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उम्मीद की किरण हैं केजरीवाल

स्वभाव से विद्रोही, काम से एक्टिविस्ट और लक्ष्य केंद्रित व्यक्ति होने के बाद आज मुझे अरविन्द केजरीवाल का दीवाना होना चाहिए था। जैसे कि भारत के तमाम लोग हो रहे हैं। लेकिन बार-बार मस्तिष्क ऐसा होने से मना कर देता है। ये बिलकुल सही है कि केजरीवाल ने आज हिंदुस्तान की नब्ज पर हाथ रख दिया है क्योंकि आम भारतीय महँगाई, भ्रष्टाचार, भाई -भतीजावाद और तुष्टिकरण की राजनीति से गले तक आजिज आ गया है। वो इससे मुक्त होना चाह रहा है।

स्वभाव से विद्रोही, काम से एक्टिविस्ट और लक्ष्य केंद्रित व्यक्ति होने के बाद आज मुझे अरविन्द केजरीवाल का दीवाना होना चाहिए था। जैसे कि भारत के तमाम लोग हो रहे हैं। लेकिन बार-बार मस्तिष्क ऐसा होने से मना कर देता है। ये बिलकुल सही है कि केजरीवाल ने आज हिंदुस्तान की नब्ज पर हाथ रख दिया है क्योंकि आम भारतीय महँगाई, भ्रष्टाचार, भाई -भतीजावाद और तुष्टिकरण की राजनीति से गले तक आजिज आ गया है। वो इससे मुक्त होना चाह रहा है।

इसी तलाश में उसने ४० साल पहले जंजीर के विजय यानि अमिताभ में वो अक्स तलाशा था। फिर एक गम्भीर और गुस्सैल यंग मैन से धीरे -धीरे मसखरेपन की तरफ बढ़ते हुए अमिताभ ने आम भारतीय का दिमाग पलट दिया। फिर जयप्रकाश नारायण में वे आदर्श तलाशे गए लेकिन जयप्रकाश के खुद के आदर्श आम भारतीय के सपने के आड़े आ गए। तब से भारतीय आदमी की तलाश निरंतर जारी है, कभी इंदिरा, कभी संजय, कभी राजीव, कभी आडवाणी, कभी अखिलेश से होता हुआ तलाश का ये सफ़र फिलहाल केजरीवाल पर अटक गया है।

माहौल कुछ ऐसा है कि केजरीवाल के खिलाफ ज्यादातर लोग सुनने को तैयार नहीं। केजरीवाल ने पार्टी निर्माण के 13 माह के अंदर दिल्ली की सत्ता जरुर हासिल की लेकिन इसके लिए उन्होंने पिछले १० साल से अथक मेहनत की है। आयकर विभाग की नौकरी छोड़ी, अन्ना जैसा कंधा तलाशा जिस पर रख कर बंदूक चल सके। फिर भी कुछ कमी जरुर है कि इतना सब कुछ करने के बाद भी किरण बेदी, हेगड़े, राजगोपाल, राजेन्द्र सिंह, मेधा पाटकर आदि को रिझा नहीं सके, बाँध नहीं सके। अगर ये भी कह दूँ तो गलत नहीं होगा कि अन्ना के प्रिय और परदे के पीछे के दिग्दर्शक होने के बाद भी सर्वमान्य चेहरा न हो सके.

आज केजरीवाल की टीम में विश्वस्त चेहरे तलाशने को कहा जाए तो मुश्किलें पेश आएंगी। विश्वास लगातार अपनी विश्वशनीयता खो रहे है, अब तो उनके बयानों और हरकतों पर चुटकुले भी बनने लगे है। प्रशांत भूषण के कारनामों से भी उम्र का असर झलकने लगा है। धर्मेंद्र कोली और राखी बिडलान जैसे उनके नए-नए विधायक लगातार विवादस्पद होते जा रहे है। सिसोदिया एक धीर और गम्भीर चेहरा नजर आते है। किन्तु मुख्यमंत्री बनने के बाद कुछ फैसलों से खुद केजरीवाल की कसमों और वादों पर भी सवाल उठने लगे है.

मगर सच ये भी है कि इतनी जल्दी आम भारतीय मीडिया, टीम केजरीवाल और अन्ना के छोड़े गए असर से बाहर आने को तैयार नहीं है। ऐसा तब तक होगा जब तक की केजरीवाल एण्ड कम्पनी पूरी तरह से अपना अस्तित्व ना खो बैठे। वैसे आज पूरा देश ये चाहता है कि काश ये पल ना आयें, क्योंकि केजरीवाल जैसी उम्मीद जल्दी-जल्दी पैदा नहीं होती। भारतवासी जल्दी किसी के ऐसे दीवाने नहीं होते जैसे केजरीवाल के हुए हैं। यकीन नहीं हो पा रहा है कि अरविन्द उस उम्मीद को पूरा कर पाएंगे जो आम भारतीय चाहता है। उस चाह को अरविन्द पूरा करें या कोई और लेकिन अगर अरविन्द और उनके साथी पूरा करते है तो ये एक और चमत्कार होगा।तमाम शंकाओं के बावजूद अरविन्द भारतीय राजनीति और व्यवस्था का चेहरा और चरित्र बदलने में कामयाब हो सकें, ये मैं ही नहीं हर आम आदमी-ख़ास आदमी चाहता है.

 

लेखक से संपर्क उनके ईमेल  [email protected] पर किया जा सकता है।

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