जयपुर। पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का कहना है कि मीडिया से काफी उम्मीदें हैं, लेकिन अब समझौते होने लगे हैं। पत्रकारों को सरकारों द्वारा सुविधाएं दी जा रही हैं। एक अच्छा पत्रकार संत से बड़ा होता है। संत एक संप्रदाय का होता है और पत्रकार सबका। दोनों समाज के लिए काम करते हैं। पहले मीडिया अंकुश लगाने का काम करता था, आजादी से पहले पत्रकारों के नाम गिनाए जाते थे और अब 65 सालों में किसी पत्रकार का नाम इतिहास में दर्ज नहीं हुआ है। आज पत्रकार श्रमजीवी कहलाना पसंद करते हैं, बुद्धिजीवी नहीं। आज के युवा को संकल्प लेना है कि वह बीज बने, फल चाहे किसी को भी मिले।
लोकतंत्र की हालत पर प्रहार करते हुए कोठारी ने कहा, लोकतंत्र के सपने चूर-चूर हो गए हैं। नेता राजा की तरह काम कर रहे हैं। गरीब की चिंता किसी को नहीं है। आरक्षण के नाम पर जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है, पर सब नेता इस पर एक राय हैं। लोकतंत्र की 65 साल की यात्रा पर मंथन करना होगा, देखना पड़ेगा कि क्या लोग समृद्ध हुए हैं? आजादी के समय नीतियां नीचे वालों को देखकर बनती थीं, लेकिन अब उल्टा हो रहा है।
नौकरशाही और न्यायपलिका आज अप्रभावी नजर आती है। विधायिका में वंशवाद गहराता चला गया। इंदिरा गांधी इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले को अंगूठा दिखाकर कुर्सी पर काबिज रही।…आज क्षेत्रीय दल पूरी तरह एक व्यक्ति के कब्जे में (वन मैन शो) हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी रोटी-पानी का अभाव है। हम किसके भरोसे भविष्य देख रहे हैं। आज जो हो रहा है, वह किसी अत्याचार से कम नहीं है। जनता की चिंता करने वाला कोई नहीं, घोटालों को दबाने की कोशिश हो रही है। नई पीढ़ी पंगु होती जा रही है, लेकिन किसी के आंख में आंसू तक नहीं है। सब अपने काम में व्यस्त हैं। आज लोकतंत्र के इतने टुकड़े हो गए हैं कि आगे इसका एक होना दूर का सपना नजर आता है।
सत्ता का नशा सब जगह घर कर गया है। जनता का सेवक शब्द गायब हो गया है। चुने हुए लोग शासक बन गए हैं। मतदाता की लाचारी है कि दो में से एक को चुनना है, जो कम बेईमान हो। चुनाव प्रक्रिया में बहुत सारी विसंगतियां है। नोटा एक तरह से मजाक है। ज्यादा वोट मिलने के आधार पर खराब व्यक्ति भी जीत जाता है।