दिल्ली के लोदी रोड शवदाह-गृह में अदिति अग्नि को सुपुर्द हो गयीं। उस सड़क से न जाने कितनी ही बार पिछले दो दशकों में गुजरी थी। आज उसे वहां लाया गया था। बूढ़े माता-पिता, भाई और, मित्रजनों विशेषकर कश्मीर से प्रवासित लोग जो अदिति को 'दिल से चाहते थे', सबों की आँखें नम थीं। जैसे जिन्दगी रुक सी गयी हो और सभी ईश्वर को कोस रहे हों उसके "गलत निर्णय' पर।
लोग कहते हैं मृत्यु का समय तय होता है। ईश्वर जितनी साँसों में इस म्रत्यु-लोक में कार्य संपन्न करने के लिए लोगों को, जीवों को, भेजता है, जो इसे संपन्न कर लिया वह मरने के बाद भी अमर हो गया – लोगों के दिलों में। अदिति अपने जीवन के 35 वसंत में यह कार्य पूरा कर गयी। यह अलग बात है की ईश्वर ने उसे अपना जीवन जीने का मौका नहीं दिया। हाथों में मेंहदी लगाने का मौका नहीं दिया। शादी का जोड़ा पहनने का मौका नहीं दिया। सिर्फ एक और महीने की तो बात थी। ईश्वर उसकी अतृप्त इक्षाओं को पूरा करे, उसे शांति दे, प्रार्थना है।
सन 1992 की बात है। पीवी नरसिम्हाराव प्रधान मंत्री थे। आम-बजट की चर्चाएँ चल रही थीं। भारत के महान से महानतम अर्थशास्त्र के हस्ताक्षर देश को नयी आर्थिक नीति के बारे में अपने-अपने विचार दे रहे थे। मैं उस समय आनन्द बाज़ार पत्रिका समूह के 'सन्डे पत्रिका' में एक अदना सा संवाददाता था। दिल्ली की धरती पर बस समझें 'अवतरित' ही हुआ था। आम तौर पर जब बिहार का कोई 'प्राणी' दिल्ली 'टपकता' है तो मुखर्जी नगर की ओर ही कदम बढ़ता है – एक आशा और विश्वास के साथ कि कोई न कोई मित्र "पनाह" देगा ही, चाहे कुछ दिनों के लिए ही सही। मैं भी उसी श्रेणी में था।
नयी दिल्ली स्टेशन पर जब "लखनऊ मेल" विराजी और मैं मुगलों की बस्ती में अपना कदम रखता, तब तक "दिल्ली के दरिंदों" ने मेरे बटुए का कत्लेआम कर दिया था। जेब में हाथ डालते ही ऊँगली "कहीं और टकरा गयी". मैं समझ गया दिल्ली में क्या दर्द है! बहरहाल नयी दिल्ली स्टेशन के उस कुली को धन्यवाद देता हूँ जिसने बिना मेहनताना लिए मुझे अजमेरी गेट की ओर ले जाकर मुखर्जी नगर का मार्ग-दर्शन करवाया। अपने छोटे भाई के मित्रों के यहाँ ठिकाना बनाया और फिर अपनी दुनिया बसाने का मार्ग प्रशस्त करने दिल्ली की पत्रकारिता और पत्रकारों की दुनिया में "डुबकी" लगाने निकल पड़ा।
तीसरे दिन जब दफ्तर पहुंचा सभी ने "धनबाद माफिया डॉन" के नाम से स्वागत किया। तत्कालीन संपादक वीर सिंघवी कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से घिरे गुफ्तगू कर रहे थे, लेकिन मेरा "स्वागत गान" को सुनकर हंस दिए और कहे "शिवनाथ फ्रॉम धनबाद… वेलकम" उन्हीं संपादकों के बीच बैठे थे राजीव शुक्ला साहेब। इनकी पहुँच या यूँ कहें कि उनकी 'केमेस्ट्री' उन दिनों भी सत्ता के गलियारे में "जबरदस्त" थी।
दूसरे ही दिन मुझे डेल्ही स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के महान प्राध्यापक कौशिक बसु से मिलने को कहा गया और उनसे बजट पर सन्डे मैगजीन के लिए लिखने का अनुरोध करने को कहा गया। दफ्तर और घर के रास्ते के बीच कौशिक बसु का विभाग था, इसलिए यह कार्य कुछ "तुरत में आसान" लगा।
