जेल इसके पहले एक दफे तब गया था जब बीएचयू में पत्रकारिता विभाग में पढ़ाई करते हुए रेडिकल लेफ्ट स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन आल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन में होलटाइमर के रूप में काम कर रहा था. वहां के कुलपति के एक फरमान के खिलाफ हम लोग उनसे बातचीत करने उनके आफिस गए और बातचीत में कोई हल नहीं निकलने पर उनके आफिस के भीतर ही जमीन पर धरने पर बैठ गए. बहुत देर तक मान-मनौव्वल के बाद हम लोग नहीं माने तो पुलिस बुलवाकर हम लोगों को अरेस्ट करा दिया गया और बनारस जिला जेल भेज दिया गया. छात्र राजनीति में होने के कारण और ढेर सारे छात्रों के साथ होने के कारण हम लोगों को जेल में एक खाली बैरक में रखा गया था. कुछ लंबरदार लगा दिए गए सेवा के लिए. पर हम लोग आमरण अनशन करने का ऐलान कर चुके थे सो कुछ भी खाना पीना बंद कर दिया था.
डाक्टर आकर सबका स्वास्थ्य चेक कर जाएं, साथ ही खाने पीने की सलाह भी दे जाएं पर हम लोग अड़े रहे. आमरण अनशन का मतलब आमरण अनशन. कुछ भी खाना पीना नहीं. चौबीस घंटे बीतते बीतते साथियों की हालत खराब होने लगी. किसी को अस्सी घाट पर मिलने वाला लवंगलत्ता मिठाई याद आने लगी तो किसी को चाकलेट. किसी को रोटी सब्जी तो किसी को दाल भात. जेल प्रशासन ने हम लोगों को लुभाने के लिए सामने ही ढेर सारे चाकलेट फल आदि रखवा दिए थे. साथ ही यह भी संदेश भिजवाया कि यहां जेल में खाते पीते रहो, बाहर अखबारों में मैसेज भेजा जाएगा कि आप सभी लोग अब भी आमरण अनशन पर बैठे हो. इस छलावे में न आने की हम सब लोगों ने ठानी. पर थोड़े कमजोर हृदय वाले साथियों ने छत्तीस चालीस अड़तालीस घंटे बीतते बीतते कुछ कुछ पीना व खाना शुरू कर दिया था. चाकलेट, फ्रूट जूस आदि कई लोगों ने स्वतः लेना शुरू कर दिया. हम लोग इसका विरोध भी नहीं कर रहे थे क्योंकि यह ऐसा मौका था जहां हर कार्यकर्ता व छात्र की परीक्षा होनी थी कि किसके अंदर कितना कनविक्शन है. आखिरकार दो दिन बाद हम लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया. तब जाकर अनशन हम लोगों ने तोड़ा. लेकिन अनशन के आखिरी वक्त में हम सभी को खाने पीने के तरह तरह के सपने आने लगे थे. वो यादगार जेल यात्रा मेरे दिमाग में तब घूम गई जब नोएडा पुलिस की जिप्सी मुझे डासना जेल में बंद कराने के लिए नोएडा के सूरजपुर कोर्ट से जमानत खारिज होने के बाद फर्राटे भरते हुए चल पड़ी थी.
डासना जेल गेट पर जब नोएडा पुलिस की जिप्सी रुकी तो अचानक मेरी हार्टबीट बढ़ गई. वैसे कई दिनों-महीनों क्या, वर्षों से खुद को जेल जाने के लिए मानसिक तौर पर तैयार कर रखा था क्योंकि ओखली में सिर देने वाले मूसलों को अप्रत्याशित मेहमान नहीं, घर का सामान माना करते हैं, लेकिन जब वाकई जेल एकदम सामने दिखा तो थोड़ा डर-सा लगा. अंदर जाने क्या होगा, कैसे लोग होंगे, कैसे पेश आएंगे, कब तक रहना होगा….. कई तरह के सवाल उमड़ने-घुमड़ने लगे.
सूरजपुर (नोएडा) स्थित कोर्ट से डासना जेल की दूरी अच्छी खासी है. हलकी फुलकी बातचीत करते-करते मैं व पुलिस वाले दोस्ताना-से हो गए थे. मैंने डासना जेल गेट पर जिप्सी से उतरते हुए एक पुलिसवाले से अनुरोध किया कि अगर आप जेल के भीतर कार्यरत किसी पुलिस वाले से कह देंगे कि ये जो मुल्जिम यशवंत है, अच्छा आदमी है तो शायद मेरे साथ थोड़ा बेहतर सुलूक हो. ''ये जो मुल्जिम यशवंत है, अच्छा आदमी है'' यह डायलाग मेरे एक पत्रकार मित्र ने सूरजपुर कोर्ट में पुलिसवालों से तब कहा था जब जमानत खारिज होने पर वे लोग मुझे जिप्सी में बिठाकर डासना के लिए कूच करने की तैयारी कर रहे थे. तब मैंने उन पत्रकार मित्र को जिप्सी में बैठे बैठे मुस्कराते हंसते समझाया था कि इन लोगों से कहने का क्या फायदा क्योंकि इन्हें तो आदेश का पालन करना है, आदेश चाहें गलत हो या सही. और, जेल के अंदर का प्रशासन अलग होता है, बाहर की पुलिस अलग होती है. पर डासना पहुंचते पहुंचते यही डायलाग मेरी जुबान पर आ गया. शायद भय ने अवसरवादी बनने को मजबूर किया, उसी भय ने जिसके कारण आज देश-समाज के सारे संस्थान भ्रष्टों के नेतृत्व में आ चुके हैं और कथित इमानदार बताने वाले लोग इन संस्थानों के खजांची बनकर ईमानदारी से माल का आपस में बंटवारा करते रहते या करते होते देखते रहते हैं. ईमानदारों का भय ही वो कारण है जिसके चलते बुरे लोग आज हर जगह नेतृत्वकारी भूमिका में हैं. भय से उपजे मेरे डायलाग का असर नोएडा के बुजुर्ग-से लंगड़ाते पुलिस वाले पर नहीं हुआ. उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया, क्योंकि उसके लिए मुल्जिम हर रोज लाना व छोड़ जाना एक रुटीन जाबवर्क था. उसने मेरे एक हाथ के पंजे को कसकर पकड़ा और लंगड़ाते हुए जेल के बड़े से गेट के छोटे से दरवाजे में झुककर प्रवेश कर गया, उसके पीछे पीछे मैं.
