सर्कुलासन अपने आप आ जाएगा .
         
        Ambrish Kumar जवाब प्रभाष जोशी दे चुके है ,लिखा है पढ़ ले .हम दर्जनों जिलों में मांग के बाद अख़बार नहीं पहुंचा पा रहे है खासकर लखनऊ संस्करण .झुंझला कर कहना पढता है ,क्यों यह मरा हुआ अख़बार पढना चाहते हो ,पर गोंडा बहराइच ,बस्ती ,गोरखपुर ,जौनपुर जैसे दर्जनों जगह से रोज शिकायत .और अब मैंने इस विषय पर किसी भी जिले के संवादाता से बात करना बंद कर दिया है .
        
        Sumant Bhattacharya मुझे लगता है कि अंबरीश जी बहस को डीरेल करने में कामयाब हो चुके हैं..बधाई….ऊपर जारी निजी बहस में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है..फिलहाल विदा लेता हूं…सबका आभार..सभी से कुछ ना कुछ समझने और अंतरदृष्टि विकसित करने का मौका मिला। सबसे ज्यादा निराश मेरे ही अग्रज अंबरीश भाई ने किया…मैं अपना विरोध जता रहा हूं अंबरीश भाई…सार्वजनिक मंच पर …आमीन..
         
        Ambrish Kumar और सुमंत भट्टाचार्य एक जवाब नीलाक्षी ने भी दिया है उसे पढ़ ले .जो जनसत्ता से बाहर जाता है वह इसे सबसे ज्यादा गरियाता है .आप अकेले नहीं है
         
        Sumant Bhattacharya गांधी के उपासक और समर्थक आज हर गांव में हैं..इससे मुझे कहां इनकार है। प्रभाष जी ने जनसत्ता से जो पाठक वर्ग जोड़ा था वो आज भी जनसत्ता में उस जनसत्ता को तलाशता है, जिसको अंकुरित और विकसित प्रभाष जोशी ने किया था। हैरानी नहीं होगी आपको कि ये सिलसिला भी जल्द ही खत्म हो जाएगा। यकीन ना हो तो बेवसाइट पर आईआरएस के आंकड़े मौजूद है..
         
        Sandeep Verma सुमंत यहाँ आप सही हैं …मेरे पास सालों तक जनसत्ता की कटिंगस रही हैं .बहुत बड़ा ढेर हो गया था फिर सम्हाल नहीं पाया ….
         
        Ambrish Kumar आंकड़ों में वह अख़बार सबसे ऊपर है जो सेक्स पर ज्यादा फोकस करता है ,मालिक मुख्यमंत्री का खास होता है और खनन से लेकर सभी धंधों का कम अख़बार के आंकड़े के आधार पर करता है
         
        Sumant Bhattacharya मैं जनसत्ता को नहीं गरिया रहा हूं..आप फिर आपने मेरे शब्दों के मायनों को अपने हिसाब से बदले। मैं उस दायित्व बोध की बात कर रहा हूं…मैं उस नैतिक साहस की बात कर रहा हूं..जो कभी जनसत्ता में था..तब मैं भी आपके साथ जनसत्ता में था…उस जनसत्ता को जब आज तलाशता हूं तो न्यूज एजंसियों की खबरों से लैस,,,थके संपादन…गैरमौजू खबरों के बीच कहीं नहीं पाता..तो मेरा यही कहना है कि क्यों शव पर तमाशा खड़ा किया जा रहा है। क्यों बार बार प्रभाषजी का नाम लिया जा रहा है और आज के जनसत्ता को प्रभाष जी की लीगेसी का वाहक करार दिया जा रहा है। मेरा विरोध इस जनसत्ता से है..
         
        Amalendu Upadhyaya माफ कीजिएगा मुझे लगता है संभवतः प्रभाष जी भी वर्तमान दौर के जनसत्ता से उस तरह संतुष्ट नहीं थे। स्व. आलाक तोमर ने तो बाकायदा एक वेबसाइट पर कुछ टिप्पणी भी कर दी थी। अब ये बात दीगर है कि प्रभाष जी और आलोक तोमर जी दोनों ही जनसत्ता से विदा ले चुके थे इसलिए यहां नीलाक्षी जी सही साबित हो सकती हैं। लेकिन इस बात में भी संदेह नहीं है कि ‘जनसत्ता’ भी वो नहीं रह गया जो प्रभाष जी के समय में था वहीं दूसरी तरफ यह भी सच्चाई है कि बाकी हिंदी अखबारों की तुलना में अभी भी गनीमत है।
         
