प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा अपने आख़िरी कार्यकाल से कुछ महीने पहले पत्रकारों को संबोधित करते हुए खुद के मूल्यांकन के लिए सबसे ज्यादा भविष्य के इतिहासकारों पर भरोसा जताना उचित ही था. आत्मविश्वास से डिगा हुआ व्यक्ति जैसे अपने आख़िरी राहत के रूप में इश्वर को याद करता है कांग्रेस जिस तरह हर कुकर्म के बाद धर्मनिरपेक्षता के बुरके में छुप जाती है वैसे ही एक कलंकित व्यक्तित्व के लिए यह उचित ही है कि वो भविष्य के इतिहासकारों पर सारा दारोमदार सौंप दें. अनुभव भी यही कहता है कि वाम पोषित इतिहासकारों ने ऐसे तत्वों को कभी निराश भी नहीं किया हो. चाहे हिंदुओं द्वारा गाय खाने की बात हो. वेद को गरडियों का गान कहने की या ‘आर्य बाहर से आये’ जैसे तथ्यों को स्थापित करने की. थके-हारे गिरोहों को वाम इतिहासकारों ने उनकी सुविधा के अनुसार हमेशा तर्क उपलब्ध कराया है. तो अगर 200 साल बाद भी वामपंथ ज़िंदा रहा तो निश्चय ही मनमोहन सिंह भी निराश नहीं होंगे. उनके उम्मीदों का इतिहास कुछ ऐसा लिखा जा सकता है:-
आज से लगभग दो सौ वर्ष पहले इक्कीसवीं सदी की शुरुआत को इतिहासकार मनमोहन युग के रूप में याद रखते हैं. मनमोहन संवत की शुरुआत भी तभी से हुई थी. उससे पहले का कालखंड लगभग दशक भर भारत के लिए काला अध्याय सरीखा था. देश पर बाहरी हमला हो गया था. किसी अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने 'सेना' के साथ भारत पर कब्ज़ा कर लिया था. देश को कई टुकड़ों में बांट दिया गया था. उसके बावजूद अराजकतावादी अटल ने देश के तीन और टुकड़े कर दिए. चारों ओर भुखमरी और आतंक कायम था. ऐसे अंधेरे समय में एक नायक का देश में उद्भव हुआ. भारतीय उप-महाद्वीप को पहला और इकलौता ईमानदार व्यक्ति नसीब हुआ था. मनमोहन सिंह नामक इस क्रांतिकारी ने तब भारत की सत्ता सम्हाला था. घोड़े से तेज़ दौड़ कर वो दफ्तर जाते थे इसलिए उनका आवास रेसकोर्स रोड कहा गया. उन्होंने देश के एकीकरण के लिए दुनिया भर से कुछ विशेषज्ञों की एक कमेटी बनायी. जिसमें गुलबुद्दीन हिकमतयार, मुस्तफा कमाल पाशा, बुतरस बुतरस घाली और यासिर खुराफात आदि प्रमुख थे. कुछ इतिहासकारों का भले यह दावा हो कि ये सारे विशेषज्ञ नाम मनमोहन के सत्ता सम्हालने से पहले दिवंगत हो गए थे लेकिन यह मानने का पर्याप्त कारण है कि इन लोगों के सहयोग से ही भारत का एकीकरण संभव हुआ था. चुकि मनमोहन सिंह खुद एक अर्थशास्त्री थे अतः यह तय है कि ये सभी लोग इन्हीं के शासनकाल में पैदा हुए थे, इसमें भगवा इतिहासकारों के अलावा और किसी को संदेह नहीं है. खैर.
भारत को पटरी पर लाने के बाद देश की बर्बाद पहचान को दुनिया भर में सुधारने के लिए ओलम्पिक की तर्ज़ पर मनमोहन ने एक कोमनवेल्थ खेल का आयोजन किया था. इस खेल में मेहमानों के लिए दस-दस 'बिट करेंसी' (सौ स्वर्ण मुद्रा करीब) के बेड शीट आदि खरीदे गए थे. इतने के ही टाइल्स और गमले आदि की खरीदी कर देश का मान बढ़ाया था. समूची दिल्ली से भिखारियों गरीबों आदि को हटाया गया था ताकि दिल्ली बिलकुल मनमोहन सिंह की तरह दिखे. उस आयोजन के बाद ही भारत की पहचान दुनिया भर में कायम हुई. उससे पहले भारत को बस सपेरों के देश में रूप में जाना जाता था. हर नागरिक उससे पहले बे-ईमान था. उस खेल आयोजन के बाद ही भारत का खजाना भर गया. देश का बिजनेस बढ़ा. रूपये की कीमत में ज़ोरदार उछाल आया. भुगतान असंतुलन दूर हो गया. पेट्रोलियम पदार्थ सस्ते हो गए और महंगाई आदि का खात्मा हुआ. नागरिकों में अपने प्रधानमंत्री के प्रति आदर और प्यार, एक भरोसे का संचार हुआ था. प्रचलित परंपरा के उलट सरदारों पर चुटकुले बनने भी उसके बाद बंद हो गए थे.