जेल पुलिस और नोएडा पुलिस के सिपाहियों के बीच कागज का आदान प्रदान हुआ, और जेल पुलिस की तरफ से मेरे लिए एक कड़क आवाज आई- दीवार से सटकर बैठ जाओ. थोड़ी देर में कुछ और नए मुल्जिम जेल में आ घुसे. वे भी अपन के साथ लगकर दीवार धारण कर लिए. नोएडा पुलिस के लोग लौट गए. अब मैं पूरी तरह जेल के हवाले.
पीले-पीले कपड़े पहने कई लोग गेट नंबर एक और दो के बीच खड़े. ये बंदी-कैदी ही थे, जिन्हें सुरक्षा-तलाशी के लिए तैनात किया गया था. उनके सामने हम लोग दीवार से सटे पड़े बैठे रहे. एक कड़क आवाज फिर आई- जोड़ा बनाकर इधर आओ और जोड़ा बनाकर ही बैठ जाओ. ऐसा ही किया गया. दो-दो लोग जोड़े में गेट नंबर एक से खिसक कर गेट नंबर दो के करीब वाली दीवार से सटकर बैठ गए. फिर एक कड़क आवाज- अपने अपने कपड़े उतारो. मन में मेरे सवाल आया कि पूरा नंगा होना है या आधा? जवाब एक कैदी के कपड़े उतारने से मिल गया. केवल अंडरवियर में खड़ा होना है.
सघन तलाशी शुरू हुई. मेरी बारी आई. ऐंठी हुई मूंछों वाला और पीला कुर्ता पाजामा पहने एक दबंग सा दिख रहा युवक तलाशी लेने लगा. निकाले गए कपड़ों की बारीकी से छानबीन के बाद उसने मेरे शरीर पर बचे एकमात्र वस्त्र अंडरवियर के उपरी हिस्से की प्लास्टिक को अपनी तरफ खींचकर अंदर, आगे और पीछे देखा. वह हर जगह की गहन तलाशी ले रहा था कि कहीं कुछ अवैध गलत चीज तो ये लोग साथ नहीं ले आए हैं. यह जेल का नियम है. नए बंदियों कैदियों की भरपूर तलाशी ली जाती है. यह रुटीन है. फिर उसने एक उंगली गुदा द्वार के नीचे लगाकर दबाव बनाना शुरू किया. उसकी नजर मेरी आंखों पर टिकी रही. मेरी आंखों में निरीहता के साथ भय, संत्रास और बेचारगी का मिक्सचर. धीरे से उसने पूछा- पहली बार जेल आए हो. मैंने हां कहा. फिर धीरे से ही उसने पूछा- क्या करते हो. मैंने जवाब दिया- पत्रकार हूं. तलाशी खत्म होने के बाद जब उसने कपड़े पहनने को बोला तो मैंने मन ही मन खुद से चुहल किया- ये तो भाई सच में उंगली कर गया, हम लोग तो लिख कर ही कर पाते हैं.
कपड़े पहनने के बाद हम लोगों को जोड़ा बनाकर गेट नंबर दो के बड़े से गेट के छोटे से दरवाजे में झुककर आगे निकलने का आदेश मिला. सब चल पड़े. गेट नंबर दो पार करते दाहिने तरफ एक बोर्ड लगा मिला जिसमें जेल के कई आंकड़े दर्ज दिखे. जैसे ये कि इस जेल की क्षमता सत्रह सौ कुछ कैदियों की है. मुझे पहले से मालूम था कि डासना जेल में क्षमता से कई गुना कैदी रहते हैं क्योंकि यहां गाजियाबाद-नोएडा-हापुड़-गढ़ कई जगहों के बंदी-कैदी रखे जाते हैं. नोएडा की जेल अभी बन रही है. उसके अगले साल तक शुरू होने की संभावना है. जिस समय यानि एक जुलाई 2012 को डासना जेल मैं गया, तब करीब तीन हजार बंदी-कैदी थे. जब वहां से दो महीने बाद 6 सितंबर 2012 को लौटा तो संख्या चार हजार के उपर पहुंच चुकी थी. मतलब ये कि यहां से निकलते कम लोग हैं, आते ज्यादा हैं. जो जाते हैं उन्हें रिहाई वाले और आने वालों को आमद कहा जाता है. उस दिन आमद की संख्या दस से कम लग रही थी क्योंकि संडे होने के कारण अपेक्षाकृत कम मुल्जिम जेल भेजे गए थे.
ये भी संभव है कि हम लोगों के पहले और बाद में भी आमद आई हो. सो, सही सही आंकड़ा बता पाना मुश्किल है. लेकिन जेल में रहते हुए जितनी बार भी आमद व रिहाई के आंकड़े के बारे में साथियों से पता चला तो जाने वालों की संख्या आने वालों से कम ही रही. कहने वाले कहते हैं कि अब तो फिर भी ठीकठाक रिहाई हो रही है. मायावती के शासनकाल में तो रिहाई बहुत कम होती थी. इसकी गणित लोगों ने ये बताया कि मायावती ने ''अपराधियों की जगह जेल है'', का ऐलान कर दिया था सो पुलिसवाले जेल भेजा करते थे और कोर्ट पर अघोषित दबाव जमानत न देने का होता था. कोर्ट किसी दबाव में काम करे, ऐसा संभव नहीं लगता लेकिन अब सब कुछ संभव है. कोर्ट के पथभ्रष्ट होने, दबाव में काम करने, भ्रष्टाचार में लिप्त होने के इतने किस्से व घटनाएं जेल के अंदर पता चलीं कि लगने लगा कि जिसे हम लोग पवित्र गाय समझते रहे हैं, वहां भी दरअसल वही कार्य व्यापार होने लगा है जो लोकतंत्र के अन्य संस्थानों-स्तंभों में हो रहा है. खासकर निचली अदालतों की हालत तो बहुत खराब है. जेल में ही एक खबर लखनऊ से आई थी कि हाईकोर्ट ने निचली अदालत के जजों को नसीहत दी कि कि वे देख-सुन-पढ़कर ही फैसला दिया करें क्योंकि उन मामलों में भी जमानत निचली अदालतें कई बार नहीं दे रहीं जिनमें जमानत वहीं से होने का प्रावधान है और कई बार पुलिस खामखा जेल में सड़ाने के लिए जेल भेजने के बाद बंदी पर कुछ नए गंभीर मुकदमें ठोंक देती.
