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सुख-दुख...

Fraud Nirmal Baba (11) : मुझे कुछ रुपये दो और मैं एक महीने में इससे भी तगड़ा बाबा पैदा कर दूं

ये बहुत दुखद है साथ ही चिंता का विषय भी है. एक तरफ तमाम न्यूज़ चैनल ये सिखाते हैं कि 21 वीं सदी में तंत्र मंत्र, भूत प्रेत जैसी किसी भी रुढ़ीवादी दकियानूसी बातों का विरोध करना चाहिए, लेकिन दूसरी तरफ जब न्यूज़ चैनल इस तरह के बाबाओं को रातों रात इस मुकाम पर पहुंचा देते हैं कि क्या बच्चे क्या बूढ़े सबकी जुबान पर इस तरह के बाबाओं का नाम रट जाता है. अब इसे हमारे देश की विडंबना ना कहें तो और क्या कहें, भारत की परंपरा साधु संन्यासियों में आस्था रखती आई है और शायद भविष्य में भी ये आस्था बरकरार रहे, लेकिन किसी इंसान को रातों रात भगवान बना देना ना भारतीय संस्कृति है और ना ही परंपरा, ये सिर्फ और सिर्फ चंद रुपयों की खातिर खेला जा रहा खेल है.

ये बहुत दुखद है साथ ही चिंता का विषय भी है. एक तरफ तमाम न्यूज़ चैनल ये सिखाते हैं कि 21 वीं सदी में तंत्र मंत्र, भूत प्रेत जैसी किसी भी रुढ़ीवादी दकियानूसी बातों का विरोध करना चाहिए, लेकिन दूसरी तरफ जब न्यूज़ चैनल इस तरह के बाबाओं को रातों रात इस मुकाम पर पहुंचा देते हैं कि क्या बच्चे क्या बूढ़े सबकी जुबान पर इस तरह के बाबाओं का नाम रट जाता है. अब इसे हमारे देश की विडंबना ना कहें तो और क्या कहें, भारत की परंपरा साधु संन्यासियों में आस्था रखती आई है और शायद भविष्य में भी ये आस्था बरकरार रहे, लेकिन किसी इंसान को रातों रात भगवान बना देना ना भारतीय संस्कृति है और ना ही परंपरा, ये सिर्फ और सिर्फ चंद रुपयों की खातिर खेला जा रहा खेल है.

मैं ये नहीं कहता कि हर साधु-संत रुपयों और विलासिता पूर्ण ज़िंदगी के पीछे भागता है, लेकिन परेशानी ये है कि सच्चे साधु-संतों को इस देश में कोई पहचानता नहीं है. इसके पीछे की वजह भी मजबूत है क्योंकि परमात्मा के सच्चे दूत जिन्हें साधु-संतों की संज्ञा दी जाती है उनके पास ना तो तमाम लावलश्कर है और ना ही ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताकत ‘दौलत’ है. उनके पास सिर्फ सच्ची भक्ति और सच्चाई का मार्ग है, इसलिए वो इस देश की पावन धरती पर जन्म तो लेते है लेकिन बगैर किसी का भला करे दुनिया से चले भी जाते हैं, जिसका किसी को पता भी नहीं चल पाता है. इस देश के तमाम मीडिया घराने भी इस बात को बखूबी जानते हैं लेकिन चूंकि सच्चे साधु-संतों से न्यूज़ चैनलों को कोई लाभ मिलने की उम्मीद नहीं होती इसलिए उनकी पहचान छुपी रह जाती है.

दुर्भाग्य ये भी है कि क्योंकि जब जब निर्मल बाबा जैसी मीडिया की पैदाइश लोगों के बीच टेलीविज़न के माध्यम से पहुंचती है, तब-तब हर टीवी चैनल खुद को इन धोखेबाज़ों से ये कहकर अलग करने की कोशिश करता है कि ये सिर्फ एक विज्ञापन है और चैनल का इससे किसी भी प्रकार से कोई लेना देना नहीं है, लेकिन कोई भी चैनल आखिर ये कैसे भूल जाता है कि इन फर्ज़ी लोगों को टीवी पर दिखाने से पहले चैनल अपनी जेब भर चुका है. उनसे मोटी रकम स्लॉट बेचने की एवज में ले चुका है. ज़ाहिर सी बात है इसमें जहां तक न्यूज़ चैनल ज़िम्मेदार है वहीं कहीं ना कहीं हमारे देश का कानून भी ज़िम्मेदार है. कोई भी न्यूज़ चैनल या फिर इंटरटेनमेंट चैनल सरकार से ये कहकर लाइसेंस लेता है कि या तो खबरें दिखाएगा या फिर मनोरंजन करेगा, लेकिन निर्मल बाबा की तीसरी आंख ना तो किसी तरह की खबर है और ना ही मनोरंजन, महज़ एक विज्ञापन है. और एक ऐसा विज्ञापन जो आधे आधे घंटे प्रसारित होता है और जिसके ज़रिये तीन खाते नंबर देकर खुले आम पैसे मांगे जाते हैं.

