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एफएम रेडियो पर खबरों के प्रसारण के लिए सुप्रीम कोर्ट में पीआइएल

अभिव्यक्ति की आजादी लोकतांत्रिक मूल्यों का मूल आधार है। सूचना प्रसारण के माध्यम उसी आजादी के तहत लोगों तक अपनी पहुंच बनाते हैं। लेकिन इन सबके बीच एफएम व सामुदायिक रेडियो के पास मुख्यधारा मीडिया की तरह खबरें प्रसारित करने का अधिकार न होना चौंकाता है। सरकार के नियमों के मुताबिक एफएफ व सामुदायिक रेडियो न तो अपना कोई बुलेटिन बना सकते हैं न ही अपनी ओर से कोई समाचार प्रसारित कर सकते हैं। इस मामले में कई बार स्वयं सेवी संगठनों व प्राइवेट प्रसारकों ने सरकार से सार्थक कदम उठाने की पहल भी की, लेकिन सरकार ने संवदेनशील माध्यम होने की बात कहकर खबरों के प्रसारण की इजाजत देने से साफ इनकार कर दिया।

अभिव्यक्ति की आजादी लोकतांत्रिक मूल्यों का मूल आधार है। सूचना प्रसारण के माध्यम उसी आजादी के तहत लोगों तक अपनी पहुंच बनाते हैं। लेकिन इन सबके बीच एफएम व सामुदायिक रेडियो के पास मुख्यधारा मीडिया की तरह खबरें प्रसारित करने का अधिकार न होना चौंकाता है। सरकार के नियमों के मुताबिक एफएफ व सामुदायिक रेडियो न तो अपना कोई बुलेटिन बना सकते हैं न ही अपनी ओर से कोई समाचार प्रसारित कर सकते हैं। इस मामले में कई बार स्वयं सेवी संगठनों व प्राइवेट प्रसारकों ने सरकार से सार्थक कदम उठाने की पहल भी की, लेकिन सरकार ने संवदेनशील माध्यम होने की बात कहकर खबरों के प्रसारण की इजाजत देने से साफ इनकार कर दिया।

सन् 1995 के सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश में कहा गया था कि ध्वनि तरंगे पब्लिक प्रॉपर्टी हैं, इनपर देश के नागरिकों का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद ही देश में एफएम क्रांति ने तेजी से पैर पसारे। एफएम के पहले व दूसरे चरण में स्पेक्ट्रम नीलामी के जरिए सरकार में मोटा मुनाफा कमाया। फिलहाल सरकार एफएम के तीसरे दौर की लांचिग की तैयारियों में है, जिसमें 227 शहरों के लिए करीब 839 एफएम लाइसेंस प्रदान किए जाएंगे, इसके बाद एफएम की पहुंच शहरों से निकलकर गांव में भी होगी। गांव के लोग भी दिल्लीवासियों की तरह मोबाइल की लीड कान में ठूंसे खेत में काम करते दिखाई दिया करेंगे। लेकिन मुद्दा यह है कि एफएम केवल मनोरंजन का ही साधन बना रहेगा या खबरों का भी वाहक बनेगा।

एफएम व सामुदायिक रेडियो पर खबरों के प्रसारण के अधिकार को लेकर सरकार का तर्क रहा है कि एफएम व सामुदायिक रेडियो संचार के बेहद संवेदनशील माध्यम हैं, इनकी निगरानी करना सरकार के लिए असंभव है, इन्हीं खतरों को देखते हुए सरकार इन्हें समाचार प्रसारित करने की अनुमनि नहीं दे सकती है। सिनेमा, टेलीविजन व अखबार जैसे जनमाध्यमों का जायजा लेते हुए सरकार द्वारा दिए जा रहे तर्कों की जांच करें तो पता चलेगा की सरकार इस मामले में सौतेला व्यवहार कर रही है। आंकड़ों के मुताबिक देश में लगभग 850 टीवी चैनल चल रहे हैं, जिसमें करीब 350 खबरिया चैनल हैं। वहीं, देश में करीब 80 हजार समाचार पत्र, पत्रिकाएं प्रकाशित होते हैं। जब सरकार इस सबकी निगरागी कर सकती है(जैसा की वह कहती है) तो कुछ सौ एफएम व सामुदायिक रेडियों की क्य़ो नहीं? दूसरा पहलू यह भी है कि सरकार के अनुसार यदि यह संवेदनशील माध्यम है तो इसमें एफडीआइ की सीमा बढ़ाकर 49 फीसदी क्यों कर दी गई? एफडीआइ मसले पर अरविंद मायाराम समिति की सिफारिशों को क्यों स्वीकार किया गया?

यदि अपने पड़ोसी देशों पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, थाइलैंड जैसे देश रेडियो के विकास व विस्तार के मामले में भारत से आगे चल रहे हैं। नेपाल में 350 से अधिक एफएम रेडियो स्टेशन काम कर रहे हैं। वे डिजीटल टेक्नोलॉजी डीआरएमके के जरिए प्रसारण कर कर रहे हैं। थाइलैंड व नेपाल के प्रसारणों को भारत में आसानी से सुना जा सकता है। वहां रेडियो स्टेशनों को भारत के मुकाबले अधिक आजादी प्राप्त है। वे अन्य जनमाध्यमों की तरह स्वतंत्रतापूर्वक खबरों का प्रसारण कर सकते हैं। जबकि भारत में एफएम चैनल केवल आकाशवाणी से प्रसारित समाचारों को असंपादित रुप में ही प्रसारित कर सकते हैं। इसके अलावा उन्हें केवल खेल, यातायात, मौसम, सांस्कृतिक कार्यक्रम, त्यौहार, परीक्षा परिणाम, स्कूल-कॉलेजों में दाखिला, सार्वजनिक उद्घोषणा आदि करने की ही इजाजत है। वैसे सुनने में आया है कि इस मामले में कॉमन कॉज नामक स्वयंसेवी संस्था के निदेशक कमलकांत जयसवाल के जरिए सुप्रीम कोर्ट में एक पीआइएल दाखिल की गई है। देखने वाली बात होगी की इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट का क्या रूख रहता है।

 

लेखक आशीष कुमार पत्रकारिता एवं जनसंचार के रिसर्च स्कॉलर हैं उनसे संपर्क 09411400108 पर किया जा सकता है।

 

 

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