कल सुबह ही एक बुजुर्ग-से सहाफी बंधु ने फ़ोन पर दो लाइन का फरमान सुनाया- "भैया, एक नए चैनल में काम करोगे? मालिक तो गाय है, मगर बहुत कुछ पलस्तर करना है". वो मेरे बुजुर्ग रहे हैं और मैं उनका बड़ा ही अदाबो-एहतराम करता हूँ. लिहाज़ा, मैं कुछ कह नहीं पाया. मगर थोड़ी हैरानी ज़रूर हुई कि ये क्या बात हो गयी? पहला ये कि आजकल टेलीविजन चैनलों में रिपोर्टर, एंकर की जगह क्या पलस्तर का काम आ गया है या फिर सहाफियों के पेशे को कोई नया नाम दे दिया गया है. सहाफी लोग तो कलम और माइक्रोफोन का इस्तमाल करते थे. अब क्या एक राजगीर या दस्तगीर की तरह करनी और तगाड़ लेकर जाना पड़ेगा? खबरों के ऊपर तप्सरा-के बदले क्या नयी उम्र की नयी खबर के तगाड़ में पीटीसी और लाइव वाक थ्रू को चूना और सीमेंट की तरह मिलाना पड़ेगा?
मामला कुछ अफलातूनीसा लग रहा था. दूसरी बात ये कि अगर मालिक गाय है तो मैदान में जा कर चारा खाय. नहीं मिले तो मेरी बला से. उसमें मेरा क्या रोल? अचानक ज़ेहन में एक बहुत पुरानी बात याद आ गयी जो एक बहुत ही अज़ीम अफसर साहेब ने बड़े चटखारे लेकर सुनाया था. जब ज्ञानी जैल सिंह साहब सद्र थे तो अचानक उनको श्रीमती गाँधी का फ़ोन आया कि राष्ट्रपति भवन में तैयारी करें क्योंकि एक नया कैबिनेट बनाना है. ज्ञानी जी अवाक रह गए कि अनाचक ये कौन सी आफत आ गयी और मैडम को इतनी ज़ल्दी क्यों है? उनमें श्रीमती गाँधी की हुक्म-उदूली करने की हिम्मत नहीं थी और ना-फ़रमानी का अंजाम उनको बखूबी मालूम था. बड़ी जद्दो-जहद के बाद ज्ञानी जी ने डरते हुए श्रीमति गाँधी को फ़ोन लगा कर दुहाई देने की कोशिश की कि 'ओ बीबी जी, ये काम तो मैंने बीस साल पहले ही छोड़ दिया है. अब तो ठीक से बैठा भी नहीं जाता. मैं क्या कैबिनेट बना पाऊंगा?' श्रीमती गाँधी हंस कर बोली: ''मैं मंत्रिमंडल वाले कैबिनेट की बात कर रही हूँ." तब जाकर जैल सिंह जी को करार आया और वो बुदबुदाते हुए चले गए कि यार ये रामगढ़िया वाला काम मेरा अब भी पीछा नहीं छोड़ता.
तकरीबन यही हाल मेरा भी हो गया. दोबारा जब मेरे बुजुर्ग साथी का फ़ोन आया कि "पलस्तर" का मतलब बहुत कुछ ठीक-ठाक करना है तो मुझे अपने आप पर ज़बरदस्त हंसी आई. फिर मैंने जवाब दिया कि "दादा, मेरी उम्र अब पचास के पार कर गयी, न शक्ल सूरत से और न ही सेहत से, कमर से बढ़कर कमरा हो गया है, ३६ इंच का बेल्ट पहनता हूँ, अब इस उम्र में तो न ही ठुमरी- ठप्पा गा सकता हूँ और न ही मुजरा कर सकता हूँ, तो अब नौकरी करूँगा कैसे और नौकरी देगा कौन?''
उनका तर्क था- "अरे यार, ये सब थोड़े ही करना है. तुम देख नहीं रहे हो, आज कल हर चैनल में प्रोग्रामिंग का कोना बड़ा ही बेढब हो चला है. मालिक को कोई ऐसा आदमी चाहिए जो ये काम कर दे. बस दिन भर में दो चार विशेष कर देना. बस काम ख़त्म. एक काम करो, आज तक से लेकर जी चैनल तक सारे स्पेशल कार्यक्रम देख लो. उसके बाद सब कुछ दिमाग में आ जायेगा.''
….जारी….
लेखक अजय एन झा वरिष्ठ पत्रकार हैं. कई न्यूज चैनलों और अखबारों में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं. इसके पहले का पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- झा जी कहिन (1) : खबरिया चैनलों के नब्बे फीसदी एंकर और रिपोर्टर उर्दू ज़ुबान के साथ बदसलूकी करने के गुनहगार