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सुख-दुख...

जानेमन जेल (चार) : ”भड़ासजी, इस पेज को पढ़ दो, मजा आ जाएगा”

किताबों के साथ लंबे समय तक जीने-बतियाने का वक्त काफी लंबे समय बाद मिला. डासना जेल में 68 दिनों के प्रवास के दौरान दर्जन भर से ज्यादा किताबें पढ़ डाली. पाकिस्तानी लेखिका तहमीना दुर्रानी के आत्म-कथात्मक उपन्यास 'ब्लासफेमी' के हिंदी अनुवाद ''कुफ्र'' को पहली बार पढ़ा. इस किताब के बारे में पहले से सुन रखा था. कई लोगों ने पढ़ने की सलाह दी थी. लेकिन पढ़ने का सौभाग्य डासना जेल में मिला. जब इसे पढ़ना शुरू किया तो मुझे एक नशा-सा हो गया.

किताबों के साथ लंबे समय तक जीने-बतियाने का वक्त काफी लंबे समय बाद मिला. डासना जेल में 68 दिनों के प्रवास के दौरान दर्जन भर से ज्यादा किताबें पढ़ डाली. पाकिस्तानी लेखिका तहमीना दुर्रानी के आत्म-कथात्मक उपन्यास 'ब्लासफेमी' के हिंदी अनुवाद ''कुफ्र'' को पहली बार पढ़ा. इस किताब के बारे में पहले से सुन रखा था. कई लोगों ने पढ़ने की सलाह दी थी. लेकिन पढ़ने का सौभाग्य डासना जेल में मिला. जब इसे पढ़ना शुरू किया तो मुझे एक नशा-सा हो गया.

दिन भर, रात भर पढ़ता रहता. दो-चार घंटे मजबूरन तब सोता जब आंखें खुद ब खुद बंद होने लगतीं. कहने को तो यह उपन्यास पाकिस्तान में महिलाओं की भयावह स्थिति को दर्शाने वाला है और सच्ची घटनाओं पर आधारित है लेकिन इसे पढ़कर लगा कि यह कहानी भारत की भी है, बांग्लादेश की भी है, श्रीलंका की भी है, हर उस देश की है जहां धर्म, परंपरा, कट्टरपंथ, सामंती मानसिकता जोर जमाए है.

पाकिस्तानी लेखिका ''तहमीना दुर्रानी'' ने अपनी पुस्तक ''ब्लासफेमी'' उर्फ ''कुफ्र'' में पाकिस्तानी जमींदारों – नजूलियों और मुल्लाओं के कुकृत्य का इतना लोमहर्षक वर्णन किया है कि ये जमींदार-मुल्ला किताब में लिखे सत्य को पचा नहीं पाए और तहमीना सजा-ए-मौत के खौफ में जीती रही. ऐसी किताब जिसे पढ़कर खुद पाठक लजा जाएं कि क्या ऐसा भी कोई कर सकता है, क्या ऐसा भी होता है.

तहमीना दुर्रानी की आपबीती 'कुफ्र' में पाकिस्तानी राजनीति और इसके वीभत्स गठजोड़के भयावह चेहरे को भी देखा जा सकता है. इस उपन्यास को खत्म करने के बाद कई दिनों तक मैं इसी उपन्यास के पात्रों व कहानियों के बारे में सोचता रहा. पढ़ने के बाद मुझे लगा कि अगर मैंने इस जीवन में इस उपन्यास को नहीं पढ़ा होता तो मेरा अब तक का सब कुछ पढ़ा हुआ अधूरा रहता.

आप सभी को, खासकर लड़कियों-महिलाओं को सुझाव देना चाहूंगा कि वे तहमीना दुर्रानी लिखित 'कुफ्र' को जरूर पढ़ें. एक महिला को कितना मजबूर किया जाता, उस पर कितना व किस किस तरह का अत्याचार किया जाता है, और, वह महिला फिर भी सपने देखती है, प्यार करने के बारे में, लड़ने के लिए, बदला लेने की सोचती है, रचने की सोचती है, आगे सब कुछ ठीक हो जाने की उम्मीद करती है…. और जब उसका वक्त आया, उसके दिन ठीक होने को आए तो उसके कोख का ही जना उसके खिलाफ नए खलनायक के रूप में खड़ा हो जाता है. एक पति अपनी पत्नी को लेकर कितना विकृत हो सकता है, उसका किस किस तरह दुरुपयोग कर सकता है, खुदा का प्रतिनिधि समझे जाना वाला एक आदमी कितना गिरा हुआ हो सकता है, उसके लिए हर लड़की सिर्फ एक योनि से ज्यादा कुछ नहीं, उसकी दास्तान पढ़कर आपको जिंदगी, सिस्टम, मनुष्यता, परंपरा, धर्म.. सब कुछ के बारे में दुबारा सोचने का मन करेगा.  

अगर जेल न जाता तो इस किताब को न पढ़ पाता, जेल जीवन की उपलब्धि है इस किताब को पढ़ना. इसके लिए डासना जेल की लाइब्रेरी को थैंक्स कहना चाहूंगा. 'ब्लासफेमी' का ''कुफ्र'' नाम से हिंदी अनुवाद विनीता गुप्ता ने किया है और इसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.

बैरक में वो किताबें ज्यादा मंगाई जातीं जिसमें सेक्स का वर्णन-जिक्र ज्यादा होता. 'कुफ्र' में भी सेक्स के प्रसंग बार-बार हैं. खुद को खुदा का प्रतिनिधि कहने वाला बड़ा साईं पूरे उपन्यास में दो ही काम करता दिखता है. पब्लिक लाइफ में लोगों को दर्शन व दुवा देना और प्राइवेट लाइफ में छोटी बच्ची से लेकर बड़ी उम्र की महिला के साथ विविध तरीके से सेक्स करना. उसकी पत्नी अपनी बेटी को उसकी हवस से बचाने के लिए मजबूरन दूसरों की लड़कियों को उसके सामने पेश करती रहती है. वह बड़ा साईं बाद में अपनी पत्नी को कोठेवाली बताकर दूसरों के सामने पेश करने लगा. वह अपनी पत्नी के साथ सेक्स करते हुए ब्लू फिल्म बनाने लगा. वह पत्नी के अलावा दो तीन अन्य लड़कियों को सेक्स के लिए बुलाने लगा और सबको शराब पिलाकर नंगा करता, सेक्स करता, फिल्म बनाता… पूरे उपन्यास में एक स्त्री अपनी कहानी बता रही होती है और अपने साथ हुए घटनाओं-हादसों को पेश करती जाती है. पढ़कर सोचने लगा कि क्या किसी एक के जीवन में लगातार इतने दुख व जुल्म हो सकते हैं.