        Ambrish Kumar आज भी सत्ता के खिलाफ ज्यादा खबरे जनसत्ता में होती है
         
        Sumant Bhattacharya हां अबरीश जी..बहुत बढ़िया बात छेड़ी आपने..सेक्स को लेकर। मुझे याद है कि आपके ही वॉल पर एक दिन दिलीप मंडल को सेक्स सर्वे को लेकर काफी सवाल पूछे गए थे। हिंदी पत्रकारिता को करीब से मैं भी देख रहा हूं..यहां दो मुद्दों पर पत्रकारों के मुंह बहुत बड़े खुल जाते हैं….पैसा और यौन विषयों को लेकर। जब कभी इस पर बात होती है, हिंदी पत्रकार का संघी चरित्र तुरंत मुखर हो उठता है। बदलते भारत में यदि यौन संबंधों पर सर्वे छपता है तो क्या गलत है। यहां फिर आप गलत दिशा ले रहे हैं..ना तो हिंदी पत्रकारिता मुद्दों को उठा पाती है…ना अंतरदृष्टि दे पाती है और ना ही वक्त के साथ बदल पा रही है। ऐसे में क्यों प्रासंगिक रहे हिंदी पत्रकारिता…
         
        Sumant Bhattacharya Ranish Jain भाई,,बंगालियों के बारे में कहा जाता है कि मछली ना मिले पर मछली की गंध से ही भात खा लेता है..जनसत्ता के प्रेमियों की भी यही दुर्गति हो रही है..अब मछली तो मिल नहीं रही है..गंध से काम चल रहा है…ये प्रभाष जी की गंध है..सो जी ले रहे हैं….मुतमइन रहिए..कुछ दिनों में ये गंध भी काफूर हो जाएगी..तब आप भी नीलाक्षी के साथ खड़े नजर आएंगे.
         
        Ambrish Kumar यह चंद उदाहरण है,जब एक फोटो पर एचटी का संपादक हटा दिया जाए और कोई खबर न लिखे तो हमने जमकर लिखा और उसकी कीमत भी प्रबंधन को चुकानी पड़ी .आज भी जो खबर कही नहीं छपती वह यही आती है चाहे किसी बाहुबली के खिलाफ हो या मंत्री के
         
        Sumant Bhattacharya Ambrish Kumar भाई..आपकी इंट्रेग्रिटी पर सवाल कौन उठा रहा है..यहां तो प्रभाष जी के जनसत्ता बनाम आज के जनसत्ता की बात हो रही है..पाठकों के सैलाब पर इतराने वाले जनसत्ता के बारे में क्या प्रतिबद्ध पाठकों को आज अपनी बात कहने का भी हक नहीं है..
         
        Ambrish Kumar हा इससे पहले का जानना चाहते है तो छत्तीसगढ़ के मित्रों से पूछे ,सब आंकड़े वाले अख़बार वहा जब लेट गए थे तो यह तनकर खड़ा था
         
        Amalendu Upadhyaya बिल्कुल सही बात सुमंत जी, बात अंबरीष जी के व्यक्तित्व या उनकी निष्ठा पर हो ही नहीं रही है और न उनके अक्टिविज्म को लेकर किसी को संदेह है, यहां तक कि उनके विरोधियों को भी नहीं। बात तो समूचे जनसत्ता की हो रही है।
         
        Ambrish Kumar और अभी प्रतिबन्ध हटा नहीं है ,मान्यवर
         
        Sandeep Verma सुमंत मुझे लगता है आज के लिए जवाब मिल गया ..
         
        Ambrish Kumar अब यहाँ की बहस समाप्त इस आरोप के साथ की आप सिर्फ और सिर्फ जनसत्ता की समीक्षा करते है ,इससे न इसके पढने वाले कम होंगे और न अख़बार बंद होगा .प्रसार और विज्ञापन से मेरा वेतन कभी कम नहीं मिला .पर आंकड़ों वाले अख़बार में यह गारंटी भी नहीं है
         
        Sandeep Verma अम्बरीश जी जन्सत्ता की प्रतियोगिता किसी दूसरे हिन्दिअख्बार से नहीं ही है . वोह एक नया स्कुल रहा ,और उसे आगे ले जाना है .
         
        Sumant Bhattacharya तो अंबरीश जी इसकी वजह आप थे…आपके अलावा..
         
        Sumant Bhattacharya अंबरीश जी..अब आपने दूसरा मुद्दा छेड़ दिया..जनसत्ता के कई एडीशन बंद हुए…तमाम पत्रकार बेरोजगार हुए या किए गए…जाने दीजिए, ये ऐसा मुद्दा है कि जिस पर सार्वजनिक मंच पर बात करना उचित नहीं होगा..
        
        Sandeep Verma और अम्बरीश जी बात सिर्फ सत्ता के खिलाफ ख़बरों की नहीं है ,बात समाचार में विचार डालने की है ..खोज डालने की है ….
        
