''मम्मी, इ देक्खो, चोर जावे हैं'' यह आवाज एक बच्चे ने अपनी मां की ओर मुखातिब होकर और उंगली को हम लोगों की ओर उठाकर लगाई. बंदियों-कैदियों से ठुसी नोएडा पुलिस की गाड़ी पेशी का काम निपटाने के बाद डासना जेल की तरफ लौट रही थी. रास्ते में नोएडा एक्सटेंशन से होते हुए विजयनगर बाइपास की तरफ एक शार्टकट रास्ते से ये गाड़ियां जाती हैं जिसके दोनों ओर कुछ वक्त के लिए तरह तरह की दुकान, भीड़भाड़, आवाजाही, जाम के दर्शन हो जाते हैं. इसी जगह में कैदियों को भी अपनी भड़ास निकालने का वक्त मिलता है. एक महिला झाड़ू लगा रही थीं, एक कैदी ''दाग ना लग जाए…'' वाली धुन में गुनगुनाया कम, चिल्लाया ज्यादा- ''हाय, कमर ना टूट जाए….''. कुछ शरीफ किस्म के बंदियों ने यह सदवचन निकालने वाले बंदी को धीमे से नसीहत दी और घटिया कमेंट से बचने की सलाह दी. मैं अवाक. कथित बुरे लोगों से भरी इस गाड़ी में ऐसे लोग भी हैं जो बिलो द बेल्ट अटैक से बचने की सलाह दे सकते हैं. मैं दिन प्रतिदिन इन बंदियों कैदियों के दिलों में अजब गजब किस्म की संवेदनशीलता महसूस करने लगा था.
पूरी गाड़ी के बंदी कैदी तब ठठाकर हंसे थे जब छोटे बच्चे ने कह डाला कि— मम्मी इ देक्खो, चोर जावे हैं!!! तब एक बंदी ने हंसते हुए कहा- पकड़ो पकड़ो, इसे भी ले चलो… और यह सुनते ही लड़का भागा और थोड़ा दूर जाकर बोला— जाओ जाओ, लट्ठ बजेगा… कैदी-बंदी फिर हंस पड़े. यह बालक जानता है कि पुलिस वाले इस गाड़ी में ठूंसकर जिन्हें ले जाते हैं वे चोर किस्म के प्राणी हैं और ये जहां कहीं भी ले जाए जा रहे हैं, वहां इनके चरणों कंधों इत्यादि पर लट्ठ बजेगा. दरअसल हर चीज के प्रति एक जनरलाइज नजरिया डेवलप हो चुका है. पुलिस वाला है तो भ्रष्ट होगा ही. बंदी-कैदी गाड़ी में ठुंसे ले जाए जा रहे हैं तो जरूर ये अपराधी या चोर या खूंखार होंगे. उसी तरह ये भी कि मीडिया वाला है तो पैसे लेकर खबरें छाप रहा होगा. वकील है तो अपने क्लाइंट से ज्यादा से ज्यादा पैसे ऐंठेगा. नेता है तो सत्ता मिलते ही जमकर लूटेगा…. ये जनरलाइज किस्म के नजरिया है जो अब संस्थाबद्ध हो चुका है. तो उस लड़के को अगर ये समझाया गया है कि बेटा, इसमें चोर लोग जाते हैं और इन पर लट्ठ बजने वाला है तो क्या गलत है. संभव है, अपने बच्चों को रात में दूध पिलाने और सुलाने के लिए माताएं इन्हीं गाड़ियों और इनमें जाने वाले लोगों की डरावनी तस्वीर पेश करती हों.
एक मित्र ने बताया भी कि भड़ास पर मेरी गिरफ्तारी वाली फोटो देखकर उनका एक बच्चा बोला कि ये तो भड़ास अंकल हैं, लेकिन इन्हें पुलिस क्यों ले जा रही है, तब उन्होंने बताया कि भड़ास अंकल का जो बेटा है न, वो दूध नहीं पीता था, इसलिए पुलिस इनको पकड़कर ले गई, बताओ तुम दूध पियोगे या नहीं? संभव है, उनका बेटा दूध पीने लग जाए लेकिन उसके सवाल का सही जवाब उसे नहीं मिला. उसने एक अबूझ धारणा अपने मन में बना ली होगी. .