'पियानो टीचर' नामक एक किताब की बंदी खूब चर्चा करते. रूसी उपन्यास का हिंदी अनुवाद है यह. अमृत राय ने अनुवाद किया है. लेकिन इतना घटिया अनुवाद की पढ़ते हुए अपना सिर पीट लेंगे. इस किताब में सेक्स, लिंग, योनि आदि का वर्णन इतने घटिया तरीके से किया गया है कि जैसे लगता है इसका अनुवाद अमृत राय ने नहीं बल्कि मस्तराम ने किया हो. एक बंदी इस किताब को जेल की सबसे 'पठनीय' किताब बताता. साथ ही यह भी कहता कि यह किताब जल्द इशू नहीं होती क्योंकि यह किसी न किसी बैरक में किसी न किसी के पास पढ़ने के लिए गई रहती है.

कौन किताब पढ़ने लायक है और कौन नहीं, बैरक में इसका आकलन उसमें सेक्स की मात्रा के आधार पर किया जाता. और, यह आकलन ज्यादातर वो लोग करते जिनका पढ़ाई-लिखाई से जीवन में बिलकुल नाता नहीं रहा है. मतलब, जो पढ़ना नहीं जानते, वे हम लोगों को बताते कि इसे पढ़ो, मजा आएगा. साथ ही बीच के एकाध पन्ने वे पढ़कर सुना देने का अनुरोध करते. उन्हें कहीं से पेज नंबर तक याद रहता कि इस किताब के फला पेज नंबर पर पढ़ने लायक 'मजेदार आइटम' है. वे वही पेज पढ़कर सुनाने को कहते. मैंने उन्हें एकाध बार सुनाया लेकिन बाद में गला खराब होने का बहाना करके टाल दिया.

एक बार संयोग से 'पियानो टीचर' नामक उपन्यास उस अपढ़ बंदी साथी के हाथ लग गया जो इसकी तारीफ करते न अघाता. वह मुस्कराते हुए मेरे पास किताब लेकर आया. सामने चुपचाप बैठ गया और इस अंदाज में किताब को मेरे सामने पेश किया जैसे कोई बड़ा तोहफा दे रहा हो. उसने धीरे से कहा- ''भड़ासजी, इस किताब के इन पन्नों को सुना दो, मजा आ जाएगा, फिर तुम सब पढ़ लेना, बड़ी मुश्किल से मिली है, इसमें भरपूर मसाला है.'' मैं उस बंदी के मुस्कराते चेहरे व भोलेपन से कही गई बात पर हंस पड़ा. मैंने उसे सामने बिठाया और जिन पेजों का उसने जिक्र किया, उसका पाठ किया. उसे भी निराशा हुई कि इसमें उतना कुछ तो नहीं जितना उसे बताया गया. हां, सेक्स संबंधित कई शब्द घनघोर देसी थे, जिनका उल्लेख मस्तराम मार्का किताबों में ही हो सकता था. इन शब्दों का मेरे श्रीमुख से वाचन किए जाने का सुख उस बंदे ने खूब लिया और हंसता रहा. अड़ोस-पड़ोस वाले बंदियों को वह बताने लगा कि ''देखो, भड़ासजी कैसे कैसे शब्द आराम से बोल रहे हैं…''

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''पियानों टीचर'' स्तरीय किताब है, लेकिन इसका हिंदी अनुवाद घटिया है. पर जेल के ज्यादातर बंदियों-कैदियों को स्तरीय और निम्न-स्तरीय से कोई मतलब नहीं था.  वे तो किताब हो या अखबार, सबमें 'सेक्स-स्तरीय' तलाशते. एक कैदी साथी जो कम पढ़े लिखे थे, अंग्रेजी अखबारों के पन्ने बेहद तन्मयता से पलटते, जैसे कितना सीरियसली पढ़ रहे हों, लेकिन वह बस केवल तस्वीर ध्यान से देखते जाते. एक-एक तस्वीर पर अच्छा खासा टाइम देते. टीओआई और एचटी के जो दिल्ली सिटी के पेज आते, जिसमें पेज थ्री पार्टीज की फोटो होती, उसे काफी चाव से बैरक में देखा जाता. महिलाओं-लड़कियों से दूर बसी इस बैरक की दुनिया में नौजवानों की भरमार थी और उनके दिल-ओ-दिमाग में अपोजिट सेक्स की जबरदस्त चाहत-तलाश थी.

बैरक की खूब पढ़ी जाने वाली एक अन्य किताब ''एक बारबाला की आत्मकथा'' की इतनी धूम रही कि यह बैरक से विदा नहीं ले पाती. एक जमा करता तो दूसरा इस किताब को इशू करा लेता. किसी न किसी के फट्टे पर यह किताब पड़ी मिलती. कम पढ़े लिखे लोग इस किताब के सिर्फ वे पन्ने पढ़ने को कहते या पढ़कर सुनाने का आग्रह करते जिसमें सेक्स प्रसंग भरा होता. बाकी उनके लिए किताब से कोई खास मतलब नहीं. लेकिन जब मैंने ''एक बारबाला की आत्मकथा'' को पढ़ना शुरू किया तो चकित रह गया. कोई महिला इस कदर तक इमानदार और साफगो हो सकती है कि वह अपने बाप और बेटे द्वारा खुद के साथ सेक्स करने के प्रयास का पूरे साहस के साथ खुलासा कर सकती है, मुझे यकीन नहीं हो रहा था. लेकिन इस किताब की लेखिक ने गजब का साहस दिखाया है.

