शायर का नाम याद नहीं, पर शेर मौजूं है, ‘‘दोनों दल पूरी तैयारियों के साथ आये, हम गर्दन लेकर वो आरियों के साथ आये।’’ छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने जब कलाकारों से संवाद का मन बनाया होगा तो पता नहीं उनकी मनः स्थिति ठीक यही थी या नहीं, पर आयोजन के नजारे कुछ ऐसे ही थे। मौका था संस्कृति विभाग द्वारा दिनांक 5 मार्च 14 को रायपुर में आयोजित कला-विमर्श संगोष्ठी का, जिसमें राज्यभर के कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों को आपसी चर्चा के लिये आमंत्रित किया गया था। भारतीय रेल की मेहरबानी से इन पंक्तियों का लेखक गोष्ठी में पूरे एक घंटे की देरी से पहुंचता है, तब तक आयोजन का उद्घाटन सत्र लगभग खत्म हो चुका होता है और मंच पर पद्मभूषण तीजनबाई अपनी सुपरिचित भाव-भंगिमा में नज़र आ रही थीं। संस्कृति विभाग के राहुल सिंह धन्यवाद ज्ञापित करते नजर आते हैं। राहुल पुरातत्व विभाग से ताल्लुक रखते हैं पर उनका कैमरा डिस्कवरी वालों की तरह हमेशा मौके की तलाश में रहता है और बेचारे खूबसूरत पक्षियों को पता ही नहीं चलता कि उनकी छवि बगैर कापीराईट के किसी ने चुरा ली है। कैमरों में लिप्त रहने के कारण राहुल की नजर थोड़ी पैनी है और शायद उन्हें कलाकारों के मूड का थोड़ा-बहुत अंदेशा रहा होगा, लिहाजा उन्होंने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए प्रारंभ में ही यह कह दिया था कि प्रत्यक्षतः कलाकारों से जुड़े हुए होने के कारण संस्कृति-विभाग को दीगर सरकारी विभागों की तरह नहीं देखा जा सकता पर इसके बावजूद यह है तो सरकारी विभाग ही और इसकी अपनी कुछ सीमायें भी हैं।
लोक एवं जनजातीय कलाओं पर पहले सत्र की चर्चा की शुरूआता पीसी यादव करते हैं। ठेठ छत्तीसगढ़िया बोली और लहजा भी वही। कानों में रस घोलने वाली जुबान। बगैर लाग-लपेट के वे कहते हैं कि सबसे पहला काम तो यही है कि कलाकारों की शिनाख्त कर ली जाये। कुछ लोग महज आइडेंटिटी कार्ड के भरोसे कलाकार बने घूम रहे हैं और इन्हें बाकायदा मान्यता भी मिल रही है। बाहर के कुछ आदमी शहरों में आकर लोक कला मंच बना लेते हैं, जिन्हें न तो ‘लोक’ की समझ है न ‘कला’ की, पर वे मंच का उपयोग बखूबी समझते हैं और इन्हें जमकर दूहते हैं। यहाँ के लोग सरल हैं। कोई आये तो अपना मन खोलकर रख देते हैं। पर यह रवायत अब तन खोलने की परिपाटी के रूप में परिवर्तित हो रही है और बाजार इसी काम में लगा हुआ है।
सुपरिचित साहित्यकार सतीश जायसवाल कहते हैं कि इस समय हम संकीर्णता और अतिक्रमण के दो पाटों के बीच हैं। लोक-कला के क्षेत्र में हमारी संपदा प्रचुर है पर इसका दोहन राजधानी के आस-पास के लोग कर रहे हैं और खुलेपन के नाम पर विकृत चरित्र सामने आ रहे हैं। ‘‘टुरी (लड़की) आँख मारे’’ हमारी कला का चरित्र नहीं है। वे मशवरा देते हैं कि कला व कलाकारों की शिनाख्त के लिये एक सुनिश्चित प्रक्रिया अपनायी जाये जो केवल सरकारी-तंत्र द्वारा न हो, बाहर के राज्यों के कलाकर्म के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाये और भरसक संस्कृति की निश्छलता को महज मनोरंजन-कर्म बनने से रोका जाये। हबीब तनवीर के नाटकों के कलाकार, पद्मश्री गोविंद राम निर्मलकर के हवाले से अशोक तिवारी ने कहा कि ‘‘नाचा ला बचाओ, भाषा ला बचाओ।’’ उन्होंने कहा कि कला व संस्कृति बाजार की नहीं, समाज की चीजें हैं। ये जीवन का सहज अंग हैं पर जब ये जीवन में नजर न आकर महज मंच पर दिखाई पड़ें तो विकृति आना स्वभाविक है। इन्हें बचाने की जिम्मेदारी सरकार से ज्यादा समाज की है। सरकार की भूमिका महज एक फेसिलिटेटर की है पर सरकार को भी यह सोचना होगा कि उसकी प्राथमिकतायें क्या हैं? हमें इंटरनेशल स्टेडियम की आवश्यकता नहीं है। संस्कृति का हमारा बजट 100 रूपये में महज 70 पैसा है जो संस्कृति के प्रति सरकार के नजरिये को इंगित करता है। उन्होंने एक ‘‘छत्तीसगढ़ी कल्चरल यूनिवर्सिटी’ की स्थापना का भी सुझाव दिया।
इस सत्र के बाद ‘शास्त्रीय और ललित कलाओं’ तथा ‘रंगकर्म और सिनेमा’ पर दो पृथक सत्र भोजनावकाश के बाद होने थे। लेकिन जब से अपने जीवन के विविध क्षेत्रों में मैनेजमेंट के सिद्धातों ने दखल देना शुरू किया है, ‘इंट्रेक्टिव सेशन’, ‘फीडबैक’ और ‘रेस्पास’ जैसे शब्द धड़ल्ले से सुनाई पड़ने शुरू हुए हैं। इसी के फेर में अध्यक्ष महोदय ने माइक श्रोता-कलाकारों की ओर थमाया और चूंकि हरेक हिंदुस्तानी गुसलखाने में जाते ही गवैया हो जाता है और माइक मिलते ही वक्ता हो जाता है, संगोष्ठी का नजारा वही हो गया जो हम इन दिनों संसद के सदनों, विधानसभाओं और टीवी चेनलों की बहस में देखते हैं। हमारे यहाँ संवाद की सबसे लोकप्रिय पद्धति एकपक्षीय संवाद की है, जिसमें वक्ता बोलकर चला जाता है और श्रोता पीठ-पीछे उसे गरियाते है। परिणाम चाहे जो हों, पर यह पद्धति वक्ता की सेहत से लिहाज से दुरूस्त होती है। जब भी इस प्रक्रिया को द्विपक्षीय बनाया जाता है, संवाद अचानक कलह में तब्दील हो जाता है, चूंकि यह विमर्श कलाकारों के बीच था, इसलिए तल्खियों के बावजूद इसमें गजब की खूबसूरती थी, काव्यात्मक भाषा थी और लहजा सुरीला था।
‘‘उन्हें शौके-इबादत है, गाने की आदत भी, दुआएं उनके मुँह से निकलती हैं ठुमरियां होकर’’ की तर्ज पर लोकगीत ‘‘सास गारी देवे’ की गायिकाओं जोशी बहनों में से एक ने सुरीले कण्ठ से "गेंदा फूल" फेंकने का काम शुरू किया। कहा कि कैसे-कैसे लोगों को आपने कमेटियों में बिठा रखा है? जिन्हें कला की कोई समझ नहीं है, वे तय कर रहे हैं कि कलाकार कौन है, किन्हें सम्मानित करना है ओर किन्हें पुरस्कृत करना है। बाहर के कलाकार लाखों रूपयों का पारिश्रमिक लेकर जाते हैं और स्थानीय कलाकारों की सरासर उपेक्षा की जाती है।