मैं सुबह-सुबह डेल्ही स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स पहुँच गया। उन दिनों मोबाईल फोन का जमाना नहीं था इसलिए मैं घन्टों उनके विभाग में उनका प्रतीक्षा किया… आखिर वो भी शिक्षक थे। पहली बार दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में छात्र-छात्रों का पहनावा, तौर-तरीका, बात-चीत करने के अंदाज़ को नजदीक से देखने-परखने-समझने का मौका मिला। मन अन्दर से तो गदगद था क्योंकि अक्सर बिहारी छात्र या बिहार के युवक जब दिल्ली टपकते हैं तो इन्हीं बातों को 'दिल्ली की धरोहर' की तरह लेकर मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, दरभंगा और अन्य पिछड़े जिलों के चौराहे पर झोपड़ी में चलने वाली चाय और कचरी की दुकानों पर बैठकर अपने मित्रों को अनवरत-बार सुनाते हैं जैसे कोई 'वेद' सुना रहे हों और श्रोता भी टकटकी लगाकर उस समय का अंदाज अपने मानसपटल पर कर उन्मोदित होते रहते हैं।
बहरहाल, कौशिक बसु से मिलने और अपने संपादक की याचना को सुनाने के बाद नीचे सीढ़ी की ओर बढ़ा ही था कि दो आवाजें एक साथ टकराई। एक कौशिक साहेब की थी और दूसरी एक कश्मीरी लड़की जो कौशिक साहेब से मिलने की इच्छा रखती थी। उसने कहा "सर, आप कौशिक साहेब से मिलने जा रहे हैं, मैं आपके साथ चल सकती हूँ?" मैंने कहा, आप मेरे साथ क्यों, मैं आपके साथ चलता हूँ। हम दोनों एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे। मन अन्दर से 'भयभीत' भी था कहीं 'कोई चक्कर' तो नहीं है? कौशिक साहेब कहीं गुस्सा तो नहीं हो जायेंगे? फिर दोनों कौशिक साहेब के कमरे में गए। एक बार दोनों को उन्होंने देखा और पूछा : "झा साहेब, ये मैडम कौन हैं?" मैंने बेबाक कहा: "सर, ये बाहर खड़ी थीं और आपसे मिलने की इच्छा रखती थीं… मैं अन्दर आ रहा था तो इन्होंने साथ आने की जिज्ञाषा जतायी।" वह कौशिक साहेब का एक इंटरव्यू लेना चाहती थी।
यही हमारी पहली मुलाकात थी आदिती कॉल से जो कल तड़के अपने जीवन का 35 वां वसंत देखे और हाथों में मेंहदी, चूड़ी, शादी का लहंगा लगाये-पहने बिना अपने बूढ़े माता-पिता भाइयों को, पत्रकार मित्रों, विशेषकर कश्मीरी पंडित समूह को छोड़कर "अलविदा" कर गयीं। ईश्वर के इस कार्य पर हम कोई "सन्देश" नहीं करेंगे, शायद यही "नियति" थी उसकी, लेकिन "काश ईश्वर ने इशारा किया होता".
सन 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 दिनों बाद लुढ़क गयी थी, एक दिन हम दोनों भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय के पीछे स्थित दो-कमरे वाले घर में पहुंचे। गोविन्दाचार्य उसी में रहते थे। गोविन्द जी को हम दोनों को बहुत अच्छी तरह जानते थे। मैं 70 के दशक में जब पटना में था और पटना विश्वविद्यालय के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के खजांची रोड स्थित आया जाया करता था, गोविन्द जी हम सभी छात्रों का मार्ग-दर्शन किया करते थे। उस दिन गोविन्द जी अकेले थे और 13-दिनों की सरकार के अस्तित्व पर मंथन कर रहे थे।
जैसे ही हमलोगों ने दरवाजे पर दस्तक दिया, गोविन्द जी खिलखिला उठे और बोले "अरे, तुम दोनों आ गए। यशु भाई (मेरा घर का नाम है) आप बहुत दिनों से खिचड़ी नहीं खिलाये, भूख जोरों से लगी है, आप सीधा किचेन में जाएँ। और आदिति को कुछ कागजात दिए जिसे लिखना था। फिर हम तीनों खिचड़ी और आलू चोखा दबाकर खाए।