गरीब परिवार की एक लड़की जिसका यौन उत्पीड़न सात आठ साल की उम्र से ही शुरू हो गया, पूरे जीवन भर लोगों के लिए सेक्स ट्वाय बनी रही. यह महिला अपने को जिंदा रखने के लिए हर मुसीबत, यातना, प्रलोभन झेलती और खुद को स्थापित करने के लिए लगी रहती. पुस्तक की लेखिका हैं वैशाली हलदनकर जो खुद एक बारबाला रही हैं. यह किताब उनकी आत्मकथा सरीखी है. देश-विदेश के 80 से अधिक बारों में 16 वर्ष तक बार सिंगर की भूमिका निभानेवाली वैशाली हलदनकर संगीतज्ञ माता-पिता की पुत्री हैं. उनके माता-पिता दोनों ही संगीत विशारद रहे हैं. मुंबई में डांस बार बंद होने के लगभग तीन वर्ष बाद यह किताब बाजार में आई. यह पुस्तक डांस बारों के जमाने में मुंबई की नाइट लाइफ को भी बयान करती है.

वैशाली मराठी समाज से आती हैं. उसके जीवन के खट्टे अनुभवों की शुरुआत बचपन में ही एक पड़ोसी द्वारा किए गए दुराचार से होती है. 14 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया. जल्दी ही दो बच्चे भी हो गए. इस विवाह के बाद उन्हें रहने के लिए मुंबई की झोपड़पट्टी में जाना पड़ा और पेट पालने के लिए बारों का रुख करना पड़ा. बार में ग्राहकों एवं साथियों के साथ बनते-बिगड़ते रिश्तों ने जल्दी ही उनका वैवाहिक जीवन तबाह कर दिया. बार जीवन में एक प्रमुख गैंगस्टर से उनके रिश्ते बने और टूटे. इस घटना ने उनके जीवन में एक और झंझावात पैदा किया.

इस झंझावात से उन्हें शांति मिली पुणे के ओशो आश्रम में. वह ओशो आश्रम की संन्यासी भी बनी और बारों में गाना भी जारी रखा. इस नए रूप से भी उनकी बार वाली पहचान नहीं बदल सकी. उनका शारीरिक शोषण भी जस का तस जारी रहा. दुखों ने जीवन में शराब का हिस्सा बढ़ाया. इसके कारण जवान हो रहे बच्चों से भी रिश्ते टूटने लगे. इसी दौरान वह भारतीय बार ग‌र्ल्स यूनियन की मानद अध्यक्ष वर्षा काले के संपर्क में आईं, जिन्होंने उन्हें जीवन के उतार-चढ़ावों पर पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी. किताब को पुणे के मेहता पब्लिशिंग हाउस ने प्रकाशित किया है. अपनी आत्मकथा लिखने के दौरान ही वैशाली के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए. वैशाली की आत्मकथा को पढ़ते हुए आप एक मिनट को भी किताब से दूर नहीं जाना चाहेंगे. 'एक बारबाला की आत्मकथा' को पढ़ते हुए मेरी दशा जेल में यह रही कि खाना-पीना तक भूल गया था. साथी लोग बुलाते कि ''भड़ासजी खा लो, किधर खो गए…'' तब जाकर मैं उठता और खाना खाता. खाते ही फिर किताब में जुट जाता.

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सौरभ लिखित उपन्यास मुन्नी मोबाइल का पूरा पाठ जेल में कर पाया. इस उपन्यास को पढ़ते हुए प्रदीप सौरभ की संवेदनशीलता के बारे में समझ सका. प्रदीप सौरभ से दिल्ली में कई बार मुलाकात हुई, और मुन्नी मोबाइल के बारे में भड़ास पर कई बार प्रकाशित किया लेकिन दोनों, लेखक व उपन्यास, को नजदीक से कभी पढ़ न सका. मुन्नी मोबाइल पढ़ा तो लगा कि इसे न पढ़कर मैंने एक भूल की थी. मुन्नी मोबाइल में कई कहानियां हैं. अगर प्रदीप सौरभ चाहते तो हर कहानी को एक अलग किताब की शक्ल दे सकते थे. उनकी खुद की जिंदगी और पत्नी से तलाक का प्रकरण एक अलग किताब बन सकता था,

प्रदीप सौरभ अपनी प्रेम कहानी को अलग उपन्यास की शक्ल दे सकते थे. वे पत्रकारिता वाले पार्ट को एक अलग उपन्यास बना सकते थे. पर उन्होंने एक ही उपन्यास में सब कुछ को समेट दिया. इसलिए अगर कोई ये कहे कि मुन्नी मोबाइल सिर्फ मुन्नी मोबाइल नामक एक नौकरानी के लड़की सप्लाई करने वाली डॉन बनने की कहानी है तो गलत है. मुन्नी मोबाइल को हर पत्रकार को पढ़ना चाहिए, हर संवेदनशील इंसान को पढ़ना चाहिए, इस बहाने वह एक पत्रकार के अंदर झांक सकेगा, साथ ही अपने समय समाज के सुखदुख को भी समझ सकेगा. मुन्नी मोबाइल को पढ़ने के बाद मेरा प्रदीप सौरभ के प्रति सम्मान बढ़ गया है.

''प्रमोद'' नामक एक उपन्यास पढ़ा. काफी मोटा है यह. चित्रा सिंह ने लिखा है. लखनऊ की हैं चित्रा. प्रमोद उनके पति का नाम. अपने पति के संघर्ष, प्रेम, शादी, बिजनेस, नौकरी, उदारता, बड़प्पन आदि को केंद्र बनाकर उन्होंने लिखा है. प्रमोद अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन प्रमोद के बारे में लिखकर चित्रा ने वाकई उन्हें अमर कर दिया है. हर युवक जो गरीब परिवार से आता है और संघर्ष करते हुए आगे का रास्ता बनाता है, प्रमोद से प्रेरणा पा सकता है. विपरीत स्थितियों से कैसे लड़ा जाता है, यह प्रमोद से सीखा जा सकता है. प्रमोद-चित्रा की प्रेम कहानी का खूबसूरत वर्णन है. इस उपन्यास में लखनऊ की ढेर सारी घटनाओं का जिक्र है.