हम लोग गेट नंबर दो के आगे चल पड़े. इधर भी पीले कपड़े धारियों की जमात दिखी. इन्हें नंबरदार कहा जाता है. ये वो लोग होते हैं जिन्हें सजा मिल चुकी होती है और जेल प्रशासन इनसे सुरक्षा, तलाशी समेत कई तरह का काम लेता है. नंबरदार को लोग लंबरदार भी बोलते हैं. ये जेल प्रशासन के अभिन्न हिस्से होते हैं. संभवतः इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है कि खुद को तुम लोग आम बंदियों-कैदियों से दूर रखो, दूरी बनाकर रहा करो ताकि जेल में कंदियों-बंदियों के बीच अनुशासन मेनटेन कराने में आसानी हो सके. गेट नंबर दो के बाहर चप्पल-जूतों आदि की सघन तलाशी के बाद गेट नंबर तीन की तरफ हम लोग बढ़ चले. रास्ते में दाएं बाएं लिखे गए सत्यवचन पढ़ते हुए आगे बढ़ते रहे. ''आपको जेल भेजने का मतलब दंडित करना नहीं बल्कि सुधारकर समाज की मुख्यधारा में शामिल कराना उद्देश्य है…'' इस टाइप के कई सदवचन लिखे मिले. गेट नंबर तीन के उपर काफी मोटे मोटे अक्षरों में लिखा गया था- अभिवादनम. मजबूरी थी, सो कुबूल करना पड़ा. मैंने मन ही मन जवाब में कहा- जय हो.
गेट नंबर तीन पर जोड़ा बनाकर बिठाए जाने के बाद गिनती करके गेट नंबर चार की ओर भेजा गया. वहां भी कपड़े उतरवाकर सघन तलाशी का दौर चला. और, फिर जोड़ा बनाकर आगे बढ़ने का आदेश दिया गया. हम लोगों को एक बैरक में ले जाया गया जिसे ''मुलाहजा'' कहा जाता है. नए आने वाले बंदियों- कैदियों को पहले यहीं रखा जाता है. इस सात नंबर बैरक, जिसे ''मुलाहजा'' कहा जाता है, में प्रवेश करते ही उत्तर प्रदेश कारागार के एक अधेड़ से क्लीनशेव्ड सिपाही केला खाते मिले. वे एक प्लास्टिक की बाल्टी को पलटकर उस पर विराजे थे. सहमे डरे से हम लोग जब मुलाहजा में घुसे तो एक कड़क आवाज आई- आमद वाले दीवार से सटकर जोड़ा बनाकर बैठ जाओ. ऐसा ही हुआ. केला खाते सिपाही को बैरक में रह रहे पुराने बंदी कैदी ''चीफ साहब'' कहकर संबोधित कर रहे थे और हंसी मजाक की बातें भी हो रही थी. वे सभी सहज दिख लग रहे थे. हम लोग बेहद असहज. बैरक में पुराने बंदियों का हुजूम दिखा. कोई नहा रहा. कोई टहल रहा. कोई पढ़ रहा. कोई बाल में मेहंदी लगा रहा. कोई बैरक में घुस रहा, कोई निकल रहा. छोटे छोटे ग्रुपों में लोग बात कर रहे. हाथ पकड़कर टहल रहे. पुराने लोगों की निगाहें बरबस हम नए आमद वालों पर आकर टिक जाती. लोग पहचानने की कोशिश करते. आमद वालों में से कुछ एक के परिचित मिल गए. सो वे लोग खुश से हो गए. अपन दुखी के दुखी ही रहे.
सिपाही उर्फ चीफ साहब के बगल में एक तगड़ा सा नौजवान, जिसकी दाढ़ी व शक्ल किसी फिल्मी खलनायक सरीखी थी, चेहरे पर पूरा तनाव ओढ़े चुपचाप खड़ा था और एक छोटे कद का नौजवान उसके सीने के इक्का दुक्का सफेद बालों को खोज खोज कर उखाड़ रहा था. उसने हम नए आने वालों की तरफ देखा और दीवार से लग कर बैठ जाने की फिर हिदायत दी. मैं केला खाते चीफ साहब और खूंखार चुप्पी साधे बाल उखड़वाते कड़क नौजवान, दोनों को बारी बारी से निहारता रहा, देर तक, और तय किया कि इस कड़क नौजवान से ही दुआ सलाम करना ठीक है क्योंकि यही इस बैरक का डान लग रहा है. डान अगर पट जाए तो शायद जेल का शुरुआती दुख-दर्द दूर रहे. इस आइडिया पर अमल करने का फैसला किया.
मैंने उसे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उसकी तरफ बढ़ चला. उसने घूरकर देखा, जैसे पूछ रहा हो कि ये हिमाकत क्यों और आ ही गए हो तो बताओ क्या बात है. मैंने उसके बिना कुछ बोले बोलना शुरू कर दिया- भाई साहब प्रणाम, मैं मीडिया में काम करता हूं, मीडिया के बड़े बड़े लोगों के भ्रष्टाचार कदाचार स्याह सफेद के खिलाफ हम लोग खबरें छापते हैं और उन लोगों ने इसी कारण फंसाकर जेल भेज दिया है. उस नौजवान ने कोई जवाब नहीं दिया. सिर्फ मेरे चेहरे, चश्मे व कपड़े को निहारता घूरता रहा. मुझे लगा- मेरा वार खाली गया. मैं फिर से दीवार की तरफ लौट आया.