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कैदियों-बंदियों के बीच किस्सागो और गायक भी काफी तादाद में होते हैं. एक सज्जन ने रागिनी शुरू की तो पूरी गाड़ी और इसमें सवार लोगों ने हुमच हुमच कर गाना शुरू कर दिया. बंदियों की गाड़ी के बिलकुल बाहर गेट पर बैठे राइफलधारी पुलिसवाले भी मस्ता गए. हंसते-मुस्कराते एक के बाद दूसरे गायक की शक्ल को देखते हुए उसे सुनने लगे. इस बेल्ट की लोकल गायिकी को रागिनी कहा जाता है जिसमें अदभुत किस्म की थपकी, लय और मस्त करने की क्षमता होती है. जेल के जीवन में रागिनी से मेरा पहला प्यार हुआ. और, इसने वाकई मेरे मन में रागिनी पैदा की. जेल में नहाते वक्त कोई कैदी साथी इतमिनान से रागिनी गा रहा होता और मैं भी उस रागिनी की लय ताल में सिर हिला रहा होता, नल के नीचे खुलेबदन नहाते हुए.
मुझे जेल जीवन अक्सर सामूहिकता का उत्सव लगा. सब कुछ खुला, अधखुले टायलेट, मतलब टायलेट में दरवाजे उपर से खुले और नीचे से बंद होते. अगर टायलेट का दरवाजा कोई बंद कर भी लेता तो बाहर से उसे कोई झांक कर देख सकता था. ऐसा इसलिए ताकि कोई बंदी डिप्रेसन में आकर सुसाइड न कर सके. जो लोग छुईमुई टाइप होते उन्हें इस अधखुले हालत वाले टायलेट से दिक्कत होती, लेकिन जो औघड़ परंपरा वाले होते उन्हें कौन सी दिक्कत, चाहे पूरा दरवाजा खोल दो, क्या फरक पड़ता है.
मैं जिस बैरक में था वहां मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास लोग काफी संख्या में थे जो दहेज हत्या में मय परिवार बंद कर दिए गए थे. इन सबकी ऐसी ऐसी कहानियां की हर एक के लिए एक उपन्यास लिख दिया जाए. बात हो रही थी अभी टायलेट की. इन साहब टाइप कई लोग टायलेट में उपर के खुले दरवाजे पर एक बड़ा सा तौलिया लटका कर ठीक से बंद करते थे ताकि कोई कहीं से कुछ भी न दिख सके. इन तौलिया वालों को देखकर मुझे बहुत हंसी आती. यहां सामूहिक जीवन यापन मनुष्य के सहज बनने के लिए बड़ा अच्छा मौका है पर यहां भी भाईसाहब लोग सहज बनने की जगह अपने कांप्लेक्स को मजबूत करते जा रहे हैं.
पंद्रह बीस टायलेट के अलावा नहाने-धोने आदि के लिए अलग से दस पंद्रह नल. बालीवॉल खेलने, टहलने, सभा-आयोजन आदि के लिए बड़ा सा ग्राउंड. नहाने में तो कतई कोई पर्देदारी नहीं, कोई बाथरूम नहीं. खुलेआम नहाइए. आसमान ही हमारे सामूहिक बाथरूम का छत होता. साथ नहाइए, साथ गुनगुनाइए. एक रोज बैरक में बंद होने से पहले नहा लेने की मंशा से खुले आकाश वाले बाथरूम में आदमकद साइज के बराबर लगी टोटियों से निकलते तेज धार पानी के नीचे हा हा करते हुए बेहद ठंढे पानी का आनंद उछाह प्रकट कर रहा था तभी ठीक मेरे बगल में गुनगुना रहे नौजवान सज्जन ने तेज तेज गाना शुरू कर दिया…. नायक नहीं, खलनायक हूं मैं…. नफरत के लायक हूं मैं….