'प्रमोद' उपन्यास में पत्रकार प्रदीप सिंह, उदय सिन्हा, अच्युतानंद मिश्र, राहुल देव आदि का जिक्र किया गया है. इनसे जुड़े कई प्रसंग भी दिए गए हैं. पत्रकार प्रदीप सिंह की बहन हैं चित्रा, सो लाजमी है कि इनका बार बार जिक्र होता. चित्रा ने असली अर्द्धांगिनी की तरह प्रमोद का जिस तरह साथ निभाया, वह अदभुत है. भावना प्रधान इस उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार आंखें पनीली हो गईं. अपन का स्वभाव ही ऐसा है कि भावना में बह जाते हैं. किताब उपन्यास पढ़ते हुए उसके पात्रों के साथ ऐसा जुड़ बंध जाते हैं कि उन्हीं के साथ जीने मरने हंसने रोने लगते हैं. और, चित्रा ने इस अंदाज में घटनाओं, स्थितियों को पिरोया है कि सब कुछ अपने इर्दगिर्द घटित होता महसूस होता है.

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कितना बताऊं कि क्या क्या पढ़ा. बस ये जान लीजिए कि जेल में जाकर पढ़ने लिखने से एक बार फिर जिंदा हो उठा. जो जिंदगी उद्देश्यविहीन लगने लगी थी, उसे जेल में जाकर मकसद मिल गया. कितना कुछ पढ़ना बाकी था, कितना कुछ अभी पढ़ना बाकी है, यह समझ में आया. और, तय किया कि जेल से छूटकर भी रोजाना कुछ न कुछ नया पढ़ने की आदत को जारी रखूंगा. लेकिन बाहर आते ही यह क्रम भी टूट गया.

मुझे जेल में जेल जैसा ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ जिसे याद रख सकूं लेकिन बाहर की दुनिया में आकर मुझे एक अघोषित जेल का एहसास जरूर हर वक्त होने लगा है. इस बाहरी जेल में आप अपने व अपने परिवार की पेट पूजा के लिए जुगाड़ के वास्ते इतना परिश्रम करते हैं कि उसके बाद आप किसी लायक रह नहीं जाते. बोले तो, अपन सब की जिंदगी एक गुलाम सरीखी हो जाती है जिसके तहत हम सब अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त किसी दूसरे की गुलामी करते या पैसे इकट्ठा करने के लिए बेकार सा काम करते हुए गुजार देते हैं और बदले में रुपये पाते हैं, तनख्वाह पाते हैं, जिसके जरिए हम आप रोटी, कपड़ा, मकान टाइप बुनियादी चीजों का जुगाड़ कर पाते हैं.

कल्पना करिए, इतनी सदियां गुजर गईं, कितना वक्त गुजर गया, फिर भी हम मनुष्य अपना जीवन अपनी जवानी उन्हीं आदिम चीजों के जुगाड़ में गुजार देने को अभिशप्त हैं जिन चीजों का जुगाड़ प्रागैतिहासिक काल में आदि मानव किया करते थे, अपनी सुरक्षा, अपने भोजन, अपने शिकार, अपने निवास… का जुगाड़. और, तब से अब की कुल तरक्की का नतीजा यह कि आज भी हम बुनियादी चीजों की जुटान जुगाड़ में जीवन को पूरा खर्च कर बैठते हैं.

कैसा सिस्टम बनाया है हम मनुष्यों ने कि हम खुद को आजाद बताते तो हैं पर अघोषित तौर पर बने हुए हैं पूरे के पूरे गुलाम. हम लोग जेल दूसरों के लिए बनाते हैं पर खुद एक बड़े कैदखाने में सिमटकर जीवन गुजारते हैं. और, मजेदार यह कि हमें पता भी नहीं चलता कि हम कैद हैं, हम बंद हैं, हम गुलाम हैं. हमारे हर पग हमारी हर चाल पहले से तय है. आज के दौर में बाजार ने जिस जेल की रचना कर दी है, जिन बेड़ियों की रचना कर दी है,  उसमें फंसकर हम वह नहीं कर सकते जो हम चाहते हैं, हम वह करते हैं जो बाजार चाहता है. जीवन के लिए बहुत जरूरी है भरपूर नींद लेना. लेकिन प्रतिस्पर्धा ऐसी कि लोगों की जिंदगी से नींद गायब होने लगी है. चैन छिनने लगा है. इससे ढेर सारे संकट पैदा हुए हैं.

हर आदमी हैरान परेशान तूफान बना हुआ है, इस अतिशय दबाव के कारण नींद गायब हो गई है. तनाव दबाव दूर करने के लिए दारू पीने का चलन बढ़ा. लेकिन कम नींद के कारण इससे भी कई प्राब्लम पैदा हो रही है. अच्छी नींद शहरियों के लिए सपने की तरह है. और, जब अच्छी नींद न आए तो समझिए आप कई तरह की दिक्कतों में फंसने जा रहे हैं. अत्यधिक तनाव-दबाव, कम नींद से पैरालिसिस, ब्रेन अटैक, हार्ट अटैक, हाई बीपी, शुगर जैसी कई दिक्कतें हो रही हैं. माने ये कि बाहरी जेल में रहते हुए लोग स्वस्थ नहीं, बीमार होते जा रहे हैं. और, आपको लगता है कि आप आजाद हैं. और जो लोग असली जेलों में हैं, वे ज्यादा सुखी हैं, जड़ों के ज्यादा करीब हैं, बुनियादी चीजों की गारंटी है उनके पास. उन्हें खाना चाय नाश्ता मिल रहा है. उन्हें भरपूर नींद मिल रही है, उन्हें पढ़ने को मिल रहा है, उन्हें खेलने हंसने बोलने बतियाने को मिल रहा है…. और जीने को क्या चाहिए!