        Ambrish Kumar भाई यह बहस ख़त्म की जाए,उत्तर प्रदेश में इस अख़बार की एक पहचान मै भी माना जाता हूँ और दिल्ली जाने पर अंग्रेजी के अख़बार वाले मसलन हिन्दू के संदीप दीक्षित से लेकर टाइम्स की विनीता अगर अपन की ख़बरों पर चर्चा करती है तो इतना तो संतोष मिलता है .मेरा ब्लाग जब डीलिट कर दिया गया तो वेब साईट पर गया और बहुत जगह अपना लिखा वापस मिल गया . जनसत्ता को मै फ़िलहाल श्रद्धांजलि नहीं दे सकता यह मेरी मज़बूरी है पर इसकी बदहाली के लिए जो जिम्मेदार है उनपर भी लिखूंगा कुछ समय बाद .
         
        Sumant Bhattacharya इंतजार रहेगा..जनसत्ता की बहस खत्म..बड़े भाई का आदेश है। लेकिन अंबरीश भाई हिंदी पत्रकारिता के अवरोधों और गतिहीनता पर आपकी एक्सपर्ट टिप्पणी भी कुछ इसी तरह से आए तो हम ज्ञानलोलुपों पर अहसान होगा..
         
        Sandeep Verma ambriish जी यह बहस जनसत्ता के नामसे खत्म मगर मीडिया के नाम पर तो खत्म नहि हो सकती.
         
        Ambrish Kumar हम कई बार कसम खाते है कि अख़बार की चर्चा नहीं करेंगे पर कही न कही से यह हो ही जाती है ,सुमंत यह मौका किसी दूसरे अख़बारों को क्यों नहीं मिलता
         
        Sandeep Verma वैसे जनसत्ता के नामसे शुरू भी नहीं हुवी थी ……………दूसरी पोस्ट पर भी आप यहकी बात कर रहें थे …..क्यों हम अखबार नहीं पढ़ रहे हैं
         
        Sandeep Verma यही तो अम्बरीश जी की महानता है बड़प्पन है ,मैं किसी को गुरु ऐसे ही नहीं बनाता .इसे मेरा घमंड ना समझा जाए
         
        Sandeep Verma वैसे और दूसरे कोई अखबार हैं भी क्या ? आप ही नाम बता दीजिए …
         
        Sandeep Verma वैसे जब अमृत प्रभात बंद हवा था मैं तब भी ऐसे ही रोया था . मगर बाद में नभाटा से जगह भरी थी .
         
        Ambrish Kumar संदीप गुरु गुरु कहकर कुछ संपादको से और दुश्मनी करा दोगे ,यह संगठ नहीं है भाई ,यहाँ पत्रकार लोग है सौतिया डाह से लेकर अहंकार से भरे हुए
         
        Sandeep Verma उनको मालुम नहीं है की मैं जन्सत्ता की वजह से नहीं बल्कि वहाँ तो जनसत्ता से मेरी खुन्नस है .उस एक अदद नौकरी ने समाज का नुक्सान किया है …… अब जनसत्ता से उसकी भरपाई की ही उम्मीद है ..
         
        Sumant Bhattacharya क्योंकि Ambrish Kumar हिंदी में कोई अखबार है ही नहीं…इसीलिए जब बात होती है तो जनसत्ता की होती है..सतह को तोड़ने वाले संपादक का जिक्र होता है तो प्रभाषजी का होता है….दूसरे तो अखबार के नाम पर धोखा भर हैं…कागज के पुलिंदे…
         
        Sandeep Verma और यहाँ पर मैं डा.प्रमोद जी की स्थापना पर ,की वर्तमान कुछ नहीं होता ,हम मात्र इतिहास बनाते हैं और इतिहास ही जीते हैं . आज इतनी गंभीर चर्चा स्वीकारोक्ति की वजह मात्र इतिहास है .आपने ,हमने सुंनत आलोक नें जैसा इतिहास रचा है उसे ही जि रहें हैं ……
         
        Pankaj Srivastava मित्रो, मीडिया के पतनकाल पर इस तेजस्वी चर्चा में कई गंभीर इशारे छिपे हैं..पर ये पतनकाल आया नहीं लाया गया है…या कहें,कि खास राजनीतिक-आर्थिक दर्शन से नत्थी है..कुछ छोटी-मोटी बातें हो सकती हैं, लेकिन सिलसिलेवार ढंग से लोगों को चेताया जाए, इस पर प्रतिबंध जैसी नौबत है..(आउटलुक में अरुंधति का ताजा लेख बेहत विचारोत्तेजक है)…ऐसे में ज्यादा मौजूं सवाल शायद ये है कि व्याख्या तो बहुत हुई, हालात को बदला कैसे जाए…इतना तो तय है कि मासिक किस्तों में कट रहे मौजूदा पत्रकारों की बिरादरी का भरपूर वर्गांतरण हुआ है…वे कोई जोखिम शायद ही लें…
         