पूरे इतमीनान से वो भाई गाता जा रहा था. हाथ से चेहरा छाती पीठ मलता जा रहा था. मैं सोचने लगा… एक तो मैं जेल में हूं, कई दिनों से अखबारों में मेरी तस्वीर व खबर खलनायकों वाली स्टाइल में छापी जा रही है, तिस पर इन भाई साहब का ये गाना…. नायक नहीं, खलनायक हूं मैं…
वी शेप अंडरवियर पहने नहा रहे उस सुगठित शरीर वाले ''खलनायक'' पर मुझे प्यार आ गया. और, मैं भी खुद को संबोधित करके गाने लगा…नालायक हूं मैं…. खलनायक… नालायक…. आनंददायक… गायक हूं मैं…. नालायक हूं मैं… खलनायक हूं मैं……
पता नहीं, यह गाते हुए अंदर का सारा बोझ बाहर सा निकलता हुआ महसूस हो रहा था. सामने आसमान में चांद मुझे घूरता सा लगा. मैं सिर पर गिर रहे पानी की तेज धार में आंखें खोल पानी के पार चांद देख रहा था, भिन्न एंगल से, कई सिर दाएं करके, कभी बाएं. ये चांद इकलौता जीवंत कामन फैक्टर लगा जो मेरे गांव में भी उपस्थित होगा और मेरे बारे में खबर पढ़ने वालों के यहां भी, बाकियों के यहां भी और यहां जेल में भी ये महोदय दिख रहे हैं. जा भाई चांद जा, घूर मत, मस्त होकर नहा तो लेने दे. नजर न लगा… कुछ ऐसा ही बड़बडाता मैं नल की टोटी बंद कर अंडरवियर पहनने लगा. बगल में नहा रहे दो अन्य लोगों ने आपस में मेरे बारे में कानाफूसी की… लगता है हिल गया है ये… और ये कहकर वे हंस पड़े. हिल जाने का मतलब पागल होना होता है. जेल का ये बड़ा कामन शब्द है. शायद ये स्थानी भाषा बोली में एक प्रतीक शब्द है. फलाने हिल गया है का मतलब हुआ फलाने मानसिक रूप से परेशान है या पागल है या डिस्टर्ब है. मुझे भी लगा कि चांद से बात करने वाला आदमी जेल वाले भाइयों के लिए हिला हुआ ही होगा क्योंकि ऐसी हरकतों से ही जेल में यह चर्चा आम होने लगती है कि फलाने जी हिल गया है, वो फलां काम कर रहा था. मन ही मन आगे से ''हिल जाने'' वाला कोई लक्षण न प्रकट करने की खुद को चेतावनी दी और बैरक में चला गया.
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नोएडा के सरजपुर कोर्ट में पेशी के बाद हवालात से सभी कैदियों को चार गाड़ियों में ठूंसठूंस कर भरके डासना जेल ले जाया जा रहा था. चुटकुलेबाजी, कमेंटबाजी, रागिनी का लाइव दौर चल रहा था. विजयनगर बाइपास वाली गली में जाम के कारण कैदियों लदी गाड़ियां खड़ी हो गईं. जिस गाड़ी पर मैं था उसके ठीक दाएं एक दुकानदार अंडे बेच रहा था. मेरे पड़ोसी कैदी ने उससे बातचीत शुरू की. ''और ताऊ, अंडा ठीकठाक बिक रहा है''… उस दुकानदार ने दांत चियारते हुए और थोड़ा डरते हुए कहा- जी जी, सब ठीक बिक रहा है…. मेरे पड़ोसी कैदी ने तत्काल फिर पूछा- ''मुर्गियां टाइम से अंडा देकर जा रही हैं या नहीं?'' इधर सारे कैदी हंस पड़े और उधर दुकानदार जी जी करते हुए अगले किसी तीखे मजाकिया सवाल से बचने के वास्ते जाम जल्द खुलने की मन ही मन प्रार्थना करने लगा. गाड़ी के अंदर बैठे कैदियों में से ज्यादातर बाहर की दुनिया से मुखातिब रहते. हर दुकानदार को कुछ न कुछ कहते. गाड़ी रुकते ही पान सिगरेट केला गुटका जहां जो दिखता उसे मांगने मंगाने लगते और पैसे देने लगते…. एक दिन लंबे समय के लिए जाम लग गया. खूब खरीदारी की बंदियों कैदियों ने. हाथ में फल नशा पत्ती आदि मिल जाना किसी युद्ध के जीत जाने सरीखा होता. ज्यादातर होता ये कि दुकानदार डर के मारे कुछ भी देने से डरते. लेकिन जब बंदी उन्हें उत्साहित करते, पैसे एडवांस में नीचे गिरा देते तो वे दौड़े लेकर आते. कुछ बंदी तो फर्जी ही धमका देते कि निकल कर आउंगा तो तुम्हारे सारे केले के ठेले को इकट्ठा निपटाउंगा.