खैर, मूल मुद्दे पर आते हैं. बात हम लोग डासना जेल की कर रहे थे जहां 68 दिनों में मैंने काफी वक्त पढ़ने में गुजारा. रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि को पहली बार डासना जेल में पढ़ा. इसकी रचनाओं को गाने की कोशिश की. किताब में कविताओं के अर्थ को भी समझाया गया था. गीतांजलि पढ़ते हुए रवींद्रनाथ टैगोर की उदात्तता को महसूस कर रहा था. कितने उंचे उठ गए थे टैगोर, कितना वृहद व्यक्तित्व था टैगारो का… यह गीतांजलि के जरिए जाना जा सकता है. चरम मनुष्यता, चरम प्रेम, चरम करुणा…. इन भावों को जीते हुए आदमी कब अपने आप से मुक्त होकर आकाश सा उदात्त बन और धरती सा विस्तार पाकर सबका हिस्सा बन जाता है, यह गीतांजलि के जरिए जाना जा सकता है.

तस्लीमा नसरीन की कई किताबें पढ़ गया. 'नष्ट लड़की, नष्ट गद्य' किताब तस्लीमा नसरीन के कमेंट्स, लेखों, विश्लेषणों का संग्रह है. इसे पढ़कर तस्लीमा की चिंतन पद्धति को और ज्यादा समझ सका. तस्लीमा को लोग फायरब्रांड कहते हैं लेकिन मुझे लगता है कि वह एक सहज महिला हैं जो साफ बात को साफ तरीके से कह देती हैं और आज के जमाने में साफ साफ बोलना दरअसल सबसे बड़ा हिम्मत का काम करना है. तस्लीमा का लिखा एक उपन्यास है ''निमंत्रण''. इस उपन्यास को पढ़कर मन उदास हो गया. एक लड़की जिस लड़के को पसंद करती है और उसको लेकर कितने सपने बुनती है, क्या क्या सोचती है, क्या क्या लिखती है, कैसे कैसे सोचती है, लेकिन जब वह लड़का उसे मिलता है तो कैसे वह कुछ मिनटों में लड़की को रौंदकर और अपने दोस्तों के हवाले कर चला जाता है, यह पढ़कर दिल बैठ जाता है.

आज की सच्चाई भी यही है. उस लड़की के लिए प्रेम का मतलब दिल में उतर जाना, आंखों में समा जाना, और उस मर्द के लिए प्रेम का मतलब सिर्फ जबरन सेक्स कर लेना. किसी स्त्री के लिए प्रेम और सेक्स क्या है, इसका अंदाजा पुरुष पाठक इस उपन्यास के जरिए लगा सकते हैं और इस बहाने उन्हें स्त्री मन को समझने जानने का मौका मिलता है. सो, यह किताब अपन लोगों की बैरक में 'मोस्ट रीडेबल' किताब में शुमार रही. तस्लीमा ने इस हरामी दुनिया की नंगी हकीकतों को यूं बयान किया है कि बात दिल तक उतर जाती है. पढ़ते पढ़ते कोफ्त होने लगती है कि इस दुनिया में इतने बदमाश लोग क्यों हैं जो दूसरों की जिंदगी, प्रेमपूर्ण भावनाओं को गोली मार कर कर अपने अहं को तुष्ट कर पाने को तत्पर रहते हैं.

डासना में ही महाश्वेता देवी की कई किताबें, जिनमें एक का नाम 'रिपोर्टर' है, पढ़ गया. अन्य किताबों का नाम अब याद नहीं रहा. दरअसल उन दिनों पढ़ने की धुन सवार थी, सो पढ़ा, खत्म किया और नई किताब तलाशने में जुट गया. जिस किसी फट्टे पर कोई  किताब रखी मिलती, मांग लाता और पढ़कर तुरंत लौटा देता. इस कारण अब मुझे कई किताबों के तो नाम भी याद नहीं हैं. कई ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास, कविता, कहानी की किताब पढ़ता गया. और, इन सबको पढ़ते हुए अब तक के अपने जीवन पर अफसोस करता रहा कि आखिर यह सब पढ़ने का काम मैंने इससे पहले क्यों नहीं किया.

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संगठित तरीके से किताबें पढ़ने का काम इसके पहले तीन बार किया है. जब इंटरमीडिएट का एग्जाम दे लिया तो बहुत सारी किताबें, उपन्यास जुटाया और पढ़ता गया. उन्हीं दिनों गांव में एक कामरेड आते थे और वे मुझे पढ़ने के लिए दास कैपिटल समेत ढेर सारा कम्युनिस्ट लिट्रेचर दे जाते. मैं जब पढ़ लेता तो वो मुझसे सवाल पूछने को कहते और सवाल पूछने पर उसका जवाब वे बहुत बड़े फलक पर ले जाकर उदात्तता के साथ देते. तब उनके नजरिए को समझने की कोशिश करते हुए दुनिया में फैली असमानता के असली वजहों को समझ सका. उनका दिया ज्ञान बाद में और परवान चढ़ा और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई करते हुए वामपंथी आंदोलन से पूरी तरह जुड़ गया.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते वक्त खूब सारी किताबें पढ़ीं. तब ओशो से प्रेम जगा और ओशो का लिखा बहुत सारा पढ़ा. उन्हीं दिनों प्रेमचंद, अज्ञेय से लेकर नए पुराने कई कहानीकारों उपन्यासकारों का लिखा पढ़ डाला. दुनिया के इतिहास से लेकर भारत के इतिहास, दर्शन शास्त्र, हिंदी साहित्य, राजनीति शास्त्र, पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन तक बहुत कुछ बांच डाला.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई के साथ-साथ सीपीआई-एमएल लिबरेशन के छात्र संगठन आइसा के होलटाइमर के रूप में काम करता रहा. उन दिनों पत्रकारिता की पढ़ाई चंदे से की थी क्योंकि तब घरवालों ने एक भी पैसा देने से मना कर दिया था क्योंकि उनके हिसाब से मैं वामपंथ का पूर्णकालिक हमराही बनकर अपने लाइफ को बर्बाद कर चुका था और मुझमें उन्हें कोई उम्मीद शेष नहीं दिख रही थी, सो उन लोगों ने पैसा न देने का फरमान सुना दिया था.