        Alok Joshi नहीं गुरु जी आपसे किसको सौतिया डाह होनी है।
         
        Alok Joshi आपकी जैसी शिष्य परंपरा यहां और किसके पासहै
         
        Amitaabh Srivastava आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में एक खबर छपी है- ABP to buy out STAR from TV news venture.हो सकता है प्रिंट के हमारे साथियों के लिए इस सूचना का कोई खास मतलब न हो लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया ने जुड़े लोग समझ सकते हैं कि ये बाजार में एक नयी उथल पुथल का संकेत है। उसी के ठीक बगल में ज़ी टीवी और डीएनए से जुड़ी खबर भी है। अब पंकज जी ने जो विश्लेषण दिया है उसमें अपनी कल कही बातें जोड़ते हुए दोहरा रहा हूं- दिक्कत ये है कि रेफरेंस पॉइंट को सिर्फ किसी खास नज़रिए से देखने पर इतना जोर है कि अलग राय रखने वाला करीब करीब दुश्मन मान लिया जाता है. जिसे राजेंद्र माथुर ने कभी "उजली कमीजवाद" कहा था वो बहुत हावी है. प्रमोद जोशी जी ने कल दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें कहीं- एक तो ये कि पत्रकारिता मूल्यविहीन (और/या सरोकार विहीन ) नहीं है. दूसरी- पत्रकार को पर्यवेक्षक होना चाहिए. मुझे ये एक संयत दृष्टि लगती है . मुझे ये भी लगता है कि अगर हम समाज के संचालक होना चाहते हैं या अपने लिए ऐसी कोई भूमिका देखते सोचते हैं तो ख़बरों को छोड़कर दूसरे मैदानों में आना होगा. मेरी समझ से पत्रकारिता का मूल काम राज्य और समाज संचालन के तमाम उपकरणों ( जो मोटे तौर पर विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के सेक्शन सब सेक्शन में बंटे हुए हैं) पर निगाह रखना, उनकी सूचना सब तक पहुँचाना और उनके विचलन को सामने लाते हुए ज़रुरत पड़ने पर रास्ता सुझाना होना चाहिए. लेकिन वो ये काम ठीक से नहीं कर पा रही है.ये एक कडवा सच है . इसके लिए कुछ पेशे के भीतर की खींचतान है कुछ शायद समाज का ताना बाना जो मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों के चलते काफी बदल गया है. लेकिन इस से भी बड़ा मसला मेरे लिए ये है – क्या समाज का बदलाव एक नए किस्म की उग्र पत्रकारिता से ही होगा. सवाल जोखिम का ही नहीं है.सवाल ये भी है कि जोखिम लिया किसलिए जा रहा है। जब हमारे बीच की ही एक जागरूक साथी को खबर जानने के लिए अखबार पढ़ने या न्यूज़ चैनल देखने की ज़रूरत महसूस नहीं होती तो इसका एक मतलब सारे समाचार माध्यमो के मौजूदा स्वरूप पर मंडराता खतरा भी है। ये खतरा वैश्विक है। न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और गार्डियन के सामने भी अपना अस्तित्व बचाये रखने और बाजार और पाठक वर्ग में अपना दबदबा बनाये रखने की चुनौती है। और ये तो अखबारों और चैनलों के पत्रकारों के अलावा उनके प्रबंधन और मालिकों के लिए भी एक चुनौती है।
        
        Sanat Singh हालात में किसी बड़े बदलाव, जिसकी बात पंकज जी कर रहें हैं, का रास्ता तो पाठक-दर्शक के बल पर चलने वाले मीडिया से ही निकल सकता है.. आलोक जी ने पिछले हफ्ते किसी पोस्ट में पाठक की जिम्मेदारी का सवाल उठाकर इस दिशा में कुछ इशारा भी किया था…पर इसी ढाँचे के अंदर क्या कुछ संभव है??बाजार द्वारा परिभाषित और सीमित सम्पादकीय स्वायत्तता में भी कुछ उम्मीदें हम पाल सकते हैं या नहीं?? इसके लिए सुमंत जी की चिंता पर फिर से लौटना पड़ेगा.. नीतियों पर हिन्दी पट्टी के पत्रकारों की समझ का स्तर और जाहिर है कि उस राजनैतिक-आर्थिक दर्शन की समझ का स्तर जिसमे से ये नीतियां पैदा होती हैं, सवालों के दायरे में है..
         