इसी मंथन के दौरान एक बात सामने आई कि इलाहाबाद से कुछ पंडितों को बुलाया गया है (इसका श्रेय मुरली मनोहर जोशी को जाता है), पंडितों ने सलाह दी है कि पार्टी कार्यालय के दो गेटों में से एक को, जो अभी खुला था और आम-रास्ता था, को बंद कर दूसरे गेट को, जिसमे लगे ताले में जंग लग गयी है और मुद्दत से बंद पड़ा है, उसे कार्यालय में आने-जाने का रास्ता बनाया जाये। मैंने गोविन्द जी से पूछा ऐसा क्यों? गोविन्द जी तड़ाक से जबाब दिए – "पंडितों का कहना है कि इस गेट के सामने पीपल का एक वृक्ष, जो अवरोधक है सत्ता के लिए। इस वृक्ष अब भी काट देने की सलाह दी गयी है। अब तो सत्ता भी वास्तु से चलता है, मानव-कल्याण पिछली सीट पर चली गयी है।"
मैं उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस (दिल्ली) में कार्य करता था। शाम में दफ्तर पहुंचा तो राजकमल झा से इस बात की चर्चा की। वे उछल गए और मैथिली में उन्होंने कहा: "शिवनाथ, अहाँ की की देखैत छी। जबरदस्त कहानी। आ ई कहानी में गोविन्द जी के कोट – सोना में सुहागा". उस दिन वह कहानी एक्सप्रेस के फ्लायर में छपा। दूसरे दिन जब हम और आदिति मिले तो मंडी हाउस के चौराहे पर लोट-पोट कर हंस रहे थे।
1998 लोक सभा चुनाव के दौरान आदिति को बीजेपी मैनिफेस्टो विभाग में बुलाया गया जिसे सभी पार्टियों की मैनिफेस्टो पर मंथन करना था। उसी सप्ताह मिली और बोली: "सर ये पार्टी के लोग कितने चोर होते हैं। सभी पार्टी के मेनिफेस्टो को पढ़ते हैं और अच्छी-अच्छी बातों को जो सभी पार्टियाँ लोगों को लुभाने के लिए बनती है, अपने-अपने शब्दों में रोचक बनाकर अपना मेनिफेस्टो बना लेते हैं"
कश्मीरी आतंकवादियों के दहशत से अपनी जमीं को छोड़कर पलायन किये लाखों कश्मीरी पंडितों के परिवारों में एक आदिति के माता-पिता भी थे जो दिल्ली में अपना ठिकाना ढूंढ़ रहे थे। आदिती सबसे बड़ी थी और इसके दो छोटे भाई थे। लेकिन अपनी मेहनत, तपस्या से धीरे-धीरे सपनों को समेत कर एक घर का रूप दी इसने अपने माता-पिता के साथ। सभी बड़े हुए, पढ़े-लिखे और रोजी रोजगार में लगे।
1992 के बाद 2012 तक शायद ही कोई बात हमारे घर की होगी जो वह नहीं जानती थी। जब आकाश का जन्म हुआ तब घर आई और आकाश को एक "खिलौना" दी, आज उस खिलौने के साथ आकाश दिन-भर रोया।
पिछले महीने जब उससे मुलाकात हुयी तो बहुत खुश थी। मैंने पूछा "क्या बात है?" उसने कहा की "जल्द ही आपको कुछ अच्छी खबर मम्मी देगी।" मैं इशारा समझ गया। आज भी भारत में बहुत ऐसी लड़कियां हैं तो खुले विचारों के होने के बावजूद 'शादी' के मामले अपने माता-पिता के फैसले पर निर्भर करती हैं। उसकी शादी जनवरी के आसपास होने वाली थी। पर ऐसा नहीं हो पाया। ईश्वर को मंजूर नहीं था। अब ईश्वर के निर्णय को भारत की किसी अदालत में चैलेन्ज तो नहीं किया जा सकता। लेकिन ईश्वर को कल भले ही अपने निर्णय पर पश्चाताप नहीं हुआ हो इस मासूम की जिन्दगी को लेकर, परन्तु कल वह भी पछतायेगा अपने कर्मो पर, अपनी गलतियों पर।
(कई अखबारों में रह चुकीं पत्रकार अदिति कौल को पिछले दिनों अचानक डेंगू ने हम सब से छीन लिया। 2007 में उन्हें मातृश्री पुरस्कार भी मिला था। तब वो टाइम्स ऑफ इंडिया में थीं। अदिति कौल को वरिष्ठ पत्रकार शिवनाथ झा की भावभीनी श्रद्धांजलि उनके पेसबुक वॉल से साभार)