अरे एक बात सोचिये क्या किसी साधू संत को लोगों का भला करने के लिए किसी प्रकार का लालच होता है. लालच और संत का कोई नाता ही नहीं होता. सच्चे संत तो एक पेड़ की छांव में बैठकर लोगों का भला कर सकते हैं तो फिर निर्मल बाबा की तीसरी आंख शहंशाहों वाली कुर्सी पर वातानुकूलित माहौल में बैठकर ही क्यों खुलती है. बाबा सिर्फ दो लाइन बोलने के हज़ारों रुपये ऐंठ लेता है. बाबा ने करेंट एकाउंट खुलवा रखे हैं तो बाबा फिर बाबा कैसे हो गया. बाबा विलासिता पूर्ण ज़िंदगी बसर कर रहा है और दुखी मजलूमों की आंखों पर बंधी पट्टी का फायदा उठाकर उनसे रुपये ऐंठ रहा है. न्यूज़ चैनल बंद कमरों में बैठकर तंत्र मंत्र करने वाले लोगों को ढोंगी कहते हैं, लेकिन खुले आम उनके चैनल पर बैठकर ढोंग करने वालों के लिए न्यूज़ चैनलों की डिक्शनरी में कोई शब्द नहीं है बल्कि उनके ढोंग को प्रसारित कर उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं.

बाबा की तीसरी आंख देखने के लिए दरबार में तमाम लोग हाजिरी लगा रहे हैं. उनमें कोई कहता है बाबा मैं बीमार था या थी, लेकिन आपके चमत्कार से मेरी बीमारी ठीक हो गई. क्या कोई ऐसे लोगों से ये पूछता है कि कैंसर जैसी बीमारी का इलाज क्या सिर्फ बाबा के चमत्कार से हो गया. इस बीच दवा खानी बंद कर दी थी क्या, लेकिन नहीं इस तरह के सवाल ना तो बाबा पूछता है और ना ही बाबा के दरबार में आये लोग ही एक दूसरे से पूछते हैं. लोग कहते हैं कि कई महीनों से दवा खा रहे थे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ लेकिन आपके चमत्कार ने बीमारी ठीक कर दी. भला कोई पूछे कि उस चमत्कार के दौरान दवा खानी बंद कर दी थी क्या, कई बार तो गुस्से के साथ-साथ हंसी भी आती है कि आखिर कोई व्यक्ति अपनी आंख पर इस कदर पट्टी कैसे बांध सकता है. मैं खुद ये दावा करता हूं कि मुझे कुछ रुपये दो और मैं एक महीने के बीतर इस बाबा से भी तगड़ा बाबा पैदा कर सकता हूं. बस कुछ लोग, एक अच्छी स्क्रिप्ट, एक पंडाल और कैमरे चाहिए. एक और तीसरी आंख वाला बाबा इस देश में पैदा हो सकता है महज़ एक महीने के भीतर.

मगर ना तो टेलीविज़न चैनलों की टीआरपी बढ़ाने वाले दर्शकों को ये बात समझ आ रही है और ना इस तरह के ढोंग को प्रसारित करने वाले चैनलों को. न्यूज़ चैनलों की ज़िम्मेदारी है कि इस कलियुग में विज्ञान से जुड़ी जानकारियां लोगों तक पहुंचाए, मेडिकल साइंस की तरक्की को लोगों के बीच पहुंचाएं, देश के किसी हिस्से में गरीबी है तो उसकी बात को लोगों तक पहुंचाएं, ना कि इस तरह के ढोंग का प्रसारण करें. आस्था, परंपरा, संस्कृति इन तीनों शब्दों पर न्यूज़ चैनलों की बदौलत ढोंग शब्द भारी पड़ रहा है. इसे रोकना बेहद ज़रुरी है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो भविष्य में ऐसे कई और बाबा पैदा हो जाएंगे, क्योंकि मैंने बताया कि एक बाबा

बनाने के लिए क्या ज़रुरी होता है. कुछ एक लाख रुपये और एक बेकार इंसान जिसके पास दौलत तो है लेकिन उस दौलत का सही इस्तेमाल नहीं कर पाया है. सिर्फ ये दो चीज़े मिलकर बनाती हैं तीसरी आंख वाला बाबा।

लेखक शगुन त्‍यागी सहारा समय चैनल के साथ लम्‍बे समय तक जुड़े रहे हैं. वे इन दिनों नॉर्थ ईस्‍ट बिजनेस रिपोर्टर मैग्‍जीन के दिल्‍ली-एनसीआर ब्‍यूरोचीफ के तौर पर जुड़े हुए हैं. सगुन से संपर्क मोबाइल नम्‍बर 07838246333 के जरिए किया जा सकता है.

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