        Alok Joshi मुझे तकलीफ इस बात से नहीं है कि कहीं किसी ईमानदार सवाल से मैं कठघरे में खड़ा होता दिख सकता हूं। मुझे तकलीफ इस बात से है कि हम काल्पनिक सवालों से जूझ रहे हैं। जो संपादक या संवाददाता विज्ञापन लाने की शर्त के साथ अखबार की नौकरी से जु़ड़ रहे हैं वो इसकी शिकायत नहीं कर सकते। अगर वे काबिल हैं तो उन्हें अपने लिए कोई दूसरा काम खोज लेना चाहिए। संदीप पढ़ा रहे हैं, सनत तो शायद सरकारी नौकरी कर रहे हैं, लेकिन क्या इनके सरोकार मर गए हैं? सरोकार के साथ काम का मौका मिले तो अच्छा है, लेकिन न मिले तो? क्या स्यापा करते ही जीवन बिताएंगे? और अब तो इंटरनेट जैसा माध्यम खुल चुका है.. अपनी दुकान लगाओ .. अपने सरोकार सामने लाओ .. दूध का दूध और पानी का पानी करो… कितने खरीदार हैं सामने आ जाएगा? … लेकिन यहां सवाल उन लोगों का है, जो पत्रकारिता की नौकरी कर रहे हैं, जिन्हें शायद चुने जाने की प्रक्रिया और नौकरियों की परिस्थिति ने इतना निराश नहीं किया है कि वो सदा विलाप की मुद्रा में रहें। सवाल है कि वो अपना धर्म कितना निभा रहे हैं और किस हद तक निभा रहे हैं? मुझे बहुत दुख के साथ लिखना पड़ रहा है… हालांकि मैं खुद बहुत कम पढ़ा लिखा हूं .. मगर अब जो लोग सामने आ रहे हैं वो और भी कम पढ़े लिखे हैं.. और पढ़ने लिखने की इच्छा भी नहीं है… रिजल्ट जरूर बहुत जल्दी चाहते हैं.. और सबसे बड़ा सत्यानाश किया है गूगल के ट्रांसलेशन ने… जिसे भी अनुवाद और टाइपिंग एक साथ परखने के लिए बैठा दो कुछ देर में मशीनी अनुवाद का एक नमूना लेकर हाजिर हो जाता है।..
         
        Pankaj Srivastava मीडिया में पढ़े-लिखे लोग एक दिन में कम नहीं हुए। ये कोशिश जरूर है कि ऐसे लोग या तो किनारे लग जाएं या बाहर चले जाएं…कम पढ़े ना नासमझ लोगों की नियुक्ति करने वाले 'समझदार" ही हैं…वैसे निरपेक्षता से सत्य का उद्घाटन करना भी कोई निरपेक्ष बात नहीं है…जिन चैनलों पर निर्मल बाबा पैसा देकर वक्त खरीद चुके हैं .. जनता से सीधे एकाउंट नंबर में पैसे डालने की अपील कर रहे हैं..वहां का कोई पत्रकार कैसे ये खबर कर सकता है कि नीले की जगह पीला मोबाइल खरीदने से जिंदगी बेहतर हुई कि नहीं…या फिर जिन न्यूज कंपनियों के दीगर धंधे हैं, वो अपने हित के खिलाफ जाने वाली किसी खबर को कैसे प्रसारित होने देगा…ये संयोग नहीं कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के गांव के गांव जलाए गए जांच करने गए सीबीआई वालों की पिटाई हुई, लेकिन ये बात छिटपुट सूचना से आगे नहीं बढ़ती…एक आदिवासी महिला के गुप्तांग में पत्थर डाल दिए जाते हैं और ऐसा करने वाले को वीरता पुरस्कार दिया जाता है, लेकिन ये सत्य बीच बहस नहीं है…क्या ये सत्य नहीं कि देश के प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट हो रही है, लेकिन इसके खिलाफ प्रतिरोध करने वाले विकासविरोधी बताकर पेश किए जा रहे हैं..मुख्यधारा की पत्रकारिता में सत्य का सीधा संबंध सुविधा से है…मुझे तो सीएजी ही देश का सबसे बड़ा पत्रकार लग रहा है…
         
        Vinay Kant Mishra आलोक सर! "अपनी दूकान लगाओ" ,,,,,,,किसकी दूकान ख़बरों की!…….अथवा ख़बरों के माध्यम से मैनेजमेंट की! सर! हिन्दी पत्रकारिता के धर्म, कर्म और मर्म का उद्घाटन करते तो हम सभी का ज्ञान वर्द्धन होता. क्यों कोई ख़बर किसी श्वेतवसन अपराधी का पक्ष रखती हुई चलती है! इस पर भी जवाबदेही तय होनी चाहिए!
         