कुछ देर बाद एक युवक बैरक के गेट से घुसकर आया और जोर से चिल्लाया- ''यशवंत लालजी कौन है बे?'' जेल में बंदी के नाम के साथ पिता का नाम भी लगाकर बोला जाता है ताकि ढेर सारे बंदियों में एक-से नाम वालों के बीच पहचान शिनाख्त में कोई कनफ्यूजन ना रहे. मैंने तपाक से बोला- जी, मैं हूं. उसने सामने खड़े कड़क, दढ़ियल व खलनायक सरीखे नौजवान से कहा, जिससे मैं कुछ देर पहले मुखातिब था- इसे बड़े साहब बुला रहे हैं. उसने मुझे जाने को कह दिया. मैं पीछे पीछे चल दिया. वह मुझे बता रहा था कि सुपरिटेंडेंट साहब ने बुलाया है. गेट नंबर चार, तीन व दो पार करा कर एक आफिस के बाहर ले जाया गया जहां सुपरिटेंडेंट के नाम की पट्टिका लगी थी. पट्टिका पर लिखा था- डा. वीरेश राज शर्मा, जेल अधीक्षक. मुझे अंदर बुलाया गया.
अंदर घुसते ही सामने कुर्सी पर बैठे सुपरिटेंडेंट दिखे, और उनके सामने लगी कुर्सियों पर बैठे दो तीन नौजवान युवक. इन युवकों ने खड़े होकर मुझे बड़े अदब से प्रणाम किया और हाथ मिलाया. उन लोगों ने खुद को बड़े हिंदी अखबारों का पत्रकार बताया जो डासना जेल कवर करते हैं. जिस मामले में मैं जेल में भेजा गया था, उसको लेकर मेरा पक्ष जानने का अनुरोध किया. मैंने पांच सात मिनट का भाषण दिया. वे लोग नोट करते रहे. जब मैं चुप हुआ तब सुपरिटेंडेंट ने मुझसे पूछा कि कोई दिक्कत तो नहीं. मैंने कहा- सर, अभी तो दिक्कतों के मुहाने पर खड़ा हुआ हूं. उन्होंने आश्वस्त किया, कोई दिक्कत नहीं होगी, यहां जेल में किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होता है. मुझे वहां से जाने को कह दिया गया. पत्रकारों ने मुझे सम्मान के साथ प्रणाम किया.
लौटकर मुलाहजा में आया तो मेरे प्रति दूसरों के नजरिए व नजर में बदलाव दिखा. कड़क युवक अपनी जगह पर यथावत खड़ा था और मेरे पहुंचते ही मूझसे धीरे से पूछा- क्या बात थी? मैंने बता दिया. सिपाही उर्फ चीफ साहब तक भी बात पहुंच गई. उन्होंने मुझे आश्वस्त किया- यहां कोई दिक्कत नहीं. मैंने अंदर ही अंदर राहत की सांस ली.
थोड़ी देर में एक युवक आया और मुझे लेकर पांच नंबर बैरक की तरफ चला. सभी बैरकों का मुंह एक वृत्त यानि सर्किल में खुलता है और सर्किल के बीच में एक छोटा सा आफिस है जहां डिप्टी जेलर, जेलर बैठा करते हैं. सभी बैरकों की प्रशासनिक गतिविधियों के कई कार्य यहीं से निपटाए जाते हैं.
जेल में लोग कई नए नए शब्द बोल रहे थे. बाद में उनका अर्थ पता किया तो लगा कि इस दुनिया की भाषा में ढेर सारे नए शब्द हैं. आगे की कहानी के पहले आइए जेल में बोले जाने वाले कुछ शब्द और उसके अर्थ के बारे में जान लें…
राइटर- वे बंदी-कैदी जो जेल की प्रशासनिक गतिविधियों में सहयोग करते हैं और हर तरह की फाइल, आंकड़े आदि को अपडेट रखते हैं, बैरकों व आफिसों के प्रशासनिक कार्य को निपटाने में सिपाही, डिप्टी जेलर, जेलर आदि को सहयोग देते हैं…
नंबरदार- वे सजा पा चुके बंदी जिन्हें जेल में सुरक्षा, तलाशी, गार्डी, बंदियों को नियंत्रित करने आदि के काम में लगा दिया जाता है.
खुंटी- सर्किल के सेंटर में बना एक कमरे का छोटा आफिस जहां डिप्टी जेलर व जेलर आदि बैठकर दैनिक प्रशासनिक कार्यों का निपटारा करते हैं और कैदियों की शिकायत आदि सुनते हैं.
पिन मारना- किसी की मुखबिरी, शिकायत करने को पिन मारना बोला जाता है.
फट्ठा- बैरक में बंदियों-कैदियों के जमीन पर बिछे बिस्तरों को फट्ठा कहा जाता है.
रोटी परेड- दोपहर व शाम के वक्त बंदियों को बैरक से निकालकर सर्किल में रोटी, दाल, चावल इत्यादि भोजन को लाइन लगाकर दिए जाने को रोटी परेड कहा जाता है.
तलवा परेड- जेल के अंदर गलत कार्यों में लिप्त व दूसरों से मारपीट करने वाले बंदियों को सर्किल के बीच स्थित खुंटी के पास उलटा करके तलवे पर पिटाई किए जाने को तलवा परेड कहते हैं. वर्तमान जेल अधीक्षक डा. वीरेश राज शर्मा ने इस प्रथा को अपने कार्यकाल में बंद करने के निर्देश दे दिए हैं.
पेशी- बंदियों-कैदियों द्वारा अपनी बात रखने, शिकायत करने, दुख-दर्द सुनाने के लिए जेल अफसरों के समक्ष उपस्थित होने को पेशी कहा जाता है.
चीफ साहब- जेल के सिपाहियों को चीफ साहब बोला जाता है. इनके उपर हेड होते हैं फिर डिप्टी जेलर, जेलर व जेल अधीक्षक.
बंदी- वे लोग जिन्हें सजा नहीं हुई है पर जेल में न्यायिक हिरासत में रखे गए हैं और जमानत होने पर रिहा कर दिए जाते हैं, बंदी कहलाते हैं.
कैदी- वे लोग जिन्हें सजा हो चुकी है और जेल में सजा की अवधि काट रहे हैं, बंदी कहलाते हैं. अक्सर मीडिया में बंदी-कैदी शब्द में घालमेल कर दिया जाता है. इसकी शिकायत कई बंदियों ने की कि उन्हें कैदी लिख दिया जाता है जो गलत है.
गैल- ''साथ'' शब्द की जगह गैल शब्द का इस्तेमाल करते हैं. ''एक साथ चलने'' को ''गैल चलना'' कहा जाता है. यह स्थानीय बोली का शब्द है.
