जब अन्ना बाबा टेलीविजन के सेट पर उभर रहे थे अपने आंदोलन के साथ, जब रामदेव बाबा अपनी भ्रष्टाचार के खिलाफ यात्रा में व्यस्त थे, जब श्रीश्री रविशंकर जीवन जीने की कला के विस्तार में व्यस्त थे, श्री मोरारी और श्री आशाराम बापू द्वय टीवी पर अपने प्रवचन में व्यस्त थे, उसी दौरान एक व्यक्ति जूनियर आर्टिस्ट्स के साथ खुद के लांच करने का पहला चरण पूरा कर चुका था.
अन्ना के आंदोलन को लेकर यह बहस लंबी चली कि इस आंदोलन को मीडिया ने खड़ा किया है अथवा यह कोई जन आंदोलन है. लेकिन बाबा निर्मल को लेकर कोई बहस नहीं है कि वे मीडिया द्वारा खड़े किए गए जिन्न हैं या वास्तविक आध्यात्मिक संन्यासी? यह आध्यात्मिक गुरु किसी को भी पैसे लिए बिना अपना दर्शन नहीं देता. आशाराम बापू ने एक बार इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए ‘कुत्ता’ शब्द का इस्तेमाल किया था, जिसके सामने बोटी फेंककर कुछ भी करवाया जा सकता है. उन दिनों आशाराम के आश्रम से मीडिया में उन्हें अच्छी ना लगने वाली कुछ खबरें आ रही थीं. उस समय आम आदमी यही समझ रहा था कि मीडिया अपना कर्तव्य निभा रहा है. लेकिन पेड न्यूज खबर छपने और ना छपने से अब एक कदम आगे बढ़ गया है.
अब खबर के फालोअप ना करने के भी पैसे वसूले जा रहे हैं. पत्रकारिता और धंधा के बीच खींची हुई स्पष्ट लकीर को पहले महीन किया गया और ना जाने यह लकीर कब मिट गई. अनुमान है कि महीने के दस करोड़ के खर्च पर देश के तीस चैनल बाबा की उपस्थिति का उत्सव मना रहे हैं. इन चैनलों और पैसों की अकूत ताकत ने बाबा को पवित्र गाय बना रखा है. यदि बाबा में आध्यात्मिक शक्ति होती तो कानूनी नोटिस की जगह आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग करते. खुद पर उठ रहे एक-एक जुबान को बंद करने की कोशिश की जगह कोई ऐसा चमत्कार करते कि सबकी जुबान खुद बंद हो जाती. पीपरिया मध्य प्रदेश की एक दुकान पर देवी पार्वती, ईश्वर शिव और बाबा साईं से भी अधिक पोस्टर बाबा निर्मल का दिखा. पोस्टरों के दिखने से भी अधिक दिलचस्प दुकान वाले का जवाब था- जो बिकेगा वही तो रखेंगे.
इस जवाब में कुछ नयापन नहीं है लेकिन इस जवाब में कुछ तो बात है, जिसका हवाला पटरी बैठा एक पोस्टर वाला भी दे रहा है और दिल्ली की एक बहुमंजिली इमारत में बैठे एक चैनल का सीईओ भी दे रहा है. बेचने का फार्मूला दोनों का एक ही है. वास्तविकता यही है कि निर्मल बाबा की वजह से दस करोड़ महीने का जब आम मिल रहा है और टीआरपी के तौर पर गुठलियों का दाम भी वसूल हो रहा है, ऐसे में आप किसी टीवी चैनल वाले से पत्रकारिता के मूल्यों पर बात करेंगे तो आपको मुख्य धारा का कोई भी गंभीर पत्रकार गंभीरता से लेने को तैयार नहीं होगा. क्योंकि अब पत्रकारिता बदल गई है. प्रतिस्पर्धा पहले से बढ़ गई है. यह बिरला का नहीं, अंबानी का मीडिया युग है. तय है, बदलते युग में मूल्य भी बदलेंगे और नए मूल्य वही तय करेगा, जो इस दौड़ में सबसे आगे होगा.