        Ambrish Kumar अभी दोपहर को एक छोटे से भोज में था जो पांच छह पत्रकारों ,के साथ कुछ राजनीतिको की थी .देवी प्रसाद त्रिपाठी जो राज्यसभा के सदस्य चुने गए है उनके साथ कुछ लोगों की मुलाकात के मकसद से थी .सालों पहले डीपीटी से मुलाकात थी .देर से पहुंचा तो उनसे मुलाकात कराइ गई छूटते बोले ,अम्बरीश जी ,सबसे पहले आपका अख़बार पढता हूँ और आपकी हर खबर .फिर लोगों से परिचय करते हुए कहा -इन्होने ने ही दिल्ली में मुझे फ़्लैट दिया जो मेरी पहली संपत्ति थी और बैंक एकाउंट भी खुलवाया .खबर अख़बार दोनों पर यह टिपण्णी हैरान करने वाली थी क्योकि मुझे लगा कि वे पहचानते ही नहीं होंगे .
         
        Ranish Jain ‎Ambrish Kumar sir ,आपको पढने वाला आपको कहाँ भूल सकता है …
         
        Tahira Hasan mai sumant se sahmat hu ki hindi mai koe news paper jansatha se behtar nahi hai…not only .hindi media but media in general facing this problem that how do we ensure accountability of the mass media some way of making them work for public good?
         
        Alok Joshi अपनी दुकान लगाओ.. तो तय मैं क्यूं करूंगा.. जिसे लगानी है वही करेगा… जवाबदेही जहां तक संभव होगी निभाने की कोशिश करता रहूंगा.. लेकिन आपके जवाब तो आपको ही देने होंगे मैं नहीं दूंगा।
         
        Vinay Kant Mishra आलोक सर! संसाधनों और विकल्प के अवसरों पर चंद लोगों का कब्ज़ा हो जाए इसके बाद विस्थापितों से कहा जाए कि तुममें ईमान और खुद्दारी है तो स्वयं के लिए अवसर बनाओ! मानो तमाम विकल्प और अवसर कुछ चंद लोगों का उत्तराधिकार है!
         
        Alok Joshi मैं तो आपको सामने मौजूद संसाधन, विकल्प और नया खुला अवसर दिखा रहा हूं.. इसमें आप खासा दम भी दिखा रहे हैं.. फिर क्यों उस माध्यम के पीछे पड़े हैं जो आपके हिसाब से गलत लोगों के. गलत ताकतों के कब्जे में जा चुका है?
         
        Alok Joshi और रहा सवाल संसाधनों और विकल्पों पर कब्जे का.. तो आज का माहौल पहले से कहीं बेहतर है… पता कर लीजिए .. पुराने दौर में उप संपादक भर्ती होता था और करियर के अंत में नब्बे परसेंट लोग चीफ सब की कुर्सी पर या विशेष संवाददाता के पद पर ही पहुंच पाते थे… मौकों का तो विस्फोट सा हो गया है.. जाहिर है इतने मौके खुले हैं तो अच्छे भी होंगे खराब भी होंगे… ऐसे ही उन्हें भरने वाले भी होंगे…मेरे पुराने दोस्त हैं लखनऊ में रहते हुए ही अपने चैनल के रेजिडेंट एडिटर हो गए हैं.. नाम नहीं ले रहा हूं.. .. शुरुआती दौर में जब मैं आप ही की तरह हताशा की बातें करता था तो एक दिन बोले .. आलोक, ये सब गलत चल रहा है.. यहां कोई मौका नहीं है.. इसका मतलब क्या आप कोशिश बंद कर देंगे? आप अपनी धार तेज करना क्यों बंद करते हैं.. आखिर कार आपके साथ तो वही रहेगी? उसे तेज करते रहिए आसपास की चीजें अपने आप पटरी पर आएंगी..!
        अब मैं ये दावा तो नहीं कर सकता कि हमेशा करता रहता हूं.. मगर काफी हद तक कोशिश करता हूं.. आगे भी करूंगा.. हालांकि बीच बीच में डिरेल हो जाता हूं।
         
        Vinay Kant Mishra फिर वही जवाब! जनसत्ता आज भी ख़बरों के चयन से लेकर पत्रकारों के चयन में एक अपवाद है. हिन्दी पट्टी इसे बेहतर रूप से जानती और समझती है. मैं हताश और निराश कत्तई नहीं हूँ. मुझे मीडिया जगत में सुलगते सवालों का जवाब चाहिए!
         
        Vinay Kant Mishra आलोक सर! जो है उससे बेहतर चाहिए, हिन्दी पत्रकारिता को साफ़ करने के लिए एक मेहतर चाहिए; जो मैं नहीं हूँ!
         
        Alok Joshi गंडाधारी लोगों से चर्चा का अंत क्य हो सकता है ….. लालबुझक्कड़ बूझिया और न बूझे कोय…!! आप सब महान हैं गुरु शिष्य परंपरा यूं ही तो नहीं चली आ रही अनंतकाल से।
         
        Arvind Vidrohi गुरु शिष्य परंपरा jari hai aur jari rahegi ,,
         
        Vinay Kant Mishra यदि कोई एक आगे आएगा तो वह नेता कहलाएगा. नेता अभिजात्य वर्गीय सुविधाओं से लैस हो जाता है. सर्वहारा की सामूहिक लामबंदी की जरुरत है.
         