केसवार- किसी एक मुकदमें में अगर तीन लोग नामजद हैं तो वे तीनों एक दूसरे को अपना केसवार बताते हैं.
कट्टन- बैरक में टमाटर खीरा इत्यादि काटने के लिए बंदी-कैदी प्लेटों को तोड़कर उसका एक कोना घिसकर तेजधार वाला बना लेते हैं. इसे कट्टन बोलते हैं. हालांकि ऐसा करना गलत है और जेल प्रशासन गाहे बगाहे तलाशी लेकर कट्टन को फिंकवा देता है और उसे रखने वालों को दंडित भी करता है पर लोग निगाह बचाकर कट्टन तैयार कर लेते हैं.
कट्टी- छोटे-मोटे अपराधों में बंद बंदी जब विशेष लोक अदालतों में अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं तो छोटी मोटी सजा या जुर्माना देकर उन्हें उसके बाद रिहा कर दिया जाता है. इसी को कट्टी बोलते हैं.
ऐसे कई और भी जेल डिक्शनरी के शब्द हैं.
नई बैरक पांच में पहुंचने के बाद मुझे पहले से रह रहे कुछ लोगों के साथ उनके फट्टे पर रहने को कह दिया गया. मैंने उन लोगों को परिचय दिया और लिया. फिर नहाने के लिए तौलिया मांगा. मेरी निगाह नहा रहे लोगों पर पड़ चुकी थी, सो दो तीन दिन से न नहा पाने से अंदर मची बेचैनी को खत्म कर डालने का इरादा कर चुका था. नल से बेहद ठंढा पानी आ रहा था. मैंने नहा रहे दूसरे बंदी से पूछा कि क्या इस पानी को पिया जा सकता है. उसने हां कहा. तब अंजुरी लगाकर जी भर पानी पिया. और देर तक नहाया. आंख बंद कर नहाता रहा. लगा ही नहीं कि मैं जेल में हूं. नहाने के उस सुख ने सारे शिकवे गिले दुख भय संत्रास असहजता को समाप्त कर दिया. तौलिया लपेटे इस अंदाज में बैरक में प्रवेश किया कि जैसे काफी दिनों से यहां रह रहा होऊं. नया बंदी होने के कारण लोग घूर देख ज्यादा रहे थे, बात कोई कोई कर रहा था. जिनके फट्टे पर मुझे रखा गया उन लोगों ने पूरा कोआपरेट किया.
मैंने सात नंबर बैरक से निकल कर पांच नंबर में आते हुए देख लिया था कि रोटी परेड चालू थी. लोग लाइन में लगकर अपनी अपनी रोटियां सब्जी चावल ले रहे थे. मैंने पूछ लिया- रोटी तो बंट चुकी है, मुझे खाना कैसे मिलेगा? उन लोगों ने हंसते हुए जवाब दिया कि नए बंदियों के लिए उनके आने के बाद भी खाना देने की व्यवस्था होती है, खाना आपको मिल जाएगा, टेंशन न लें. और, कुछ देर बाद खाना आ गया. सब लोगों ने ग्रुप बनाकर साथ में खाया. सब चुप थे. मैंने परिचय दिया और माहौल सहज करने की कोशिश की. अपनी दास्तान सबको सुना दी.
जेल में दो नए लोग आपस में परिचय करते हुए पहला सवाल यही करते हैं कि किस मामले में आए हो. मैं गिनाता- रंगदारी, अश्लील एसएमएस आदि इत्यादि. मैं जब उनसे पूछता तो वे अपराध बताने की बजाय सिर्फ आईपीसी की धारा बताते. जैसे- ये कि मैं 302 में हूं. अगले दिन बैरक में टहलते हुए एक सज्जन से जब बातचीत के बाद उनसे यहां किस अपराध में आने के बारे में पूछा तो उन्होंने पहले तो धारा बताई. मैं धारा से अपराध नहीं समझ सका तो उन्होंने लजाते सकुचाते बताया- रेप. मैं भी थोड़ा झेंप गया कि इन्हें मैं असहज कर गया. एक बार एक बंदी दूसरे बंदी से तीसरे बंदी की शिकायत कर रहा था कि वो रेप में आया है और मैं चाकू में अंदर हूं, चला है वो मुझसे चैलेंज करने. मतलब ये कि जेल में ज्यादातर बंदी अपने अपने अपराधों को महिमामंडित करते ताकि दूसरे थोड़े उनसे डरें, अदब में रहें. कई कई लोग तो गलत ही कई अपराध अपने उपर बताने लगते ताकि उनका क्रेज ज्यादा रहे.
अगले दिन सुबह टायलेट से निकलकर बैरक वाले पार्क में टहल रहा था तो एक सज्जन पीपल के पेड़ से लगकर बैठे थे, मुझे देर तक घूरने के बाद उंगली उठाकर बुलाया और पूछ पड़े- तुम वही हो न जिसकी खबर फोटो अखबार में छपी है, रंगदारी मांगने में. मैं चौंका. फिर जवाब दिया- हां जी. उसने अगला सवाल दागा- कितने की रंगदारी मांगी थी. मैं चुप रहा. मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था और यह भी जानता था कि ये जेल की बातें हैं भला बाहर कैसे जाएंगी, सो उसके सीधे सपाट सवाल का सीधे सपाट जवाब दे दिया, बिना यह बताए कि मेरे पर मामला सही है या गलत. मैं थोड़ी देर बाद बोला- बीस हजार रुपये की रंगदारी मांगी थी. उसने मुझे करेक्ट किया- अखबार में तो कुछ और छपा है, पढ़ लेना. फिर वो थोड़ी देर चुप हुआ तो मैं पूछ पड़ा- आप किस अपराध में हैं सर. वो आवाज उंची कर बोला- 302 में आजीवन कारावस में हूं. मैं बिलकुल चुप हो गया और वहां से निकलने लगा.
बाद में उन सज्जन से मेरी अच्छी दुवा सलाम हो गई. यह दुवा सलाम सिर्फ उन्हीं से नहीं बल्कि बैरक के ज्यादातर लोगों से हो गई. मैंने जीवन में ज्यादातर सामने वाले को सम्मान दिया और उसकी भावनाओं को समझने की कोशिश की, इस कारण मुझे बदले में सम्मान मिलता रहा है. यही जेल में हुआ. खासकर आर्थिक रूप से कमजोर बैकग्राउंड वाले बंदियों को मैं ज्यादा प्यार करता, पुचकारता, इस कारण वे भी मुझे कुछ ज्यादा ही स्नेह करते.