निर्मल दरबार के नेहरू प्लेस वाले दफ्तर कम बीपीओ में गया था. बाबा के मीडिया सेल के बारे में पता करने. वहां बताया गया कि बाबा जब सारी मीडिया में आ रहे हैं, फिर उन्हें मीडिया सेल की क्या जरूरत है? यदि बाबा के नेहरू प्लेस वाले दरबार में सीसी टीवी लगा हो तो कोई भी छह अप्रैल दोपहर दो और तीन के बीच में यह फूटेज देख सकता है, जिसमें बाबा की प्रतिनिधि महिला कहती है कि बाबा के भक्त बड़े बड़े नेता मंत्री हैं, केरल के मुख्यमंत्री भी बाबा के सामने सिर झुकाते हैं. बाबा प्रतिनिधि यह बताने में असफल रही कि वह किस मुख्यमंत्री की बात कर रही हैं? दोनों हाथों से बाबा के ग्राहकों द्वारा पैसा बटोरने जैसे महत्वपूर्ण काम को करते हुए, बाबा प्रतिनिधि ने मुझसे बात की, इसके लिए उन्हें साधुवाद कहकर निकल गया.
“सिख धर्म के ग्रंथों में साफ-साफ कहा गया है कि करामात कहर का नाम है. इसका मतलब है जो भी करामात कर अपनी शक्तियां दिखलाने की कोशिश करता है, वो धर्म के खिलाफ काम कर रहा है. निर्मल को कई दफा यह बात मैंने समझाने की कोशिश भी की, लेकिन उसका लक्ष्य कुछ और है, उसको मैं क्या कह सकता हूं.” यह बात झारखंड के एक वरिष्ठ राजनेता इंदर सिंह नामधारी ने एक वेबसाइट से बात करते हुए बताया. निर्मल बाबा ने अपने जीवन के बहुत बरस झारखंड के पलामू में गुजारे हैं. इंदर सिंह नामधारी की पहचान झारखंड के कद्दावर और समझदार नेताओं की रही है. निर्मल बाबा इन्हीं नेताजी के साले हैं. माने इंदर सिंह नामधारी की पत्नी मनविन्दर कौर के सगे भाई हैं. नामधारी ने स्वीकार किया कि निर्मलजीत सिंह नरूला का कॅरियर बनाने में उन्होंने प्रारंभ में काफी मदद की है. निर्मलजीत सिंह नरूला के पिता और नामधारी के ससुर दिलीप सिंह बग्गा बहुत पहले गुजर गए. बेसहारा हुए निर्मलजीत सिंह नरूला नामधारी अपने साथ ले आए. उसकी मदद तरह-तरह से की, लेकिन कोई धंधा जब सफल नहीं हुआ तो एक दिन निर्मलजीत सिंह नरूला, निर्मल बाबा बन गये.
इस पूरी कहानी में इस पक्ष को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, कि अन्ना के आंदोलन के बाद समाज में साधु संन्यासियों की प्रतिष्ठा एक बार फिर बढ़ गई थी, क्योंकि इस आंदोलन में जनभावना को समझते हुए जन आंदोलनकारी की भूमिका में संन्यासी आए थे. अब साधु-संन्यासियों की समाज में बढ़ रही प्रतिष्ठा राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए बड़ी चुनौती बन गई थी. ऐसे समय में एक ऐसे संन्यासी की जरूरत राजनीति को भी थी, जो सिर्फ पैसे की भाषा जानता हो. जो पैसे लिए बिना दर्शन भी ना देता हो और अच्छी रकम दो तो अकेले में भी मिलने को तैयार हो जाता हो.
लेखक आशीष कुमार अंशु युवा पत्रकार हैं. उनका यह लेख रविवार में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लिया गया है.
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