        Ranish Jain ‎Vinay Kant Mishra ji , ज़रूरी नहीं की हर नेता अभिजात्यता को धारण करे यह अन्तरंग हो सकता है ..फिर आत्मानुशासन भी तो है ,,जिसका भली भांति उपयोग किया जा सकता है यदि सभी यह सोचने लगेंगे तो नेतृत्व कौन करेगा ….
         
        Arvind Vidrohi नेतृत्व vahi करेगा jo sthapit netritva se ladne ka madda rakhta ho ,,,
         
        Ranish Jain ‎Arvind Vidrohi ji ,और इस विचार क्षमता को धारण करना ही सबसे बड़ी चुनौती है …क्योंकि पाना सब चाहते हैं खोना कोई नहीं …
         
        Alok Joshi आपको मेरी शुभकामनाएँ.. जब लामबंदी हो जाए तो बताएं.. मैं भी लाम पर आ जाऊंगा…
         
        Vinay Kant Mishra आलोक सर! आप बड़े लोग हैं; आप को हक़ है. मैं तो आप को पहले ही गुरुजनों की श्रेणी में रख चुका हूँ. वाद, विवाद के लिए क्षमा. शायद अभी भी संवाद का माहौल क़ायम हो सके. सुलगते सवालों का जवाब गुरु-शिष्य परंपरा ही तलाशेगी, लाला नहीं! आप सभी को प्रणाम. मैं चला!
         
        Arvind Vidrohi jinke pas khone ko kuch hai hi nahi vo hi aage aayenge
         
        Ranish Jain ‎Alok Joshi sir , क्या अपने निजी हितोंको त्यागे बिना लामबंदी संभव है …..???
         
        Vinay Kant Mishra रनीश जी! बिलकुल. निजी स्वार्थ और हितों की बलि जरुरी है. एक साथ सभी लिखने वाले लामबंद हो जाएँ तो दूकानदार क्या बेच पाएंगे! फिर जो सर्वहारा की कलम चाहेगी माल वही बिकेगा बाज़ार में! धन्नों नहीं नाचेगी बाज़ार में! आमीन!
         
        Ranish Jain ‎Vinay Kant Mishra ji , सहमत हूँ आपसे ..कलम की आवाज़ में ताकत होती है ..बस इसके लिए थोडा कबीरपना भी जरूरी है ,…..शुबामीन
         
        Vinay Kant Mishra अब रात के 10 बजे आऊंगा. पत्रकारिता और हिन्दी पट्टी के सुलगते सवालों के जवाब की खोज में………यह बहस एक अंतहीन यात्रा है! हरि अनंत हरि कथा अनंता………..
         
        Ranish Jain क्या परोस रही है हिंदी पट्टी की पत्रकारिता ..नेता का नजला , अभिनेता का बच्चा या अधिकारी का कुत्ता ….कहाँ गए वे विमर्श जहाँ जनवाद दिखाई देता था ..कहाँ गया वो विमर्श जहाँ हम लोग रहते थे …..???
         
        Arvind Vidrohi Kisano pe likho to Publish tak nahi karte tathakathit bade akhbar ,,,
         
        Arvind Vidrohi Bhala ho laghu akhbaro ka jinka naam kam hai lekin Kisano aur aam jan ke bare me likh ke bhejo to Publish kar dete hai
         
        Arvind Vidrohi Social Media se badi takat mili hai ab
         
        Tahira Hasan Arvind ji you are right kissan are committing suicide due to dept or hunger due to bad policies of government atleast one raise these issues here
         
        Arvind Vidrohi Thanx Tahira Hasan ji
         
        Ambrish Kumar भट्ट जी आपको अपने अख़बार ,पत्रकार संपादक की गौरव गाथा लिखने से रोक कौन रहा है ,पर गौरव वाला नाम या काम तो होना चाहिए.
         
        Arvind Vidrohi Naam me kya rakha hai Ambrish Kumar Sir ji sirf गौरव वाला काम तो होना चाहिए , mere nazariye se
         
        Ambrish Kumar शुरुआत चंदन से हो और शेखर गुप्त तक तो चले
         
        Alok Joshi भट्ट जी कहां से आ गए अंबरीश जी..
         
        Tahira Hasan yes even i could not get it?
         
        Ambrish Kumar भट्ट जी का एक सार्वजनिक सन्देश अमिताभ के नाम देखा जिसमे उन्होंने काफी हाउस में जनसत्ता और प्रभाष जोशी की गौरव गाथा पर रोक लगाने की अपील की थी
         
        Alok Joshi ऐ मेरे दिल कहीं और चल… !
         