बैरक सुबह छह बजे खुलता और बैरक से बाहर जोड़ा बनाकर निकलना होता ताकि चीफ साहब व उनके सहयोगी राइटर हम लोगों की गिनती कर सकें कि संख्या उतनी ही है जितनी रात में बैरक बंद करते समय थी. दूसरी गिनती सात बजे सर्किल में होती. वहां गिनती कराकर लौटते वक्त रास्ते में नाश्ता मिलता रहता. किसी दिन ब्रेड, किसी दिन दलिया गुड़, किसी दिन उबला तला चना, किसी दिन कुछ. सर्किल की गिनती कराकर लोग बैरक में घुसते और निपटने, नहाने आदि के काम में लग जाते. आठ बजे के करीब अस्पताल जाने वालों की लिस्ट बनती, योगा जाने वालों की लिस्ट बनाई जाती, जेल अफसरों के यहां पेश होने की इच्छा रखने वालों की लिस्ट बनती, तारीख पर कोर्ट जाने वालों को तैयार होने को कहा जाता…. और इन सबसे जो बचे लोग होते, वे बैरक के पार्क में टहलने लग जाते. दिन में बारह बजे से पहले रोटी परेड के लिए बैरक का लोहे का दरवाजा पीटकर सूचित किया जाता फिर रोटी परेड से लौटते ही ठीक बारह बजे बैरक में जोड़े में बंदियों-कैदियों को प्रवेश कराकर गिनती की जाती और बैरक को बंद कर दिया जाता. अंदर लोग खाते-पीते. टीवी देखते. पढ़ते. आराम करते. सोते. चार बजे शाम को बैरक का गेट फिर खोल दिया जाता. लोग फिर नहाने या टहलने के काम में लग जाते.
बैरक के पार्क में बालीवाल खेलने वाले लोग नेट व बाल लेकर आ जाते व नेट बांधकर खेलने लगते. बालीवाल बड़ा रोमांचक होता. दो टीमें आपस में भिड़ी रहतीं और उनके चारों ओर बंदी कैदी हौसलाअफजाई करते, तालियां बजाते, सलाह देते. लंबरदार, राइटर, चीफ साहब तक इस खेल में शामिल हो जाते. यह सब देख मन खुश हो जाता. जेलों की जो खौफनाक तस्वीर बाहर के लोगों में मन में होती, वह यहां बिलकुल भी नहीं था. वैसे भी डासना जेल के बारे में माना जाता है कि यहां मानवाधिकार का रिकार्ड बाकी जेलों से बहुत अच्छा है. बंदियों-कैदियों को अनुशासित आजादी दी जाती. गलत करने सोचने वाले बंदियों पर जेल प्रशासन का अच्छा अंकुश रहता. इस कारण वे सीधे साधे लोग जो गलत तरीके से फंसाकर जेल भेजे गए होते, उनका प्रोफेशनल क्रिमिनल कुछ बिगाड़ नहीं पाते. प्रोफेशनल क्रिमिनल्स और इरादतन अपराधियों पर जेल प्रशासन का पूरा अंकुश होता और तनिक भी निगेटिव कंप्लेन मिलने पर उन्हें टाइट कर दिया जाता. इस कारण वे अदब से रहते.
बालीवाल का खेल तब खत्म होता जब करीब पांच साढ़े पांच बजे शाम की रोटी परेड होने की सूचना बैरक के दरवाजे के गेट को पीटकर दी जाती. तब लोग हाथ मुंह धोकर रोटी लेने चल पड़ते. लौटने पर छह-सात बजे शाम के करीब बैरक में गिनती कराकर सबको प्रवेश कराया जाता और बैरक के गेट पर ताला जड़ दिया जाता. जेल के मुख्य गेट से गिनती करें तो बैरक के गेट तक आते आते कुल साते ताले पड़ जाते. बताया जाता है कि जेल व बैरक पूरी तरह बंद होने की प्रतिदिन सूचना जेल मुख्यालय लखनऊ भेजी जाती. जेल व बैरक की सभी चाभियां जेलर के यहां जमा कर दी जाती. शुरू शुरू में बैरक में ताले लगने के बाद मुझे आशंका होती कि अगर बैरक में कभी आग लग जाए तो यहां से निकलने का रास्ता कहां से बनेगा. हालांकि मेरी यह आशंका निर्मूल थी क्योंकि बैरक के अंदर दो नल, दो टायलेट, दर्जनों अड़गड़े थे जिनसे क्रास वेंटिलेशन बहुत जबरदस्त था और बैरक के बाहर पुलिस प्रशासन के लोग हर समय मुस्तैद रहते, टहलते रहते ताकि जेल के अंदर के हालात पर नजर रखी जा सके.
रात में ग्यारह बजे तक टीवी चलने की व्यवस्था, उसके बाद टीवी बंद. टीवी बंद करने की व्यवस्था सेंट्रली थी. सभी बैरकों की टीवी का कंट्रोल सिस्टम एक जगह रखा गया था, इस कारण हर बैरक में एक समय एक किस्म का प्रोग्राम चल रहा होता. ज्यादातर वक्त फिल्में चलतीं. जेल में मैंने शोले फिर से देखी. धरमवीर समेत कई फिल्में देखीं. रात ग्यारह बजे के बाद टीवी बंद हो जाने से थोड़े बहुत जग रहे लोग भी सोने लग जाते. सुबह छह बजे बैरक का गेट खोला जाता और उस वक्त एक राइटर जोर से आवाज लगाता- उठ जाओ रे, गिनती दे दो. कुछ देर बाद फिर आवाज लगाता- वो कौन सो रहा है बे, उठता क्यों नहीं, सेंटर वालों उठ जाओ. कुछ देर बाद फिर ऐसा ही कुछ कहता. असल में लोग नींद से अलसाए हुए उठ रहे होते. जो लोग देर से सोते उनकी नींद सुबह जल्द नहीं खुलती. ऐसे में सभी को जगाने के लिए लगातार आवाज देता रहना जरूरी हो जाता. नींद खुलते ही लोग जोड़ा बनाकर बैरक की गेट की तरफ चलने लगते. चीफ साहब बैरक गेट पर गिनती में तल्लीन रहते.