यह वही समय था जब भारत की सीमा रंगून तक पहुच गयी थी. वहां से टेलीफोन करने पर लोकल चार्ज लगता था. मनमोहन ने 'टू जी' नाम का एक यंत्र विकसित किया था जिससे बात करने पर न केवल 'जीरो लॉस' होता था बल्कि उलटे आमदनी भी होती थी. जब पश्चिम के देशों में लोग मोबाइल नाम के यंत्र के बारे में जानते तक नहीं थे उस समय ही मनमोहन सिंह ने वायरलेस पद्धति से बात करने की तकनीक को विकसित किया था. भारत में उस समय आम आदमियों के पास भी मोबाइल की सुविधा थी जब तब के अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा तक इस सेवा से वंचित थे. मनमोहन सिंह आकाश-पाताल-और जमीन तीनों के 'जानकार' थे. कोयला आदि खोदवा कर उन्होंने देश को एक सूत्र में बांधा. विरोधियों ने उन पर कोयला घोटाला से लेकर टू जी और कोमनवेल्थ खेल घोटाला आदि का आरोप लगाया था. कैग नाम की संस्था भी खिलाफ में रपट देने लगी थी. कोर्ट तक विपक्षी साज़िश का हिस्सा बन गया था. वहां भी उन पर सारे अपराध साबित हो गए थे. लेकिन मनमोहन सिंह झुके नहीं. उन्होंने सारे आरोपों का सामना किया और खुद को उन आरोपों से खुद ही क्लीन चिट दे दिया. वे बेदाग़ बरी हुए थे.
मनमोहन सिंह अपने पूर्ववर्ती बहादुरशाह जफर से भी बड़े शायर थे. देश की रक्षा के निमित्त वे सुन्दर-सुन्दर शायरियों की रचना करते थे. वे दूसरों के शेर भी इतने आत्मविश्वास के साथ पढ़ते थे कि बिलकुल ऐसा लगता था मानो उनके खुद के बनाए हों. एक बार देश पर आये किसी संकट के समय उन्होंने एक अद्भुत शेर की रचना कर सवाल पूछने वालों को बेनकाब किया था. उनके उस शेर के कारण ही दिल्ली में दिल्ली में निर्भया समेत कई सवालों तक की आबरू बचना संभव हुआ था. दुश्मन उसके बाद इस डर से कोई सवाल उठाने से भी कांपने लगे थे कि कहीं फिर से ऐसा कोई खास ऐतिहासिक शेर न सुनना पड़ जाए.
मनमोहन सिंह के समय ही देश में मोदी नाम का एक आतंकी पैदा हुआ था. जिससे साबरमती के मैदान में लंबी लड़ाई हुई. अंततः मल्लयुद्ध में उसे परास्त कर मनमोहन ने देश को 'आज़ाद' कराया था. हालांकि कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि साबरमती नाम का कोई मैदान नहीं था बल्कि उस नाम से एक नदी थी. कुछ भगवा इतिहासकारों का कहना है कि इसी नाम की नदी के तट पर कोई बिना खड्ग-बिना ढाल वाला संत भी पैदा हुआ था. लेकिन चुकि मनमोहन सिंह उस समय के बड़े अर्थशास्त्री रहे थे अतः यह हो ही नहीं सकता कि वे पानी में मल्लयुद्ध करें. अतः इससे यह साबित होता है कि साबरमती का वो मैदान ही रहा होगा जहां मोदी को परास्त कर उन्होंने भगवा आतंक का खात्मा किया था. अपने लंबे और यशस्वी कार्यकाल के उपरान्त देश को 'सोनिया की चिड़िया' बना कर अंततः मनमोहन वानप्रस्थ को निकले. उस समय रॉबर्ट वढेरा नाम का देश का एक बड़ा किसान हुआ करता था जिसके साले ने बाद में भारत के प्रधानमंत्री का पद सम्हाला. तब देश के सीईओ को 'प्रधानमंत्री' ही कहा जाता था. निष्पक्ष प्रेक्षकों के अनुसार मैकाले और माउंटबेटन के बाद पहली बार भारत को मनमोहन के रूप में एक देशभक्त शासक मिला था. इनका शासन काल वास्तव में भारत में स्वर्ण युग के रूप में जाना जाने लगा है.
लेखक पंकज झा पत्रकार और बीजेपी नेता है. वर्तमान में वे भाजपा के छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुखपत्र दीपकमल पत्रिका के संपादक के रूप में कार्यरत हैं. पंकज से [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है.