        Tahira Hasan tark to theek hai kuterk par rooke laa ga de please
         
        Ambrish Kumar आज उत्तर प्रदेश के विशेष डीजीपी ने खाना खाते हुए राज इलाहाबादी का शेर सुनाया ,'यह मेरा दिल है जो सदा जंवा था और जंवा रहेगा ,तेरी जवानी नहीं '
         
        Ambrish Kumar यह दिल की बात पर लिख दिया है ठीक न लगे तो हटा दें
         
        Arvind Vidrohi Dil ki baat likhne me aur kahne me kya koi harz hai Sir ji
         
        Alok Joshi आज शाम का कार्यक्रम दोपहर में ही हो गया दिखता है..
         
        Ambrish Kumar आज आलोक का एक लेख पढ़ रहा था कि तर्क और कुतर्क के बीच सिर्फ दो पैग होता है
   
        Alok Joshi अपनी अपनी कैपेसिटी पर है… हालांकि कैपेसिटी भी काफी भ्रामक अवधारणा है…इसलिए कानूनी मान्यता वाली मात्रा यानी दो पेग ही ठीक रहेगा..
    
        Ambrish Kumar नहीं भाई रात में प्रोफ़ेसर साहब ने ताज में बुलाया है ,दिन में कैसे यह कार्यक्रम हो सकता है .वैसे भट्ट जी ने सफाई दी है कि वे निजी सन्देश दे रहे रहे पर अब सार्वजनिक हो गया उनकी आपति यह थी कि सारी बहस हिंदी पत्रकारिता को लेकर हो रही है जिसका पतन हो चुका है .अंग्रेजी पत्रकारिता का इतना पतन नहीं हुआ है
     
        Alok Joshi मैंने भी लखनऊ का ताज नहीं देखा है.. इस बार आऊंगा तो आप ही ले चलना।.
      
        Tahira Hasan here i disagree ……hindi as well english both media not raising genuine issues boldly and in general there is desire to present the report in ways that suite their bosses who are control by corporate houses
       
        Ambrish Kumar प्रोफ़ेसर दीक्षित का सानिध्य आपको ज्यादा मिला है मुझे तो एक बार उनके यहाँ श्रीलाल शुक्ल के साथ बैठकी फिर उनको घर के भीतर तक छोड़ने का भी निर्देश दिया गया .
        Alok Joshi गुरु वो तो हम सबके ही गुरु हैं।
 
        Ambrish Kumar भट्ट जी कहा है पढ़े ,ताहिरा जी का कमेन्ट
   
        Ashish Awasthi ‎Ambrish Kumar bhai saab ek kal bhi huyee thi DPT ke samman mein Utpal rai ke laalbagh wale ghar pe … aj poora din usi ki bhet chhada hai
    
        Ambrish Kumar अब आ समझे ,डीपीटी के साथ यानी करेला और नीम चढ़ा
     
        Tahira Hasan bhatt ji gayab hai …es bahas mai kaha aap dixit ji aur shukal ko yaad kar rahe hai janab Amberish ji
      
        Ambrish Kumar अब इजाजत दें
       
        Alok Joshi दीक्षित जी को याद कीजिएगा… मैं भी चलूंगा अब!
        
        Vinay Kant Mishra आलोक सर! दोनों में द्वंदात्मक सम्बन्ध है! प्रत्येक तर्क के कुतर्क होते हैं और प्रत्येक कुतर्क के तर्क. दोनों के द्वन्द से हम सतर्क होते हैं.
         
        Vinay Kant Mishra आशीष जी! भाषा की अभिजात्यता भी बड़ा शोषण करती है! वह आदमी को गुनाहगार बनाती है!
         
        Ashish Awasthi विनय जी मैं समझा नहीं ???
         
        Vinay Kant Mishra पिछला कमेन्ट क्यों हटा दिया आप ने आशीष बाबू!
         
        Ashish Awasthi ‎Vinay Kant Mishra bhai :p
 
        Vinay Kant Mishra पत्रकारिता के छायावादी दौर में काहें जी रहे हैं! बात को खुलकर कहें आशीष भाई!
 
        Ashish Awasthi baat khul ke बात खुल के कहता हूँ थोक के कहता हूँ पर कुछ मजाक सिर्फ दोस्तों के बीच समझे जा सकते है .. जहाँ और भी लोग हो जो आभासी रूप से जुड़े हो तो ठीक नहीं लगता …. उप्पर २ पेग पे तर्क कुतर्क की बात हुयी है …… इस लिए हल्का कमेन्ट करने से बच गया … खुद हटा लिया ..
 
        Vinay Kant Mishra आभासी दुनिया!

फेसबुक से साभार

इससे पहले का पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें-

भाग दो

भाग एक

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