अचानक पता चला कि जाम के कारण हम लोगों की गाड़ी को थोड़ा बैक में जाना पड़ेगा, यानि पीछे की तरफ गाड़ी को ले जाना होगा जिससे बाईं ओर जगह बन सके ताकि सामने से आ रही दूसरी गाड़ी निकलने के लिए जगह बन जाए. हम लोगों की गाड़ी धीरे धीरे बैक होने लगी. एक बंदी ने बिना दिए गाड़ी बैक कराने का जिम्मा ले लिया. तेज तेज बोलने लगा…. चलो चलो चलो… चलो सरदार जी चलो…. (गाड़ी एक सरदार सिपाही ही चला रहा था)… हां चलो, ठीक है … सही जा रही है… चलते जाओ…. चलो …. सटेगी तो बजेगी, चिंता न करो, चलते रहो…. लड़ेगी तो बजेगी सरदार जी, टेंशन नहीं लेने का… चलो जी चलो…. भिड़ेगी तो बजेगी…. पूरी गाड़ी में ठहाके गूंजने लगे. मैं भी हंसने लगा और उसके डायलाग को दुहराने लगा… चलो चलो, सटेगी तो बजेगी…
बंदियों की इस बकचोदी ने कई बार बड़ा नुकसान भी किया है. ऐतिहासिक यानि लंबे समय से बंद कैदी बताते हैं कि एक बार किसी ने एक स्कूटी वाली लड़की पर भद्दा कमेंट कर दिया और वह लड़की गाड़ी के पीछे पीछे स्कूटी चलाती हुई डासना जेल के गेट तक पहुंच गई. उसने जेल प्रशासन से कंप्लेंट की. प्रशासन ने पहले तो उस शख्स को तलाशने की कोशिश की जिसने कमेंट किया लेकिन वह शख्स मिला नहीं क्योंकि कोई भी कैदी दूसरे साथी कैदी के खिलाफ जुबान खोलने को तैयार नहीं हुआ. नतीजा ये हुआ कि उस गाड़ी में बंद सारे बंदियों की जमकर धुनाई हुई. बताने वाले इतिहासकार बंदी ने साथ ही चेताया कि ऐसी चीप हरकत नहीं करनी चाहिए. उन्होंने एक और किस्सा बताया. पहले ये गाड़ियां शार्टकट के चक्कर में एक गांव से होकर डासना जेल की तरफ जाती थीं. उस गांव में गाड़ी के घुसते ही बंदी कैदी वहां की बहन बेटियों को भरा बुला बोलने लगते. शुरू में तो लोग इन्हें माफ करते क्योंकि आप जेल में बंद बंदी के खिलाफ और क्या कर सकते हैं क्योंकि वह तो खुद ही किसी मामले में बंद है, सो लोग इगनोर करना ही श्रेष्ठ समझने लगे. लेकिन रोज रोज की यह कमेंटबाजी गांव के गरमखून वाले नौजवानों को पसंद नहीं आया. एक दिन इंतहा होने पर गांववालों ने गाड़ियों को रोक लिया और गाड़ियों के नीचे घास फूस आदि लगाकर आग लगाने की तैयारी करने लगे ताकि सारी गाड़ियां जल जाएं और इनमें बैठे दैत्यों का भी नाश हो जाए. लेकिन आला अफसरों ने मौके पर पहुंच कर हाथ पैर जोड़कर आगे से ऐसा कुछ न होने के लिए कहा तब जाकर कैदियों और गाड़ियों की जान बची. हर बंदी के पास किस्सा है, गाना है, उदास होने के लिए कई घटनाएं हैं, खुश होने के लिए साथियों की चुहलबाजी और कमेंटबाजी है….