ऐसे ही एक रोज मैं पांच बजे ही उठ गया. पूरे बैरक में लोग सो रहे थे. लेकिन दो लोगों की आवाजें आ रही थीं. एक बंदी दूसरे से झगड़ता-सा कह रहा था- मैंने तुमसे अंडरवियर मांगा तो दिया क्यों नहीं बे? दूसरे ने कहा- मैंने तुमसे चप्पल रखने को कहा तो तुमने रखा? मैं राम राम कहने लगा. सुबह सुबह ब्रह्ममुहूर्त में अंडरवियर चप्पल को लेकर झगड़ रहे हैं ये साथी. मन ही मन हंसा भी. बैरक में स्थित बाथरूम से लौटा तो टायलेट जाने की जरूरत महसूस हुई. अभी तक बैरक के अंदर के टायलेट को इस्तेमाल नहीं किया था, हमेशा छह बजे नींद खुलने के बाद गिनती कराकर बाहर जाने पर बैरक के बाहर के दर्जनों टायलेट्स में से किसी एक का इस्तेमाल कर लेता. पर उस दिन लगा कि आज जल्दी जाना पड़ेगा. पर सब्र बनाने की यह सोचकर कोशिश की कि अभी तक बैरक के अंदर के टायलेट का इस्तेमाल नहीं किया तो आज भी नहीं करूंगा. छह बजने ही वाला है. एक नींद मारता हूं. बाहर जाकर ही करूंगा.
लेकिन पौने छह बजते बजते कुछ लोग खुद ब खुद चलकर बैरक के गेट पर जमा होने लगे. मैं समझ गया. ये वो लोग होंगे जिन्हें लगी होगी लेकिन ये अंदर नहीं करना चाहते, और बाहर निकल कर सबसे पहले टायलेट में घुसना चाहते हैं ताकि लाइन न लगानी पड़े. मैं भी चुपचाप उठा और जाकर तीन चार जोड़ों के पीछे एक आदमी के साथ जोड़ा बनाकर खड़ा हो गया. पंद्रह मिनट तक खड़ा रहा. छह बजे तो चीफ साहब बैरक की चाभी लेकर आए. बैरक का दरवाजा कवर्ड नहीं बल्कि खिड़कीनुमा होता जिसमें से आरपार दिखता. लोहे के राड लगे होते. चीफ साहब ने मजाक किया. पहले वे लोग हाथ खड़ो करो जिन्हें जोर से लगी है. हम बेचारे बंदी कैदी क्या कहते, बस मुस्करा हंस दिए. वे फिर बोले- जिन्हें जोर की लगी है वे हाथ उठाएं तब खोलूंगा. बंदियों में से एक बोल पड़ा- यहां जितने खड़े हैं सब जोर की लगी वाले ही हैं, अब आप खोल दीजिए वरना दिक्कत हो जाएगी. यह सुन कतार में खड़े सभी बंदी हंस पड़े. मैंने पीछे पलटकर देखा तो मेरे पीछे भी पंद्रह बीस जोड़े खड़े हो चुके थे. और, गेट खुलते ही सभी इतनी जोर से टायलेट की तरफ भागे कि जैसे मैराथन हो रहा हो. मैं पहली बार यह स्थिति देख रहा था सो संयत रहा, अपनी स्वाभाविक चाल ही चलता रहा. शायद मुझे टायलेट के लिए भागने जैसी स्थिति सहज नहीं लग रही थी. जब टायलेट के पास पहुंचा तो वहां तीस चालीस लोग पहुंच चुके थे और सारे टायलेट फुल थे.
हर टायलेट के बाहर एक आदमी अपनी बारी के लिए इंतजार कर रहा था. ऐसे ही एक टायलेट के सामने मैं भी खड़ा हो गया. लोग काम शुरू कर चुके थे इसलिए बदबू का झोंका दाएं बाएं आगे पीछे से चला आ रहा था. बीड़ी सिगरेट के धुएं में मिक्स टायलेट का बदबू शुरू में अजीब लगा, मन किया कि यहां से चला जाऊं और कुछ घंटे बाद आउं जब लाइन खत्म हो चुकी हो लेकिन हिला नहीं. यही जीवन है तो यही अपनाना है. भागकर कहां जाना है. स्थितियां बुरी नहीं होतीं. उसे हम अच्छा या बुरा महसूस करते हैं. और हुआ यही. इन बदबूओं से आगे के दिनों में मैं अच्छी तरह परिचित हो गया इसलिए बाद में कुछ भी असहज नहीं लगात. हालांकि ऐसी स्थिति कम ही आती कि छह बजे के पहले बैरक गेट खुलने के लिए इंतजार करने हेतु लाइन में लगूं. ज्यादातर मैं पहली गिनती के बाद दुबारा बैरक में जाकर सो जाता और दूसरी सर्किल वाली गिनती कराकर तेज तेज कदमों से सीधे टायलेट में आ जाता तब ज्यादातर टायलेट खाली रहते. हर बंदी कैदी ने जेल के वक्त को बांट रखा था. उसे कब क्या करना था, उसे पूरी तरह पता था. दिक्कत शुरू शुरू में नए लोगों को होती और वे भी दस पंद्रह रोज में जेल जीवन के आदी हो जाते. दस दिन बाद ही मैंने योगा क्लास में प्रवेश ले लिया. लाइब्रेरी से किताबें मंगाने लगा. जेल के अस्पताल का इस्तेमाल छोटी मोटी दिक्कतों जैसे खांसी जुकाम वायरल के लिए करने लगा. दोस्तों की संख्या बढ़ाने लगा. सबके जीवन की कहानियां सुनने लगा. दूसरों से मिलना जुलना बतियाना गपियाना करने लगा. कुछ ही समय बाद जेल अपना सा लगने लगा.