बीएचयू के दिनों में जीवन का बहुत सारा समय लोगों से मिलने जुलने, हास्टल-हास्टल बतकही करने, राजनीति समझाने, सुबह-शाम का खाना तलाशने और पार्टी मैग्जीन आदि बांटने में गुजर जाता. पढ़ने का मौका मिलता तो इतना थका होता कि पढ़ने की बजाय सो जाना पसंद करता. बीएचयू से पत्रकारिता का एग्जाम देकर जब लखनऊ भागा तो वहां पत्रकार अनिल यादव के यहां रुका. बीएचयू में आइसा से जुड़े सुनील यादव के भाई हैं अनिल यादव. अनिल के कमरे में किताबों का अच्छा कलेक्शन था, साथ ही वे खुद कई नई किताबें खरीदकर लाते रहते, सो वहां भरपूर पढ़ाई की. पत्रकार अनेहस शाश्वत, जो अब साधु बन चुके हैं, उन दिनों लखनऊ में ढेर सारी किताबें रखते, खरीदते, उनके जरिए भी बहुत कुछ जानने-पढ़ने को मिला.

अनिल ने पत्रकारिता क्षेत्र में नौकरी खोजने-पाने को लेकर हाय हाय न करने की सलाह दे दी थी और खर्चे पानी के लिए हर महीने अपनी सेलरी का एक हिस्सा मुझे दे देते, अनेहस शाश्वत की भी भरपूर कृपा थी मेरे उपर, सो मेरे पास पढ़ने के अलावा कोई काम नहीं था. जो नया काम अनिल से सीखा वह यह कि दारू पीने लगा और लोगों से लड़ने भिड़ने लगा. यह दोनों काम आज भी जारी है, हां, जिन अनिल ने यह सब सिखाया, वह खुद इन दोनों कामों से तौबा कर शरीफ नागरिक बन चुके हैं.

तो कह रहा था कि तीन दफे संगठित तौर पर ढेर सारा पढ़ने का मौका मिला और तीनों ही दौर को याद करता हूं तो लगता है कि कितने अच्छे दिन थे, जब सिवाय पढ़ते जाने के, और कोई चिंता शेष न थी. संगठित तौर पर पढ़ाई करने का यह चौथा दौर डासना जेल में आया. बाहर निकलकर लगता है कि कितने अच्छे जेल के दिन दिन थे कि पढ़ने के नशे में वक्त का ध्यान नहीं रहता.

और, पढ़ पढ़ कर पाया कि दुनिया में दरअसल अच्छे लोग, हीरो लोग, शानदार लोग, प्यार करने लायक लोग वही होते हैं जो सच बोलते हैं, सच लिखते हैं, साहस करते हैं, दूसरों के लिए जीते हैं, अपने को दास्तां से मुक्त करते हैं, दूसरों को राह दिखाकर उन्मुक्त करते हैं… ऐसे लोग हर दौर में कम रहे हैं, ऐसे लोग हर दौर में कम बनते हैं, क्योंकि अपने समय के समाज-सिस्टम के प्रलोभनों-भयों से मुक्त होकर आगे की दृष्टि विकसित कर पाना सबके बूते की बात नहीं होती… और, ज्यादातर लोग जान-बूझकर या अनजाने में ही प्रलोभन और भय के कारण समय-सिस्टम के मुताबिक चलने को अपनी नियति, अपनी चालाकी, अपना उद्देश्य, अपना यथार्थ मान-बना लेते हैं. खुद के और परिवार के लिए जीते रहने वालों की भीड़ हर दौर में बहुमत बहुतायत में रही है और यह भीड़ हमेशा कायर रही है, कांय कांय वाली रही है. भीड़ का कोई व्यक्तित्व नहीं होता, इसलिए आप इनसे आत्म-चिंतन की अपेक्षा भी नहीं कर सकते. भीड़ का काम हमेशा भोंकना, परनिंदा करना होता या फिर अंधविश्वास या फिर भीड़ से अलग खड़े लोगों के गुण-दोष पर बतिया-बतिया कर अपना जीवन व समय काटना होता. भीड़ में भेड़चाल होती है, इसलिए इसमें कथित सुरक्षा भी रहती है कि हम इतने ज्यादा हैं, जो कुछ होगा वो सबका होगा, सो अपन अकेले का टेंशन नहीं करने का. अलग चलने वाले आदमी को अपना रास्ता खुद बनाना होता है, चुनौतियों से खुद भिड़ाना होता है, इसलिए उसे हर समय टेंशन लेना पड़ता है. और, इसी टेंशन को आमंत्रित करने व जीने में उसे आनंद आने लगता है. 

जेल के भीतर रहते हुए एक बात हमेशा नोट किया कि ज्यादातर लोग खुद को भयंकर रूप से खाली महसूस करते थे क्योंकि उनका जो कुछ था वह जेल के बाहर था, इस कारण उनके लिए जेल में करने को कुछ नहीं था, उनका वक्त बहुत मुश्किल से कटता, उन्हें हमेशा चिंता बाहर की लगी रहती, वे अपनी जमानत और अपने केस के बारे में सोचते रहते और बतियाते रहते. मैं खुद को अजीब पाता. जब मैं बाहर था तो अपने को काफी हद तक कैदी-सा महसूस करता और जब अंदर हूं तो उतना ही मुक्त महसूस करता जितना बाहर मुक्त था. बल्कि अंदर आकर जड़ों की ओर लौट गया. आदिम दिनचर्या के साथ जुड़ गया. बाहर सोना भूल गया था, अंदर नींद आने लगी. अंदर सामान्य नींद कब गहरी नींद में तब्दील हो गई और कब सोने का सुख मिलने लगा, पता ही नहीं चला.

बाहर इस गहरी नींद से वंचित था. इस नींद को पाने की भूख थी. छटपटाहट थी. बाहर दारू में चैन मिलता. पर दारू ने नींद को काफी कुछ ठिकाने लगा दिया था. दारू पीकर सोता तो हमेशा एक सतही नींद आती, कुत्ता टाइप नींद जो कभी भी टूट जाती. देर सुबह उठता तो देर तक आलस्य बना रहता, घटिया नींद सोने की सजा के रूप में थकान सी बनी रहती. जेल में रुटीन बदल गया. जड़ों की तरफ लौट गया. मजबूरन ही सही, दारू से मुक्त हो गया.