वरिष्ठ रंगकर्मी निसार अली ने मंच के नीचे से ही पूरा भाषण दे दिया। कहा कि संस्कृति विभाग के पास नाचा मंडली के लिये महज सात हजार रूपये नहीं है। बिंबात्मक भाषा में एक बड़े कलाकार का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि बड़े कलाकार भी बड़े इसलिये हुए कि वे नौकरशाहों की पूँछ खटखटाते रहे और इस प्रक्रिया में उनकी अपनी पूँछ झड़ गयी। आडिटोरियम तो दूर, यहाँ नाटक करने वालों के लिये रिहर्सल की जगह भी नहीं है। फिर उन्होंने राजेश जोशी की कविता ‘मारे जायेंगे’ भी उद्धृत की। ऐसे में भला दूसरे श्रोता कैसे पीछे रहते? उन्होंने दुष्यंत कुमार का सहारा लिया। प्रतीकों-बिंबों के साथ कविता की छटा तब तक छायी रही, जब तक प्रत्यक्ष रूप से रूपये-पैसों का जिक्र नहीं आ गया। अर्थ-शास्त्र सदैव काव्य-शास्त्र ओर नीति-शास्त्र पर भारी पड़ता है, लिहाजा बिंबात्मक विमर्श का सिलसिला ‘आप तो नजदीक से नजदीकतर आते गये’ की तर्ज पर मूर्त होता गया और सीधे नाम लेकर कहा जाने लगा कि फलां को इतने पैसे दिये गये और अमुक को महज इतने ही मिले। एक कलाकार ने कहा कि ‘भाई जो बाहर के कलाकार आते हैं, उनसे तुलना करो, आपस में क्यों लड़ते हो?’ किसी ने कहा कि जया जादवानी ने मूल हिंदी लेखन का अनुवाद सिंधी में करवाया और उस भाषा के मौलिक लेखन का पुरस्कार हड़प लिया।
बस्तर से आये रंगकर्मी सत्यजीत भट्टाचार्यजी ने कहा कि यदि छत्तीसगढ की कलाओं से बस्तर की कला को हटा दिया जाये तो क्या बचेगा? लेकिन इस आयोजन में बस्तर से गिने-चुने कलाकारों को ही बुलाया गया। उन्होंने कहा कि अब सरकार के आयोजनों में बस्तर की तुरही तो दिखाई पड़ती है पर तुरही के पीछे के चेहरे धीमे-धीमे गायब कर दिये गये हैं। इप्टा के रंगकर्मी सुभाष मिश्र ने भी हस्तक्षेप करते हुए कहा कि यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान कुछ लोगों के लिये रोजगार तो उत्पन्न कर सकते हैं पर वे उस संस्कृति में दखल नहीं दे सकते जो पूरी तरह से बाजार के कब्जे में चली गयी हो। उन्होंने कहा कि यह भी देख लेना चाहिये कि कला व संगीत का इतना बड़ा विश्वविद्यालय पहले से खैरागढ़ में है पर उसने आज तक कितने ऐसे कलाकारों को जन्म दिया है जिन्हें राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली हो। पड़ोसी राज्य झारखंड का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सबसे पहले तो यही किया जाना चाहिये कि जो लोग राज्य भर में संस्कृति-कर्म में जुटे हुए हैं, पहले उनके पते-ठिकाने जुटाकर उन्हें सूचीबद्ध किया जाये। अन्यथा यही होगा कि 17 सालों से मुक्तिबोध नाट्य समारोह कहते हुए भी यदि हमें मदद की जरूरत होगी तो हमें संस्कृति विभाग के समक्ष याचक के रूप में जाना होगा।
सुभाष मिश्र ने अगले सत्र में ‘रगकर्म और सिनेमा’ विषय पर एक विस्तृत पर्चा भी रखा। संस्कृति मंत्री पूरे समय तक मंच पर नहीं थे। चुनाव की तारीखों की घोषणा के मद्दे-नजर वे मंच से नीचे उतर आये थे। पता नहीं कलाकारों की तीखी टिप्पणियां वे सुन पाये या नहीं, पर सूत्रों के अनुसार अपनी मित्र-मंडली में उन्होंने कहा कि अच्छा हुआ कि कलाकारों ने खाँस-खँखार लिया। थू-थू भी कर ली। उनके अवरूद्ध कण्ठ खुल गये हैं और अब संवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है। इस आयोजन का मकसद भी यही था।
लेखक दिनेश चौधरी पत्रकार, रंगकर्मी और सोशल एक्टिविस्ट हैं. इप्टा, डोगरगढ़ के अध्यक्ष हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।