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गाड़ियां रेंगते दौड़ते डासना गेट पर पहुंचने लगीं…. एक बंदी बोला… ससुराल आ गए जी. मैं मन ही मन गाने लगा…. नइहरवा हमका ना भावे…. दूसरा बंदी बोला… यहां आकर लगता है कि अपने घर आ गए. पूरे दिन नोएडा हवालात में धुएं व पेशाब की मिलीजुली बदबू और दिन भर खाने को कुछ न मिलने से तन मन ऐसा हो जाता है जैसे वाकई नरक भोग रहे हों. यहां आकर राहत महसूस होती है, कि अपने अड्डे पर आ गए. नहाएंगे, खाएंगे, इतमिनान से सोएंगे. बात सच थी. नोएडा कोर्ट में पेशी वाला दिन बड़ा कष्टदायी होता. हवालात में पूरे दिन चक्कर काटते रहते हम लोग. लाख कहने के बावजूद कि जिनको पेशाब करना हो प्लीज, बाहर जाकर कर लें, कुछ सांड़ टाइप लोग जरूर होते जो अंदर ही मूत देते और उनके मूत की लकीर वहां तक पहुंच जाती जहां हम लोग अखबार बिछाकर बैठे होते. इन मूत की धाराओं से शुरू में शुरू में वितृष्णा होती लेकिन पुराना होने के बाद इनसे अपनापा सा महसूस होने लगता. जिस दिन मूत की धाराओं में कमी दिखती तो हम लोग सोचते कि लगता है हमारे साथी बिगड़ने लगे हैं…. इस हवालात में लोग मूतते ही नहीं, दीवारों-खंभों पर लिखते भी…. तीन कविताएं मैं हर बार वहां जाकर बोल बोल कर पढ़ता… जिससे दोस्ती हो जाती, उसे दिखाता भी…. इन कविताओं को पढ़कर कोई फुस्स से हंस देता, कोई इन्हें घटिया बताता और कोई इन्हें बिलकुल सच कहता…. लेकिन सभी कहते कि ये कोई कविता नहीं, किसी की कुंठा है. मुझे लगता कि एक बंदी अगर अपनी कुंठा को कविताओं की शक्ल देकर हवालात की दीवारों पर लिख देता है तो उसे भी नोटिस किया जाना चाहिए और उसकी लिखी लाइनों के जरिए उसके तन मन में चल रहे विचार को समझना और महसूस करना चाहिए… कविताएं ये हैं…
…….
कानून से कभी
इंसाफ नहीं मिलता
मिलता है मेरा लxड…
…..
बदमाश बनते नहीं जनम से
बदमाश को जन्म देता है
ये समाज
और समाज की बहन के लxड….
……
एक जनम से
कोई किसी का
बाप नहीं होता
और ना कोई
किसी का बेटा
क्योंकि जनम तो
पहले भी बहुत हुए हैं
और आगे भी बहुत होंगे…
….
ये तीनों कविताएं आज भी नोएडा के सूरजपुर कोर्ट की हवालात में दर्ज हैं. दीवारों पर चित्रकारी भी है. नंगी महिलाओं के चित्र. संभोग के दृश्य. रेखाचित्र इन कैदियों ने ही बनाए हैं. सारे दृश्य में लिंग का साइज बेहद बड़ा दिखाया गया है. जैसे वे इस बहाने अपने अकेले जीवन को इशारे से बयान कर रहे हों. अपनी सेक्स कुंठा के दिन पर दिन बढ़ रहे फ्रस्टेशन को बता रहे हों… मुझे लगता है कि अगर कोई पत्रकार सिर्फ हवालातों की दीवारों पर दर्ज चित्रों व कविताओं का संकलन कर दे तो बेहद नई चीज निकल कर आएगी.
….जारी……
इसके आगे पढ़ें- जानेमन जेल (दो) : तुम वही हो न जिसकी फोटो – खबर अखबार में छपी है?
इस धारावाहिक उपन्यास के लेखक यशवंत सिंह 68 दिनों तक जेल में रहकर लौटे हैं. उन्हें जेल यात्रा का सौभाग्य दिलाने में दैनिक जागरण और इंडिया टीवी प्रबंधन का बहुत बड़ा योगदान रहा है क्योंकि ये लोग भड़ास पर प्रकाशित पोलखोल वाली खबरों से लंबे समय से खार खाए थे और एक छोटे से मामले को तिल का ताड़ बनाकर पहले थाने फिर जेल भिजवा दिया. लेकिन यशवंत जेल में जाकर टूटने की जगह जेल को समझने बूझने और उसके सकारात्मक पक्ष को आत्मसात करने में लग गये. इसी कारण ''जानेमन जेल'' शीर्षक से उपन्यास लिखने की घोषणा उन्होंने जेल में रहते हुए ही कर दी. वे इस उपन्यास के जरिए बंदियों-कैदियों-जेलों की अबूझ दुनिया की यात्रा भड़ास के पाठकों को कराएंगे. पाठकों की सलाह आमंत्रित है. आप यशवंत तक अपनी बात [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं. उनसे संपर्क 09999330099 के जरिए भी किया जा सकता है.
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जेल में नई व कौतूहलपूर्ण दुनिया से रूबरू हूं
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