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जेल में अपने गांव सा बचपन वाला रुटीन वापस लौट आया. सुबह शाम नियम से टायलेट जाना. दोनों वक्त दांत साफ करना. दोनों वक्त नहाना. सोने और खाने से पहले हाथ मुंह धो लेना. मन लगाकर खाना. मन लगाकर पढ़ना और मन लगाकर सोना. फिर मन लगाकर दूसरों से बतियाना-गपियाना. इलेक्ट्रानिक और वैचारिक जंजाल से मुक्ति. न टावर, न मोबाइल, न लैपटाप, न डाटाकार्ड, न डोंगल, न मेल, न चिकचिक, न किचकिच, न क्रांति, न आंदोलन, न कांय कांय न भांय भांय. मैं किताबें पढ़ता और किताबों के चरित्रों घटनाओं के हिसाब से प्रेम, घृणा, करुणा, हिंसा, जुगुप्सा, निराशा के भावों में डूबता उतराता रहता. बहुत दिनों बाद ऐसा होना मेरे लिए किसी क्रांति से कम न था.

जेल में किताबों के साथ गुजरे अच्छे दिनों की याद करते करते एक प्रिय 'खलनायक' की भी याद आने लगी है. मैं उनसे चिढ़ता और वे मुझसे. वे जेल की लाइब्रेरी के इंचार्ज हैं. बुजुर्ग और सख्त से दिखने-बोलने वाले कैदी हैं. संभवतः सजायाफ्ता होंगे, सो वे पूर्णकालिक जेल कार्यकर्ता हैं. उन्हें लाइब्रेरी का प्रभार दिया गया है. वे हफ्ते में एक बार किताबें लेकर हम लोगों की बैरक में आया करते. जेल पहुंचने के बाद मैंने पता कर लिया था कि किताब पाने की प्रक्रिया क्या होती है. पहले कैटलाग व सादा कागज एक फट्टे से दूसरे के यहां जाता. सादा कागज धीरे धीरे भरने लगता. कैटलाग में उल्लखित किताबों में जो पसंद हों, उसका नंबर कागज़ पर दर्ज कर दिया जाता और खुद का व पिता का नाम लिख दिया जाता. साथ ही किसी एक अन्य किताब का भी नंबर डाल दिया जाता ताकि अगर पहली किताब न उपलब्ध हो तो उसकी जगह दूसरी किताब दी जा सके. कैटलाग व कागज पूरे बैरक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के बाद इन इंचार्ज महोदय के पास जमा हो जाते. पूरे बैरक द्वारा मांगी गई किताबों को लेकर लाइब्रेरी इंचार्ज बैरक में अगले रोज प्रकट होते और किताबों को किसी परिचित के फट्ठे पर सजाकर बैठ जाते. कैदी-बंदी उनके यहां आते और अपनी मांगी गई किताब दस्तखत करके ले जाते.

सामान्य तौर पर किताब इशू होने के चौथे दिन वापसी की तारीख होती लेकिन जो उनके जान पहचान के होते या उनसे विशेष अनुरोध किया जाता तो वे हफ्ते हफ्ते भर तक किताब छोड़े रहते. आमतौर पर पूरे हफ्ते में केवल एक किताब पढ़ने को मिलती. लेकिन किताब कई और लोग भी मंगाते तो अगर मैंने दो दिन में अपनी मंगाई किताब खत्म कर लिया तो किसी दूसरे द्वारा मंगाई गई किताब लेकर पढ़ने लगा, मेरी मंगाई किताब कोई और लेकर पढ़ने लगता.

एक बार मेरी मंगाई किताब दूसरे-तीसरे-चौथे बंदी के हाथों में आते-जाते जब वापसी के वक्त मेरे पास लौटी तो थोड़ी बहुत फट गई थी. मैं फटी किताब देखकर थोड़ा परेशान हुआ कि लाइब्रेरी इंचार्ज महोदय अगर इस हाल में किताब को देखेंगे तो क्या बोलेंगे. मन ही मन तय किया कि मैं किताब लौटाते हुए खुद ही किताब की हालत खराब होने का जिक्र करते हुए सॉरी बोल दूंगा. ऐसा ही किया. लेकिन सफेद टोपी लगाए और सफेद कुर्ता पाजामा पहने लाइब्रेरी इंचार्ज महोदय का पारा तुरंत हाई हो गया. उन्होंने डपटते हुए कहा- ''ये हाल कर दिया, चलो भंडारे, अब तुम्हें भंडारे जाना होगा…'' उन्होंने बकना – हड़काना जारी रखा और बार-बार भंडारे भेजने की बात कहते रहे.

मैं चुपचाप सुनते हुए वापस लौट आया. मुझे कोफ्त आई उन पर. मैं जब फिर उनकी तरफ गया तो एक ड्रामा करने का तय किया. मैंने उनके पास जाकर हाथ जोड़कर कहा- ''प्लीज, भंडारे मत भेजना, मुझे बहुत डर लगता है.'' वे कुछ नहीं बोले, केवल घूरकर देखते रहे. अगले दिन योगा क्लास के दौरान मिले, क्योंकि योगा व लाइब्रेरी का स्थान एक ही है, मैंने वहां भी बोला- ''प्लीज, भंडारे मत भेजना, मुझे बहुत डर लगता है..'' मैंने उनके सामने यह डायलाग अगले कुछ दिनों में तीन चार बार अलग अलग मौकों पर बोला. वे भी समझने लगे कि मैं चिढ़ा रहा हूं.

एक दिन मैंने उन्हें समझाते हुए कहा- ''सर जी, अगर किताब विताब फट जाए तो जुर्माना लगा दें, किताब की कीमत का एक हिस्सा ले लें, किसी को बेवजह डराना, हड़काना, भंडारे भेजने की धमकी देना ठीक नहीं. जिसको किताब इशू की है, वह फटने से खुद ही परेशान होकर सारी बोल रहा है तो उसकी भी स्थिति समझने की कोशिश करें.''

