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जनवाणी, एक डूबते अखबार की कहानी

मेरठ से प्रकाशित जनवाणी अखबार के हाल के बारे में आपको कुछ अवगत कराना चाहता हूं। तीन साल तक इस संस्थान में काम करने के बाद अंत में मुझे भी ये संस्थान छोड़ने को विवश होना पड़ा। अब हाल ये है कि इस संस्थान में वे लोग ही काम कर रहे हैं जिनके सामने यहां काम करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है। संकेत मिल रहे हैं कि ये अखबार कभी भी बंद हो सकता है और मालिक लोग इसके उत्तराखंड संस्कण को बेचने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ और तथ्य आपको बताना चाहता हूं। नीचे लिखी बातों पर ध्यान दें।

मेरठ से प्रकाशित जनवाणी अखबार के हाल के बारे में आपको कुछ अवगत कराना चाहता हूं। तीन साल तक इस संस्थान में काम करने के बाद अंत में मुझे भी ये संस्थान छोड़ने को विवश होना पड़ा। अब हाल ये है कि इस संस्थान में वे लोग ही काम कर रहे हैं जिनके सामने यहां काम करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है। संकेत मिल रहे हैं कि ये अखबार कभी भी बंद हो सकता है और मालिक लोग इसके उत्तराखंड संस्कण को बेचने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ और तथ्य आपको बताना चाहता हूं। नीचे लिखी बातों पर ध्यान दें।

हाल ही में जनवाणी के पुराने सदस्यों में से एक बागपत जिले के प्रभारी जयवीर सिंह तोमर का निधन हो गया। वे 55 साल के थे। उनकी तेरहवीं के मौके पर कई पत्रकार और जनवाणी से जुड़े लोग जमा हुए। वहां जो बातें मुझे पता चली वे बहुत ही शर्मनाक थी। जयवीर सिंह अपने पीछे तीन बेटी और एक छोटा बेटा छोड़ गए हैं। सभी बच्चे पढ़ रहे हैं और अब उनके सामने जीवन-यापन के भी लाले पड़ रहे हैं। संस्थान की ओर से कोई हेल्प नहीं की जा रही है। बागपत जिले का जनवाणी स्टाफ ही उनकी मदद के लिए कुछ पैसा जमा करने की कोशिश कर रहा है। मालिक ने एक भी पैसा उनकी मदद के लिए नहीं दिया है। पत्रकारों का कहना है कि जनवाणी में काम के तनाव की वजह से ही उनकी जान गई है। वे दिल के मरीज थे और जिस दिन उनका निधन हुआ उसी दिन वे मेरठ में चेकअप कराकर लौटे थे। बताते हैं कि उन्हें डाक्टर ने अस्पताल में भर्ती होने की सलाह दी थी लेकिन पैसे की तंगी की वजह से वे भर्ती नहीं हुए और घर वापस आ गए। इसके कुछ ही घंटे बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा वे स्वर्ग सिधार गए। जयवीर सिंह की आर्थिक हालत खराब थी और हाल ही में उन्होंने अपना मकान भी बनाया था जिसके लिए कुछ लोगों के वे कर्जमंद भी हो गए थे। संस्थान ने पिछले एक साल से सैलरी देनी बंद कर दी थी। दबाव था कि पूरे स्टाफ का पैसा विज्ञापन से निकालें जो आसान काम नहीं था। इसके अलावा मीटिंग में बुलाकर सारे स्टाफ के सामने तोमर जी को जलील भी किया जा रहा था। शोक सभा में आए अन्य पत्रकारों का कहना था कि अगर तोमर जी जनवाणी में न होते तो शायद कुछ साल और जिंदा रहते।

जो लोग जनवाणी के स्तंभ कहे जाते थे वे पहले ही चले गए थे। इनमें सरकुलेशन जीएम इंद्रजीत सिंह, मैनेजिंग एडिटर रवि शर्मा, विज्ञापन मैनेजर आलोक उपाध्याय, मुजफ्फरनगर ब्यूरो चीफ हर्ष चौधरी, सहारनपुर प्रभारी वीरेंद्र आजम, प्रसार मैनेजर अंकित चौहान जैसे लोगों को भी मजबूर कर दिया गया कि वे खुद ही संस्थान को छोड़कर चले जाएं। जबकि उन्हीं की बदौलत ये संस्थान मैदान में जम पाया था। हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा ने भी जनवाणी को छोड़ दिया। राजेंद्र मेरठ के पुराने पत्रकारों में से थे और शिक्षा विभाग पर उनकी जोरदार पकड़ थी। उन्हें अपमानजनक हालात मे काम करना पड़ रहा था। उनसे भी ज्यादा जूनियर रिपोर्टर उन पर हुकुम चलाने लगे थे।

उत्तराखंड में जनवाणी को फ्रेंचाइजी के रूप में बेचने की तैयारी चल रही है। वहां के प्रभारी योगेश भट्ट को ही इसकी फ्रेंचाइजी दी जा रही है। मालिक बाजवा बंधु अपने खर्च को कम करने के लिए वे सारे काम कर रहे हैं जो इस संस्थान को प्रभात व शाह टाइम्स जैसे अखबारों की श्रेणी में ही ला रहा है।

जनवाणी के एक पूर्व पत्रकार के मेल पर आधारित.

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