एक दिन बैरक के बड़े से पार्क में टहलते वक्त एक बंदी की टीशर्ट पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा देखा- Life Ended After I Got a Job. मतलब, नौकरी मिलते ही जिंदगी खत्म हो गई. मुझे बड़ा सुकून मिला. मैंने मन ही मन एक नया वाक्य रचा.. जेल आया तो जिंदगी जीने लगा… Life Start After I Entered in Jail. मन ही मन हंसने लगा. सोचने लगा कि इस वाक्य को बाहर निकलकर लिखूंगा जरूर. अपने पर मुग्ध होने लगा कि देखो मैं कितना महान आदमी हूं जो इतना दार्शनिक चिंतन जेल जैसी जगह में करने लगा हूं. आत्ममुग्धता से लेकर अवसाद तक की मनःस्थिति में जेल में लोग जीते हैं. पर ज्यादातर बंदियों-कैदियों के जेल जीवन में अवसाद ज्यादा होता है कि क्योंकि उन्हें जेल से बाहर के जीवन में बहुत कुछ करना कहना जीना शेष रह गया है. मेरे लिए उलटा था. मैं बाहर उबा हुआ, सब कुछ भोगा हुआ, करा हुआ आदमी रहा हूं और यहां आकर बिलकुल मुक्त हो गया हूं, जैसे मैंने संन्यास लेने को सब कुछ छोड़ छाड़कर किसी आश्रम में शरण ले ली हो और सामूहिक जीवन जीना शुरू कर दिया हो, उस आश्रम में जहां खोपड़ी में दिक्कत पैदा करने के लिए मोबाइल रखना मना है, आंख फोड़ने और तनाव पालने के लिए लैपटाप चलाना मना है, जहां तमाम तरह के वैचारिक प्रदूषण से मुक्त रहने के लिए बाहर के जीवन से जुड़ना मना है, यहां ध्वनि प्रदूषण नहीं है, वायु प्रदूषण नहीं है, खेलने को कैरम चेस बालीवाल है, करने को योगा है, गाने को भंजन मंडली है, पढ़ने को लाइब्रेरी में ढेर सी किताबें हैं. और सोचने बूझने चिंतन करने के लिए ढेर सारा वक्त है. कई बार मेरे मन में आया कि भड़ास आश्रम की जो कल्पना मैं करता रहा हूं, उसकी कुछ कुछ झलक यहां मिल रही है. अस्पताल, खाना, लाइब्रेरी, योगा, संगीत, रहना…. सब फ्री. और चाहिए क्या.
एक सज्जन ने जेल आते ही शुरू शुरू में किसी बात पर कहा था- जेल में तीन महीने तक सब कुछ नया और अच्छा लगता है, उसके बाद जेल का जीवन बोर करने लगता है. तब मैंने मन ही मन ठान लिया था कि तीन महीने तो कम से कम इस अदभुत जगह में रहूंगा ही. मैं बाहर के जीवन से उबा हुआ आदमी, शिमला से लेकर बनारस तक और इंदौर से लेकर लखनऊ-मथुरा, ऋषिकेश, वृंदावन, हरिद्वार, अयोध्या, फैजाबाद, उज्जैन तक भागा भागा फिरता रहा हूं ताकि कहीं कुछ नया मिले, चैन मिले, शांति मिले, लेकिन कहीं देर तक नहीं रुक पाया. हर जगह वही शोर दिखा, वही दुनियादारी दिखी. यहां तो भीड़ में भी एकांत है. अदभुत जगह है ये. कुछ महीनों पहले बौद्ध लोगों के साथ जाकर उनके साथ जीने व दीक्षा लेने का मन बनाया था. वहां जा न सका लेकिन मजबूरी में ही यहां भेजा गया हूं तो माहौल-मामला कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है. मैं जेल में अक्सर मौन का अभ्यास करने लगा. यह सोचकर कि अगर ऐसी जगहों पर कुछ नया प्रयोग नहीं किया तो बाहर निकलकर आध्यात्मिक स्तर पर कुछ भी नया नहीं कर पाउंगा. तब गॉड पार्टिकल के खोजे जाने का ऐलान हो चुका था और मैं अपने भीतर के गॉड पार्टिकल पर चिंतन मनन करने लगा था. एक चमत्कार हो चुका था. योगा करते करते मैंने एलर्जी पर विजय पा ली थी. मुझे हर रोज एक टैबलेट खाना होता था. वरना दिन में सौ से ज्यादा बार छींक आती और मैं थक हार कर बेहाल हो जाता. लेकिन जेल में योगा के दौरान किसी खास आसन ने ऐसा असर किया कि मैंने दवा लेना बंद कर दिया और फिर भी छींक नहीं आती. छींक आने वाली एलर्जी मुझे छह सात साल से थी. जेल में रहने के आखिरी डेढ़ महीने तक उससे मुक्त रहा. लेकिन बाहर निकलते ही खाने पीने की जो धमाचौकड़ी मैंने मचाई है और योगा को भुला दिया है उससे छींक फिर आने लगी है और टैबलेट फिर खाने लगा हूं. सोचता हूं जेल सरीखा जीवन फिर से बाहर की इस दुनिया में स्टार्ट कर दूं. क्या मुक्ति इसी में है?
….जारी……
इसके पहले का पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- ''मम्मी, इ देक्खो, चोर जावे हैं''
इस धारावाहिक उपन्यास के लेखक यशवंत सिंह 68 दिनों तक जेल में रहकर लौटे हैं. उन्हें जेल यात्रा का सौभाग्य दिलाने में दैनिक जागरण और इंडिया टीवी प्रबंधन का बहुत बड़ा योगदान रहा है क्योंकि ये लोग भड़ास पर प्रकाशित पोलखोल वाली खबरों से लंबे समय से खार खाए थे और एक छोटे से मामले को तिल का ताड़ बनाकर पहले थाने फिर जेल भिजवा दिया. लेकिन यशवंत जेल में जाकर टूटने की जगह जेल को समझने बूझने और उसके सकारात्मक पक्ष को आत्मसात करने में लग गये. इसी कारण ''जानेमन जेल'' शीर्षक से उपन्यास लिखने की घोषणा उन्होंने जेल में रहते हुए ही कर दी. वे इस उपन्यास के जरिए बंदियों-कैदियों-जेलों की अबूझ दुनिया की यात्रा भड़ास के पाठकों को कराएंगे. पाठकों की सलाह आमंत्रित है. आप यशवंत तक अपनी बात [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं. उनसे संपर्क 09999330099 के जरिए भी किया जा सकता है.
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जेल में नई व कौतूहलपूर्ण दुनिया से रूबरू हूं
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