वह मेरी बात सुनकर भड़क गए और लाइब्रेरी से फटी किताब लाकर अपने बगल में बैठे सिपाही उर्फ चीफ साहब को दिखाने लगे, कि देखिए कितना इसने फाड़ डाला और यह बहस करता है, चिढ़ाता है. मैंने भी कहा कि ये किताब फटने पर भंडारे भेजने की धमकी देते हैं, यह गलत है, आखिर आप भंडारे भेजने की बात कहने वाले कौन से अधिकारी हैं? आप किताब फटने पर किताब की कीमत का कोई प्रतिशत जुंर्माने के रूप में वसूल करें और उसे लाइब्रेरी कोष में जमा कर दें, जिससे नई किताबें मंगाई जा सके. खैर, उस चीफ साहब का मुझसे भला क्या मतलब होता, सो उन्होंने मुझे ही तरेरा और ज्यादा न बोलने की सलाह दी. मैं चुप हो गया.

जेल जाने के दौरान ही मुझे वरिष्ठ पत्रकार साथी चंद्रभूषण की एक लिखित सलाह याद आ गई थी कि जब भी जेल जाओ तो अंदर चुप रहने की, मौन रहने की साधना करो, किसी की बात पर किसी भी तरह रिएक्ट न करो, सुनकर अनसुना कर दो. इससे कई समस्याएं खुद ब खुद हल हो जाती हैं. चंद्रभूषण ने इस बात का उल्लेख ''एक नक्सली की डायरी'' में किया है. तब वह बिहार में नक्सल आंदोलन में सक्रिय थे और उसी दौरान पकड़े गए तो जेल भेजे गए थे. जेल में कुछ कामरेड पहले से थे. उन लोगों ने चंद्रभूषण को जेल में घुसते ही मंत्र दिया कि यहां चुप रहना सबसे बड़ी रणनीति है. मेरे जेहन में यह बात दर्ज थी. सो मैंने भी यही करने की कोशिश की.

कई दिन बीतने के बाद मुझे समझ में आया कि डासना जेल की जिस बैरक में हूं, वहां ज्यादातर शरीफ लोग हैं, जो बदमाश भी हैं, वह यहां के सिस्टम के कारण चुपचाप व शराफत से रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं, ऐसे में हम लोग खुलकर बोल बतिया हंस रो सकते हैं. सो, मैंने हर एक से बतियाना और उनके दुख सुख में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और कुछ ही दिनों में सबसे दुवा सलाम होने लगी. लेकिन लाइब्रेरी इंचार्ज महोदय से शुरुआती दो तीन बार जो सामना हुआ, जो साबका पड़ा तो उनकी ऐंठी हुई आवाज, दबंग मुद्रा, तरेरती आंखों के कारण उनको ठीक आदमी नहीं मानने लगा. हालांकि मेरे जेल के कई मित्र कहते कि यार, ये अच्छा आदमी है, पता नहीं तुम दोनों में क्यों नहीं बन पाती. जेल में जितने दिन रहा, लाइब्रेरी इंचार्ज को देखकर मेरा मन खट्टा हो जाता.

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अब बाहर आकर सोचता हूं कि शायद मेरे में ही कमी रही होगी जो उस आदमी को टैकल नहीं कर पाया. हर शख्स का एक इगो होता है, अगर उसे समझ लिया जाए और उसके मुताबिक थोड़ा खुद को मोडीफाई कर लिया जाए तो वह आपके साथ नार्मल या फिर अच्छा व्यवहार करने लगेगा. यह और, जेल तो वो जगह है जहां माना जाता है कि दुनिया भर की बुराइयों को धारण करने वाले लोग आते रहते हैं, लंबे समय से सजा काट रहे लोग रहते हैं. सो, इन लोगों की रसविहीन दुनिया में अगर मीठे दो चार बोल बोल दिए जाएं तो उन्हें भी अच्छा लगता है और खुद को भी. अब मुझे अफसोस है कि मैं लाइब्रेरी इंचार्ज को मन ही मन बुरा आदमी मानता रहा और उनसे चिढ़ता रहा. लेकिन उन्हीं के अधीन लाइब्रेरी की किताबें पढ़ पढ़कर मैं आज खुद को पहले से ज्यादा मेच्योर और पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा महसूस कर रहा हूं. थैंक्यू लाइब्रेरी एंड लाइब्रेरी इंचार्ज.

मेरे जेल जाने के सवा महीने बाद भड़ास के कंटेंट एडिटर अनिल सिंह को जेल भेजा गया तो उन्हें मैंने किताबों से दोस्ती कर लेने की सलाह दी. अनिल ने किताबों से ऐसा मन लगाया कि इसी दुनिया में खो गए. उन्होंने बताया कि उनने भी आधा दर्जन से ज्यादा किताबें पढ़ डालीं. सच में, अगर इतनी किताबें पढ़ने के लिए जेल भेजे जाने की शर्त हो तो आगे भी जरूर जेल जाना चाहूंगा. काश, हम इस कथित आजाद दुनिया में भी इतनी आसानी से इतनी सारी किताबें और इन्हें पढ़ पाने का वक्त पा पाते!

….जारी….


..इसके पहले के तीन भाग पढ़ने के लिए नीचे दिए गए नंबरों पर क्लिक करें…

1

2

3


इस धारावाहिक उपन्यास के लेखक यशवंत सिंह 68 दिनों तक जेल में रहकर लौटे हैं. उन्हें जेल यात्रा का सौभाग्य दिलाने में दैनिक जागरण और इंडिया टीवी प्रबंधन का बहुत बड़ा योगदान रहा है क्योंकि ये लोग भड़ास पर प्रकाशित पोलखोल वाली खबरों से लंबे समय से खार खाए थे और फर्जी मामलों में फंसाकर पहले थाने फिर जेल भिजवाया. यशवंत जेल में जाकर टूटने की जगह जेल को समझने बूझने और उसके सकारात्मक पक्ष को आत्मसात करने में लग गये. इसी कारण ''जानेमन जेल'' शीर्षक से उपन्यास लिखने की घोषणा उन्होंने जेल में रहते हुए ही कर दी. आप यशवंत तक अपनी बात [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं. उनसे संपर्क 09999330099 के जरिए भी किया जा सकता है.

इन्हें भी पढ़ सकते हैं….

सात तालों में चैन की नींद

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जेल में नई व कौतूहलपूर्ण दुनिया से रूबरू हूं

आ गया 'रंगदार'!


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